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👉 अहमदाबाद - श्री छगनराज जी पालगोता का संथारा पूर्वक देवलोक गमन
प्रस्तुति - 🌻 *तेरापंथ संघ संवाद* 🌻
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👉 #पूज्यप्रवर का प्रवास स्थल -"#राजरहाट", #कोलकाता (पश्चिम बंगाल) में..
👉 #गुरुदेव मंगल उद्बोधन प्रदान करते हुए..
👉 आज के "मुख्य #प्रवचन" के कुछ विशेष दृश्य..
दिनांक - 28/07/2017
📝 #धर्म संघ की तटस्थ एवं सटीक जानकारी आप तक पहुंचाए
प्रस्तुति - 🌻 *#तेरापंथ संघ संवाद* 🌻
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*विशेष सूचना*
पूज्य गुरुदेव आचार्य श्री महाश्रमण जी ने महत्ती कृपाकर साध्वी श्री विमलप्रज्ञा जी को '#शासनश्री' #अलंकरण प्रदान किया है।
दिनांक - 28-07-17
प्रस्तुति - 🌻 *#तेरापंथ संघ संवाद* 🌻
News in Hindi
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28 जुलाई का संकल्प
*तिथि:- सावन शुक्ला पंचमी*
एक शरीरी कन्दमूल में होते शरीर अनेक ।
बांधें स्वाद लोलुप मन जागृत कर विवेक ।।
📝 धर्म संघ की तटस्थ एवं सटीक जानकारी आप तक पहुंचाए
🌻 *तेरापंथ संघ संवाद* 🌻
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙
📝 *श्रंखला -- 112* 📝
*आगम युग के आचार्य*
*क्रांतिकारी आचार्य कालक (द्वितीय)*
गतांक से आगे...
वृहत्कल्प भाष्य-चूर्णि में गर्दभ को अवंती राजा 'अनिल-सुतयव' का पुत्र बताया है। गर्दभ का मन अपनी ही बहन अडोलिया के रूप सौंदर्य पर मोहित हो गया था। इस कार्य में दीर्घपृष्ठ नामक मंत्री का पूर्ण सहयोग था। वह गर्दभ की इच्छा पूर्ण करने के लिए अडोलिया को सातवें भूमिगृह (अंतर-घर) में रखा करता था।
चूर्णि साहित्य में उल्लिखित गर्दभ तथा सरस्वती के अपहरणकर्ता गर्दभिल्ल दोनों एक ही प्रतीत होते हैं।
दशाश्रुत स्कंध चूर्णि के उल्लेखानुसार गर्दभिल्लोच्छेद की यह घटना वी. नि. 453 (वि. पू. 17) में एवं 'विचार श्रेणी' के अनुसार वी. नि. 466 (वि. पू. 4) में घटित हुई। इसी वर्ष मालव प्रदेश पर शकों का राज्य स्थापित हुआ। आचार्य कालक सिंधु प्रदेश में जिस शक सामंत के पास ठहरे थे, उसे अवंती के राज्य सिंहासन का अधिकारी बनाया। इस घटना के बाद शकों का दल शक वंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
भृगुकच्छ लाटदेश की राजधानी थी। वहां के शक्तिशाली शासक बलमित्र और भानुमित्र थे। वे आचार्य कालक के भानेज थे। आचार्य कालक को विजय बनाने में उनका पूरा सहयोग था।
अवंती पर चार वर्षों तक शकों ने शासन किया। भारत भूमि को विदेशी सत्ता से शासित देखकर भरौंच शासक बलमित्र एवं भानुमित्र का खून उबल गया। उन्होंने मालव पर आक्रमण किया एवं शक सामंतों को बुरी तरह से अभिभूत कर वहां का राज्याधिकार अपने हाथ में ले लिया। उज्जयिनी के प्रांगण में एक बार पुनः स्वतंत्रता का सूर्य उदय हुआ। बलमित्र ने वहां का शासन संभाला और लघु भ्राता भानुमित्र को युवराज बनाया।
निशीथ चूर्णि के अनुसार एक बार आचार्य कालक ने अवंती में चातुर्मास किया। अवंती पर उस समय बलमित्र तथा भानुमित्र का शासन था। बलमित्र एवं भानुमित्र की बहन का नाम भानुश्री था। भानुश्री के पुत्र का नाम बलभानु था। परम विरक्ति को प्राप्त बलभानु को आचार्य कालक ने दीक्षा प्रदान की। इससे बलमित्र और भानुमित्र प्रकुपित हुए उन्होंने अनुकूल परिषह उत्पन्न कर आचार्य कालक को पावसकाल में ही विहार करने के लिए विवश कर दिया। प्रभावक चरित्र के अनुसार आचार्य कालक का यह चातुर्मास भरौंच में हुआ। बलमित्र की बहन भानुश्री एवं भागिनेय बलभानु का उल्लेख भी प्रभावक चरित्र में है। इस ग्रंथ के अनुसार चातुर्मासिक स्थिति में आचार्य कालक के विहार का निमित्त राजपुरोहित था। भागिनेय बलमित्र व भानुमित्र की अगाध श्रद्धा आचार्य कालक के प्रति थी पर भरौंच का राजपुरोहित राजसम्मान प्राप्त आचार्य कालक से ईर्ष्या करने लगा।
*ईष्या भाव में जकड़े हुए राजपुरोहित ने कैसे आचार्य कालक के लिए कैसे परिषह उत्पन्न किए...?* जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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आचार्य श्री तुलसी की कृति आचार बोध, संस्कार बोध और व्यवहार बोध की बोधत्रयी
📕सम्बोध📕
📝श्रृंखला -- 112📝
*व्यवहार-बोध*
*जीने की कला*
लय— देव! तुम्हारे...
*41.*
कैसे चलें? खड़े हों कैसे?
कैसे बैठें या सोएं?
कैसे खाएं? कैसे बोलें?
पाप नहीं हम संजोएं।।
*42.*
यतनापूर्वक चलें खड़े हों,
यतना से बैठें सोएं।
यतना से भोजन संभाषण,
बीज पाप का क्यों बोएं।।
*43.*
सभी कलाएं है विकलाएं,
पण्डित सभी अपण्डित हैं।
(यदि) नहीं जानते कैसे जीना,
केवल महिमामण्डित हैं।।
*20. सभी कलाएं हैं विकलाएं...*
मनुष्य विकासशील प्राणी है। उसके पास सबसे अधिक विकसित मस्तिष्क होता है। मस्तिष्कीय विकास के अनुपात से वह विविध प्रकार की कलाएं सीखता है। किंतु जब तक जीने की कला नहीं सीखी जाती, अन्य सब कलाएं विकलाएं हैं और उनके आधार पर पंडित कहलाने वाले भी अपंडित हैं। वे पांडित्य की महिमा से मंडित भले ही हो जाएं, पर सही अर्थ में पंडित नहीं हो सकते। पंडित बनने के लिए जरूरी है जीवन कला का ज्ञान। जीवन कला का ही दूसरा नाम है धर्म की कला। इस विषय में हमारे प्राचीन आचार्यों का चिंतन बहुत स्पष्ट है—
*बावत्तरि कलाकुसला पंडियपुरिसा अपंडिया चेव।*
*सव्वकलाण पवरं धम्मकलं जे न जाणंति।।*
*जीने की कला* के बारे में आगे और जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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