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#जिज्ञासा_समाधान --कर्म किसी को नहीं छोड़ता, इसका उदय किसी न किसी रुप में आता ही है। अगर कभी किसीने किसी का सर फोड़ा है, तो वह व्यक्ति स्वयं कभी उसका सर फोड़ ना फोड़ें, घर की चौखट से उसका सर जरूर फूटेगा। यह सब कर्मों की व्यवस्था है, चलती रहती है। -मुनि सुधासागर जी #MuniSudhasagar
गुरु की आराधना का एक ही उद्देश्य चाहिए, कि जैसे गुरु हैं, वैसे ही हमें बनना है। शिष्य को अनुचर कहा है। अपने गुरु की हर चर्या को जो अपने जीवन में जो उतार लेता है, उसे ही शिष्य कहते हैं।
गुरु के सान्निध्य की अपेक्षा, गुरु की आज्ञा को मानना शिष्य का प्रथम कर्तव्य है। गुरु की आज्ञा हमारी अपेक्षाओं की तुलना में हजार गुना बड़ी होती है। गुरु सानिध्य मिले, अथवा न मिले, परंतु गुरु आज्ञा हमेशा मिलती रहे। यही शिष्य का कर्त्तव्य है।*_
🥀 _बच्चों को अपनी उस माँ पर गर्व होना चाहिए, अपने पति की मृत्यु के बाद, अपनी सारी जिंदगी अपने छोटे-छोटे बच्चों को पालने में लगा दी। *ऐसी मां की, भगवती मानकर पूजा करना चाहिए। ऐसे बच्चे यदि मंदिर ना जाकर भी, यदि अपनी मां की पूजा करते हैं, तो श्रेष्ठ है।* वह मां धन्य हैं जिसने अपनी जवानी बच्चों के पालने में लगा दी।_
_*जो बच्चे अपनी मां की इस त्याग-तपस्या को नहीं समझ पाए, और अपनी मां को दुख देते हैं, उन्हें सम्मूर्छन योनि में जन्म लेना पड़ेगा, और यदि मनुष्य जन्म मिल भी गया, तो उन्हें मां नहीं मिलेगी, और संसार की झूठन पर ही पलना पड़ेगा।*_
🥀 _*मंदिर का कोई भी कर्मचारी, यदि नशाखोरी करता है, तो उसके लिए कमेटी बराबर की दोषी है। ऐसे व्यक्ति को कदापि मंदिर में नहीं रखना चाहिए।* किसी भी कर्मचारी को मंदिर में रखने से पहले उसके सब नशे पत्ते का त्याग करा कर ही रखना चाहिए। यदि ऐसा नहीं करते हो, तो पंचों को एक मंदिर को अशुद्ध करने का दोष लगेगा।_
🥀 _महिला डॉक्टर जो प्रसव आदि कराती है, वह कभी अपावन नहीं होती। उसकी टेबल पर किसी की मृत्यु होने पर उसे मात्र एक दिन का सूतक लगता है। *वह तो हज़ारों लोगों का जीवन बचा रही है। वह इतनी पावन पवित्र हैं, कि यदि अपने हाथ से शुद्ध सोला का भोजन बनाकर साधु को आहार-दान देती है, तो भी श्रेष्ठ है।
Source: © Facebook
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कर्म किसी को नहीं छोड़ता, इसका उदय किसी न किसी रुप में आता ही है। अगर कभी किसीने किसी का सर फोड़ा है, तो वह व्यक्ति स्वयं कभी उसका सर फोड़ ना फोड़ें, घर की चौखट से उसका सर जरूर फूटेगा। यह सब कर्मों की व्यवस्था है, चलती रहती है। - मुनि सुधासागर जी #MuniSudhasagar
गुरु की आराधना का एक ही उद्देश्य चाहिए, कि जैसे गुरु हैं, वैसे ही हमें बनना है। शिष्य को अनुचर कहा है। अपने गुरु की हर चर्या को जो अपने जीवन में जो उतार लेता है, उसे ही शिष्य कहते हैं। गुरु के सान्निध्य की अपेक्षा, गुरु की आज्ञा को मानना शिष्य का प्रथम कर्तव्य है। गुरु की आज्ञा हमारी अपेक्षाओं की तुलना में हजार गुना बड़ी होती है। गुरु सानिध्य मिले, अथवा न मिले, परंतु गुरु आज्ञा हमेशा मिलती रहे। यही शिष्य का कर्त्तव्य है। बच्चों को अपनी उस माँ पर गर्व होना चाहिए, अपने पति की मृत्यु के बाद, अपनी सारी जिंदगी अपने छोटे-छोटे बच्चों को पालने में लगा दी। *ऐसी मां की, भगवती मानकर पूजा करना चाहिए। ऐसे बच्चे यदि मंदिर ना जाकर भी, यदि अपनी मां की पूजा करते हैं, तो श्रेष्ठ है।* वह मां धन्य हैं जिसने अपनी जवानी बच्चों के पालने में लगा दी।
जो बच्चे अपनी मां की इस त्याग-तपस्या को नहीं समझ पाए, और अपनी मां को दुख देते हैं, उन्हें सम्मूर्छन योनि में जन्म लेना पड़ेगा, और यदि मनुष्य जन्म मिल भी गया, तो उन्हें मां नहीं मिलेगी, और संसार की झूठन पर ही पलना पड़ेगा। मंदिर का कोई भी कर्मचारी, यदि नशाखोरी करता है, तो उसके लिए कमेटी बराबर की दोषी है। ऐसे व्यक्ति को कदापि मंदिर में नहीं रखना चाहिए।* किसी भी कर्मचारी को मंदिर में रखने से पहले उसके सब नशे पत्ते का त्याग करा कर ही रखना चाहिए। यदि ऐसा नहीं करते हो, तो पंचों को एक मंदिर को अशुद्ध करने का दोष लगेगा। महिला डॉक्टर जो प्रसव आदि कराती है, वह कभी अपावन नहीं होती। उसकी टेबल पर किसी की मृत्यु होने पर उसे मात्र एक दिन का सूतक लगता है। *वह तो हज़ारों लोगों का जीवन बचा रही है। वह इतनी पावन पवित्र हैं, कि यदि अपने हाथ से शुद्ध सोला का भोजन बनाकर साधु को आहार-दान देती है, तो भी श्रेष्ठ है।
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