Update
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙
📝 *श्रंखला -- 225* 📝
*महाप्राज्ञ आचार्य मल्लवादी*
*संसारवार्द्धिविस्तारान्निस्तारयतु दुस्तरात्।*
*श्रीमल्लवादिसूरीर्वो यानपात्रप्रभः प्रभुः।।1।।*
मल्लवादी संसार सागर को पार करने के लिए यान थे। वे प्रज्ञा के धनी थे। तर्कशास्त्र के प्रकांड विद्वान् थे एवं वाद कुशल आचार्य थे। कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचंद्र ने सिद्धहेमशब्दानुशासन के 'उत्कृष्टेऽनूपेन' सूत्र की व्याख्या में 'अनुमल्लवादिनं तार्किकाः' कहकर आचार्य मल्लवादी को सर्वोत्कृष्ट तार्किक बतलाया है। अनेकांत जयपताका ग्रंथ में आचार्य हरिभद्र ने मल्लवादी को वादिमुख का संबोधन दिया है।
*गुरु-परंपरा*
आचार्य मल्लवादी की गुरु परंपरा के संबंध में विशेष उल्लेख प्राप्त नहीं है। प्रभावक चरित्र के अनुसार उनके गुरु का नाम जिनानन्दसूरि था। वे मल्लवादी के मामा थे। मल्लवादी के समय में जैन परंपरा के अंतर्गत विभिन्न गण और गच्छ विकासमान थे। उनमें मल्लवादी का संबंध नागेंद्र गच्छ से था। गुरु जिनानन्दसूरि के लिए किसी गण गच्छ का उल्लेख प्राप्त नहीं है, पर मल्लवादी को प्रभावक चरित्र मल्लवादी सूरि प्रबंध में नागेंद्र कुल के मस्तकमणि बताकर उनके प्रति आदर प्रकट किया है। प्रबंध कोश के अनुसार शिलादित्य की भगिनी दुर्लभदेवी ने अष्टवर्षीय पुत्र मल्ल के साथ सुस्थित आचार्य की सन्निधि में संयमी जीवन ग्रहण किया था।
*जन्म एवं परिवार*
प्रभावक चरित्र के उल्लेख अनुसार मल्लवादी का जन्म वल्लभी में हुआ। वल्लभी सौराष्ट्र की राजधानी थी। मल्लवादी की माता का नाम दुर्लभदेवी था। दुर्लभदेवी के तीन पुत्र थे। अजीतयश, यक्ष और मल्ल। इन तीनों में अजीतयश और यक्ष मल्ल के ज्येष्ठ भ्राता थे। प्रबंध कोश के अनुसार दुर्लभदेवी वल्लभी नरेश शिलादित्य की भगिनी थी। मल्लवादी शिलादित्य के भानजे एवं क्षेत्रीय पुत्र थे।
*आचार्य मल्लवादी के जीवन-वृत* के बारे में पढ़ेंगे तथा प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ *संघ संवाद*🌻
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त्याग, बलिदान, सेवा और समर्पण भाव के उत्तम उदाहरण तेरापंथ धर्मसंघ के श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।
📙 *'नींव के पत्थर'* 📙
📝 *श्रंखला -- 49* 📝
*केसरजी भण्डारी*
*सामयिक सेवा*
केसरजी शायद और भी अनेक वर्षों तक प्रच्छन्न रह जाते, परंतु संवत् 1875 में उनके लिए जनता के सामने आ जाना अनिवार्य हो गया। उस वर्ष शेषकाल में आचार्यश्री भारमलजी उदयपुर पधारे हुए थे। उनके पास काफी लोग जाने-आने लगे। विरोधियों ने उन्हें रोकने के अनेक प्रयास किए परंतु सफल नहीं हो सके। तब उन्होंने एक षड्यंत्र रचा और आचार्यश्री को वहां से निकलवा देने की चेष्टा करने लगे। उनमें से जो लोग प्रभावशाली थे वे महाराणा भीमसिंहजी को योजनापूर्वक भ्रांत करने में लग गए। अनेक व्यक्तियों ने अनेक प्रकार से दोहरा-दोहरा कर महाराणा को बतलाया कि तेरापंथी साधु जहां रहते हैं वहां दुष्काल पड़ जाता है। ये वर्षा को पसंद नहीं करते अतः उसे रोक देते हैं। दया और दान के भी ये लोग घोर विरोधी हैं। उदयपुर जैसे धर्म परायण नगर में ऐसे व्यक्तियों का रहना बिल्कुल ही अशोभनीय है।
महाराणा उनकी छद्मनीति के शिकार हो गए। लगता है न उन्होंने राजनैतिक पटुता से काम लिया और न व्यवहारिक पटुता से ही। वस्तुस्थिति की जानकारी प्राप्त किए बिना ही जैसे उन लोगों ने सुझाया वे वैसा ही करने को उद्यत हो गए। उन्होंने संतो को नगर से चले जाने का आदेश दे दिया। राजाज्ञा से बाध्य होकर आचार्यश्री वहां से विहार कर राजनगर की ओर पधार गए। इस सफलता से विरोधियों की बांछे खिल गईं। तेरापंथी श्रावकों में चिंता छा गई। उक्त समस्या पर विचार करने के लिए वे राजनगर में एकत्रित हुए। उन्होंने सामूहिक निर्णय किया कि यदि हम सबको भी उनके साथ मेवाड़ छोड़ देने का आदेश आ जाए तो हम सबको भी उनके साथ ही मेवाड़ छोड़ देना चाहिए। श्रावकों का यह निर्णय अत्यंत साहसपूर्ण था। जो समाज संकट के समय बलिदान देने की तैयारी रखता है, वही जीवित रह सकता है। तेरापंथ उस समय बलिदानियों का ही एक संगठन था।
उन्हीं दिनों उदयपुर में प्रकृति का प्रकोप हो गया। नगर में "मरी" फैल गई। उससे सैंकड़ों नागरिक काल कलवित हो गए। महाराणा के जामाता कोटा में अचानक रुग्ण हुए और दिवंगत हो गए। महाराणा उस आघात से संभल भी नहीं पाए थे कि राजकुमार जवानसिंहजी रुग्ण रहने लगे। महाराणा की उस मानसिक उद्विग्नता की स्थिति में भी तेरापंथी विरोधी लोग आचार्यश्री भारमलजी को मेवाड़ से निकलवा देने की योजना को आगे बढ़ाने में लगे हुए थे। केसरजी भंडारी के लिए वह स्थिति असह्य हो उठी। उदयपुर से निकलवाया गया था तब तक तो अपनी प्रच्छन्नता को बनाए रखने के लिए उन्होंने अपने मन को मारकर चुप्पी साध ली थी। परंतु मेवाड़ से निकलवा देने की योजना का पता लगने के बाद तो वे अपनी प्रच्छन्नता को मन ही मन धिक्कारने लगे। उन्हें लगा कि अब गुप्त रहने में कोई लाभ नहीं है। संघ की सेवा के लिए उन्हें कठिनाइयों से लोहा लेना ही चाहिए। उन्होंने महाराणा से मिलकर वस्तुस्थिति को स्पष्ट करने का निर्णय किया।
*केसरजी भंडारी की महाराणा से मुलाकात का क्या परिणाम हुआ...?* जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ *संघ संवाद*🌻
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙
📝 *श्रंखला -- 225* 📝
*महाप्राज्ञ आचार्य मल्लवादी*
*संसारवार्द्धिविस्तारान्निस्तारयतु दुस्तरात्।*
*श्रीमल्लवादिसूरीर्वो यानपात्रप्रभः प्रभुः।।1।।*
मल्लवादी संसार सागर को पार करने के लिए यान थे। वे प्रज्ञा के धनी थे। तर्कशास्त्र के प्रकांड विद्वान् थे एवं वाद कुशल आचार्य थे। कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचंद्र ने सिद्धहेमशब्दानुशासन के 'उत्कृष्टेऽनूपेन' सूत्र की व्याख्या में 'अनुमल्लवादिनं तार्किकाः' कहकर आचार्य मल्लवादी को सर्वोत्कृष्ट तार्किक बतलाया है। अनेकांत जयपताका ग्रंथ में आचार्य हरिभद्र ने मल्लवादी को वादिमुख का संबोधन दिया है।
*गुरु-परंपरा*
आचार्य मल्लवादी की गुरु परंपरा के संबंध में विशेष उल्लेख प्राप्त नहीं है। प्रभावक चरित्र के अनुसार उनके गुरु का नाम जिनानन्दसूरि था। वे मल्लवादी के मामा थे। मल्लवादी के समय में जैन परंपरा के अंतर्गत विभिन्न गण और गच्छ विकासमान थे। उनमें मल्लवादी का संबंध नागेंद्र गच्छ से था। गुरु जिनानन्दसूरि के लिए किसी गण गच्छ का उल्लेख प्राप्त नहीं है, पर मल्लवादी को प्रभावक चरित्र मल्लवादी सूरि प्रबंध में नागेंद्र कुल के मस्तकमणि बताकर उनके प्रति आदर प्रकट किया है। प्रबंध कोश के अनुसार शिलादित्य की भगिनी दुर्लभदेवी ने अष्टवर्षीय पुत्र मल्ल के साथ सुस्थित आचार्य की सन्निधि में संयमी जीवन ग्रहण किया था।
*जन्म एवं परिवार*
प्रभावक चरित्र के उल्लेख अनुसार मल्लवादी का जन्म वल्लभी में हुआ। वल्लभी सौराष्ट्र की राजधानी थी। मल्लवादी की माता का नाम दुर्लभदेवी था। दुर्लभदेवी के तीन पुत्र थे। अजीतयश, यक्ष और मल्ल। इन तीनों में अजीतयश और यक्ष मल्ल के ज्येष्ठ भ्राता थे। प्रबंध कोश के अनुसार दुर्लभदेवी वल्लभी नरेश शिलादित्य की भगिनी थी। मल्लवादी शिलादित्य के भानजे एवं क्षेत्रीय पुत्र थे।
*आचार्य मल्लवादी के जीवन-वृत* के बारे में पढ़ेंगे तथा प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ *संघ संवाद*🌻
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त्याग, बलिदान, सेवा और समर्पण भाव के उत्तम उदाहरण तेरापंथ धर्मसंघ के श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।
📙 *'नींव के पत्थर'* 📙
📝 *श्रंखला -- 49* 📝
*केसरजी भण्डारी*
*सामयिक सेवा*
केसरजी शायद और भी अनेक वर्षों तक प्रच्छन्न रह जाते, परंतु संवत् 1875 में उनके लिए जनता के सामने आ जाना अनिवार्य हो गया। उस वर्ष शेषकाल में आचार्यश्री भारमलजी उदयपुर पधारे हुए थे। उनके पास काफी लोग जाने-आने लगे। विरोधियों ने उन्हें रोकने के अनेक प्रयास किए परंतु सफल नहीं हो सके। तब उन्होंने एक षड्यंत्र रचा और आचार्यश्री को वहां से निकलवा देने की चेष्टा करने लगे। उनमें से जो लोग प्रभावशाली थे वे महाराणा भीमसिंहजी को योजनापूर्वक भ्रांत करने में लग गए। अनेक व्यक्तियों ने अनेक प्रकार से दोहरा-दोहरा कर महाराणा को बतलाया कि तेरापंथी साधु जहां रहते हैं वहां दुष्काल पड़ जाता है। ये वर्षा को पसंद नहीं करते अतः उसे रोक देते हैं। दया और दान के भी ये लोग घोर विरोधी हैं। उदयपुर जैसे धर्म परायण नगर में ऐसे व्यक्तियों का रहना बिल्कुल ही अशोभनीय है।
महाराणा उनकी छद्मनीति के शिकार हो गए। लगता है न उन्होंने राजनैतिक पटुता से काम लिया और न व्यवहारिक पटुता से ही। वस्तुस्थिति की जानकारी प्राप्त किए बिना ही जैसे उन लोगों ने सुझाया वे वैसा ही करने को उद्यत हो गए। उन्होंने संतो को नगर से चले जाने का आदेश दे दिया। राजाज्ञा से बाध्य होकर आचार्यश्री वहां से विहार कर राजनगर की ओर पधार गए। इस सफलता से विरोधियों की बांछे खिल गईं। तेरापंथी श्रावकों में चिंता छा गई। उक्त समस्या पर विचार करने के लिए वे राजनगर में एकत्रित हुए। उन्होंने सामूहिक निर्णय किया कि यदि हम सबको भी उनके साथ मेवाड़ छोड़ देने का आदेश आ जाए तो हम सबको भी उनके साथ ही मेवाड़ छोड़ देना चाहिए। श्रावकों का यह निर्णय अत्यंत साहसपूर्ण था। जो समाज संकट के समय बलिदान देने की तैयारी रखता है, वही जीवित रह सकता है। तेरापंथ उस समय बलिदानियों का ही एक संगठन था।
उन्हीं दिनों उदयपुर में प्रकृति का प्रकोप हो गया। नगर में "मरी" फैल गई। उससे सैंकड़ों नागरिक काल कलवित हो गए। महाराणा के जामाता कोटा में अचानक रुग्ण हुए और दिवंगत हो गए। महाराणा उस आघात से संभल भी नहीं पाए थे कि राजकुमार जवानसिंहजी रुग्ण रहने लगे। महाराणा की उस मानसिक उद्विग्नता की स्थिति में भी तेरापंथी विरोधी लोग आचार्यश्री भारमलजी को मेवाड़ से निकलवा देने की योजना को आगे बढ़ाने में लगे हुए थे। केसरजी भंडारी के लिए वह स्थिति असह्य हो उठी। उदयपुर से निकलवाया गया था तब तक तो अपनी प्रच्छन्नता को बनाए रखने के लिए उन्होंने अपने मन को मारकर चुप्पी साध ली थी। परंतु मेवाड़ से निकलवा देने की योजना का पता लगने के बाद तो वे अपनी प्रच्छन्नता को मन ही मन धिक्कारने लगे। उन्हें लगा कि अब गुप्त रहने में कोई लाभ नहीं है। संघ की सेवा के लिए उन्हें कठिनाइयों से लोहा लेना ही चाहिए। उन्होंने महाराणा से मिलकर वस्तुस्थिति को स्पष्ट करने का निर्णय किया।
*केसरजी भंडारी की महाराणा से मुलाकात का क्या परिणाम हुआ...?* जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ *संघ संवाद*🌻
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