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👉 राजरहाट, कोलकाता: चितांबा 'श्री संघ' - 'श्री चरणों' में..
👉 सुजानगढ़ - अभातेमम अध्यक्ष की संगठन यात्रा
👉 भिलवाड़ा - जैन विद्या परीक्षा
👉 हिसार - मंगल भावना समारोह
👉 रायपुर - मंगल भावना समारोह
👉 वापी- मंगल भावना समारोह
👉 भीलवाड़ा - मंगल भावना समारोह
👉 अहमदाबाद - जैन संस्कार विधि से शुभ विवाह
👉 पटना सिटी - जैन विधा परीक्षा वर्ष - 2017 आयोजित
प्रस्तुति: 🌻तेरापंथ *संघ संवाद*🌻
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👉 जयपुर - मंगल भावना समारोह
प्रस्तुति - तेरापंथ *संघ संवाद*
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👉 नोहर: मुनि श्री मदन कुमार जी ठाणा-2 का "मंगलभावना समारोह" आयोजित
👉 जाखल मंडी - मंगल भावना समारोह
👉 शाहीबाग, अहमदाबाद - जैन विद्या परीक्षा
👉 अमराईवाड़ी, ओढव - जैन विद्या परीक्षा
👉 ठाणे - मंगल भावना समारोह
👉 श्रीडूंगरगढ़ - अभातेमम अध्यक्ष की संगठन यात्रा
👉 राउरकेला - मंगल भावना समारोह आयोजित
👉 पुणे - भिक्षु धम्म जागरण का आयोजन
👉 कांटाबांजी (उड़ीसा) - मंगल भावना समारोह का कार्यक्रम आयोजित
👉 उत्तर दिल्ली - मंगल भावना समारोह
👉 सिलीगुड़ी - जैन विद्या परीक्षा 2017 का आयोजन
👉 हिरियूर: साध्वी श्री लब्धिश्री जी आदि ठाणा 3 का "मंगलभावना समारोह" आयोजित
👉 विशाखापट्टनम - तेयुप द्वारा रक्तदान शिविर का आयोजन
👉 कोचीन - जैन विद्या परीक्षा 2017 का आयोजन
प्रस्तुति: 🌻तेरापंथ *संघ संवाद*🌻
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙
📝 *श्रंखला -- 191* 📝
*अर्हन्नीति-उन्नायक आचार्य उमास्वाति*
*ग्रंथ रचना*
*व्याख्या ग्रंथ*
गतांक से आगे...
अकलंक की राजवार्तिक और विद्यानंद की श्लोकवार्तिक टीका इन दोनों का आधार सर्वार्थसिद्धि टीका है। राजवार्तिक (तत्त्वार्थ वार्तिक) गद्य में है और श्लोकवार्तिक पद्य में है। राजवार्तिक और श्लोकवार्तिक दोनों टीकाएं उच्च कोटि की हैं। राजवार्तिक में दार्शनिक बिंदुओं का विस्तार है, श्लोकवार्तिक में विस्तार व गहराई दोनों हैं।
दिगंबर परंपरा में सर्वार्थसिद्धि मान्य सूत्रपाठ को एवं श्वेतांबर परंपरा में भाष्य सूत्रपाठ को प्रामाणिक माना है। श्वेतांबराचार्यों ने तत्त्वार्थ पर व्याख्या लिखते समय भाष्य मान्य पाठ का अनुगमन किया है। दिगंबराचार्यों ने 'सर्वार्थसिद्धि' मान्य पाठ का अनुगमन किया है। तत्त्वार्थ भाष्य पर किसी दिगंबराचार्य ने टीका नहीं की है। श्वेतांबराचार्यों ने तत्त्वार्थ भाष्य पर टिकाएं रची हैं।
तत्त्वार्थभाष्य पर श्वेतांबराचार्यों ने टीकाएं रची हैं, उनमें सबसे बड़ी टीका सिद्धसेन की है। प्रस्तुत टीकाकार सिद्धसेन तत्त्वार्थभाष्य वृत्ति की प्रशस्ति में 'भास्वामी' के शिष्य बताए गए हैं। भास्वामी दिन्नगणी के प्रशिष्य और सिंहसूरि के शिष्य थे।
आचार्य हरिभद्र ने तत्त्वार्थभाष्य पर लघुवृत्ति की रचना की है। उनकी यह वृत्ति लगभग 5 अध्यायों पर है। शेष वृत्ती की रचना यशोभद्र और उनके शिष्य ने पूर्ण की। मलयगिरि ने तत्त्वार्थ भाष्य पर वृत्ति रचना की। ऐसा प्रज्ञापना वृत्ति में उल्लेख है। वर्तमान में वह उपलब्ध नहीं है।
जंबूद्वीप समास प्रकरण, पूजा प्रकरण, श्रावक-प्रज्ञप्ति, क्षेत्र विचार, प्रशमरति-प्रकरण आदि रचनाएं उमास्वाति की बताई जाती हैं।
विशुद्ध अध्यात्म भूमिका पर प्रतिष्ठित उनका प्रशमरति-प्रकरण समता को प्रभाहित करने वाला निर्झर है।
वृत्तिकार सिद्धसेन ने प्रशमरति को भाष्यकार की कृति के रूप में सूचित किया है। निशीथ चूर्णि में भी प्रशमरति-प्रकरण की 120वीं कारिका 'आचार्य आह' कहकर उद्धृत की गई है।
उमास्वाति 500 ग्रंथों के रचनाकार थे। इस प्रकार की प्रसिद्धि श्वेतांबर संप्रदाय में है।
*समय-संकेत*
दिगंबर विद्वान् आचार्य उमास्वाति को विक्रम की द्वितीय शताब्दी का विद्वान् मानते हैं। उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र पर स्वोपज्ञ भाष्य की रचना की। यह रचना भाष्य युग की सूचना है।
मल्लवादी के नयचक्र और उसकी टीका में तत्त्वार्थ सूत्र और भाष्य के उद्धरण हैं। मल्लवादी वीर निर्वाण 884 (विक्रम संवत 414) में विद्यमान थे, अतः उमास्वाति का समय इनसे पूर्व का है।
पंडित सुखलालजी ने तत्त्वार्थ प्रस्तावना में विविध शोध बिंदुओं के आधार पर वाचक उमास्वाति का प्राचीन से प्राचीन समय वीर निर्वाण की 5वीं (विक्रम की प्रथम) और अर्वाचीन से अर्वाचीन समय वीर निर्वाण की 8वीं-9वीं (विक्रम की तीसरी-चौथी) शताब्दी का प्रमाणित किया है।
*कीर्ति-निकुञ्ज आचार्य कुन्दकुन्द के प्रभावक चरित्र* के बारे में पढेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ *संघ संवाद*🌻
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त्याग, बलिदान, सेवा और समर्पण भाव के उत्तम उदाहरण तेरापंथ धर्मसंघ के श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।
📙 *'नींव के पत्थर'* 📙
📝 *श्रंखला -- 15* 📝
*दाऊजी तलेसरा*
*स्वामीजी के अनन्य भक्त*
दाऊजी तलेसरा नाथद्वारा के एक धनीमानी व्यक्ति थे। नगर में उनकी अच्छी प्रतिष्ठा थी। व्यापार में बहुत निपुण और सफल होने के कारण व्यापारी वर्ग पर भी उनका अच्छा प्रभाव था। स्वामी भीखणजी के संपर्क में आकर उन्होंने धर्म के शुद्ध तत्त्व को समझा और फिर तेरापंथी बन गए। स्वामीजी के प्रति उनके मन में अगाध श्रद्धा थी। वे उनके अनन्य भक्त थे। स्वामीजी तथा उनके साधु-साध्वियों के आगमन पर वे बहुत सेवा करते और अधिक-से-अधिक धार्मिक लाभ प्राप्त करने का प्रयास करते। सत् श्रद्धा प्राप्त करने में वे अनेक व्यक्तियों के लिए मार्गदर्शक बने। दाऊजी अनेक बार स्वामीजी से प्रार्थना करते रहते थे कि नाथद्वारा को यदि आप चातुर्मास का लाभ प्रदान करें तो अच्छा उपकार होने की संभावना है। स्वामीजी ने उनकी प्रार्थना पर ध्यान दिया और संवत् 1843 का चातुर्मास वहां किया। स्वामीजी का वहां यह प्रथम चातुर्मास था। स्थानीय श्रावक-श्राविका वर्ग को जहां धर्म ध्यान के लिए अपूर्व अवसर प्राप्त हुआ, वहां जन साधारण को भी धर्म के शुद्ध स्वरूप को समझने का बहुमूल्य अवसर मिला।
*गुसांईजी का आदेश*
दाऊजी आदि श्रावकों की प्रेरणा और स्वामीजी के परिश्रम ने मिलकर स्थानीय लोगों में धार्मिकता की एक नई लौ जला दी। व्याख्यान और धर्म चर्चा में अच्छी उपस्थिति होने लगी। कुछ लोगों को उसमें अपने अस्तित्व को खतरा दिखाई देने लगा। स्वामीजी के विरुद्ध अनेक प्रकार की भ्रांतियां फैलाने में वे लोग पहले भी कोई कमी नहीं रखते थे, फिर तो उसके लिए सबल प्रयत्न किए जाने लगे।
उस वर्ष नाथद्वारा में संयोगवश वर्षा बहुत कम हुई। विरोधियों ने उसका दोष स्वामीजी पर मढ़ा और प्रचारित किया कि यह लोग वर्षा को पसंद नहीं करते अतः उसे रोक देते हैं। जब नगर में वह बात अच्छी तरह से फैल गई तब वैष्णवों को आगे करके वे लोग गुसांईजी के पास पहुंचे। गुसांईजी श्रीनाथधाम के महंत थे। मंदिर की पूरी जागीर में उन्हीं का आदेश निर्देश चलता था। इसलिए उन लोगों ने उनसे निवेदन किया कि जब तक ये साधु नगर में रहेंगे तब तक वर्षा की कोई संभावना नहीं है। उन्होंने स्वामीजी के विरुद्ध विभिन्न बातें कहकर गुसांईजी को भ्रांत करने का प्रयास किया। शायद काफी समय तक विभिन्न माध्यमों से वे लोग वैसा करते रहे थे। आखिर में वे उन्हें प्रभावित करने में सफल हो गए। गुसांईजी ने उनकी बातों में आकर हरकारे के माध्यम से स्वामीजी के पास नगर परित्याग का आदेश भेज दिया। फलस्वरूप स्वामीजी उसी दिन वहां से विहार कर कोठारिया पधार गए।
*चाबियां संभालिए*
गुसांईजी के उस अपमानजनक व्यवहार से दाऊजी का हृदय तिलमिला उठा। उन्होंने तथा अन्य कई श्रावकों ने सपरिवार नगर परित्याग का निर्णय किया। गृह सामान से लदी बैलगाड़ियां उनके परिवारों को लेकर कोठारिया की ओर रवाना हो गई। दाऊजी अन्य श्रावकों के साथ गुसांईजी के पास पहुंचे। घरों और दुकानों की चाबियां उनके सम्मुख रखते हुए उन्होंने कहा— "हम नाथद्वारा छोड़कर अन्यत्र जा रहे हैं।" गुसांईजी ने चकित होते हुए उसका कारण पूछा तब तलेसराजी ने बतलाया कि आपने जब हमारे धर्माचार्य स्वामी भीखणजी को नगर से निकाल दिया तब हमारा यहां रहना संभव नहीं रह गया है। गुसांईजी ने कहा— "वे साधु तो वर्षा को रोकने वाले हैं। अतः प्रजा हित के लिए मैंने उन्हें निकाला था। उनके विषय में अन्य भी अनेक शिकायतें हैं। वे दया और दान के विरोधी बतलाए जाते हैं।" दाऊजी ने तब उनको स्वामीजी द्वारा आचार शैथिल्य के विरुद्ध की गई धर्म क्रांति और तत्त्व श्रद्धा के विषय में विस्तार से समझाते हुए कहा— "जो साधु चींटी को भी कष्ट नहीं पहुंचाते वे दया एवं दान के विरोधी कैसे हो सकते हैं और वर्षा को रोक कर लाखों प्राणियों को पीड़ित करने का कार्य कैसे कर सकते हैं?" प्रसंगवश तलेसराजी ने जैन मुनियों की चर्या से उन्हें अवगत किया तो गुसांईजी को नगर परित्याग के अपने आदेश पर बहुत अनुताप हुआ। उन्होंने उन लोगों को वहीं बसे रहने का आग्रह किया और अपने हरकारों को भेजकर बनास नदी के तट पर पहुंची हुई बैलगाड़ियों को सम्मान सहित वापस बुला लिया। एक हरकारे को कोठारिया भेजकर स्वामीजी को भी पुनः नाथद्वारा पधार जाने के लिए प्रार्थना करवाई। स्वामीजी ने कहा— "अब चातुर्मास काल में कौन बार-बार इधर-उधर फिरे।" वे वापस नहीं पधारे। चातुर्मास का शेष समय उन्होंने कोठारिया में ही व्यतीत किया।
*स्वामीजी के सुप्रसिद्ध भक्त शोभजी कोठारी का जीवन-वृत्त* पढ़ेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ *संघ संवाद*🌻
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