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दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज द्वारा रचित महाकाव्य जो की भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित है मूकमाटी से अंश...
आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के दर्शन करने आये उस समय 2003 में प्रधान मंत्री अटल विहारी वाजपई - इस लिख को जरुर जरुर पढ़े और शेयर करे ✿⊰
सामान्यतः जो है, उसका अभाव नहीं हो सकता, और जो है ही नहीं, उसका उत्पाद भी सम्भव नहीं। इस तथ्य का स्वागत केवल दर्शन ने ही नहीं, नूतन भौतिक युग ने भी किया है।
यद्यपि प्रति वस्तु की स्वभावभूत-सृजनशीलता एवं परिणमनशीलता से वस्तु का त्रिकाल-जीवन सिद्ध होता है, तथापि इस अपार संसार का सृजक-स्रष्टा कोई असाधारण बलशाली पुरूष है, और वह ईश्वर को छोड़कर कौन हो सकता है? इस मान्यता का समर्थन प्रायः सभी दर्शनकार करते हैं। वे कार्य-कारण व्यवस्था से अपरिचित हैं।
किसी भी ‘कार्य का कर्ता कौन है और कारण कौन?’ इस विषय का जब तक भेद नहीं खुलता, तब तक ही यह संसारी जीव मोही, अपने से भिन्नभूत अनुकूल पदार्थों के सम्पादन-संरक्षण में और प्रतिकूलताओं के परिहार में दिनरात तत्पर रहता है।
हाँ, तो चेतन-सम्बन्धी कार्य हो या अचेतन सम्बन्धी, बिना किसी कारण, उसकी उत्पत्ति सम्भव नहीं। और यह भी एक अकाट्य नियम है कि कार्य कारण के अनुरूप ही हुआ करता है। जैसे बीज बोते हैं वैसे ही फल पाते है, विपरीत नहीं।
वैसे मुख्यरूप से कारण के दो रूप हैं—एक उपादान और एक निमित्त—(उपादान को अन्तरंग कारण और निमित्त को बाह्य-कारण कह सकते हैं।) उपादान कारण वह है, जो कार्य के रूप में ढलता है; और उसके ढलने में जो सहयोगी होता है वह है निमित्त। जैसे माटी का लोंदा कुम्भकार के सहयोग से कुम्भ के रूप में बदलता है।
उपरिल उदाहरण सूक्ष्म रूप से देखने पर इसमें केवल उपादान ही नहीं, अपितु निमित्त की भी अपनी मौलिकताएँ समने आती हैं। यहाँ पर निमित्त-कारण के रूप में कार्यरत कुम्भकार के शिवा और भी कई निमित्त हैं—आलोक, चक्र, चक्र-भ्रमण हेतु समुचित दण्ड, डोर और धरती में गड़ी निष्कम्प-कील आदि-आदि।
इन निमित्त कारणों में कुछ उदासीन हैं, कुछ प्रेरक। ऐसी स्थिति में निमित्त कारणों के प्रति अनास्था रखनेवालों से यह लेखनी यही पूछती है कि:
-क्या आलोक के अभाव में कुशल कुम्भकार भी कुम्भ का निर्माण कर सकता है?
-क्या चक्र के बिना माटी का लोंदा कुम्भ के रूप में ढल सकता है?
-क्या बिना दण्ड के चक्र का भ्रमण सम्भव है?
-क्या कील का आधार लिये बिना चक्र का भ्रमण सम्भव है?
क्या सबके आधारभूत धरती के अभाव में वह सब कुछ घट सकता है?
-क्या कील और आलोक के समान कुम्भकार भी उदासीन है?
-क्या कुम्भकार के करों में कुम्भकार आये बिना स्पर्श-मात्र से माटी की लोंदा कुम्भ का रूप धारण कर सकता है?
-कुम्भकार का उपयोग, कुम्भकार हुए बिना, कुम्भकार के करों में कुम्भकार आ सकता है?
-क्या बिना इच्छा भी कुम्भकार अपने उपयोग को कुम्भकार दे सकता है?
-क्या कुम्भ बनाने की इच्छा निरुद्देश्य होती है?
इन सब प्रश्नों का समाधान ‘नहीं’ इस शब्द के सिवा और कौन देता है?
निमित्त की इस अनिवार्यता को देखकर ईश्वर को सृष्टि का कर्ता मानना भी वस्तु-तत्त्व की स्वतन्त्र योग्यता को नकारना है और ईश्वर-पद की पूज्यता पर प्रश्न-चिह्न लगाना है।
तत्त्वखोजी, तत्त्वभोजी वर्ग में ही नहीं, ईश्वर के सही उपासकों में भी यह शंका जन्म ले सकती है कि सृष्टि-रचना से पूर्व ईश्वर का आवास कहाँ था? वह शरीरातीत था या सशरीरी? अशरीरी होकर असीम सृष्टि की रचना करना तो दूर, सांसारिक छोटी-छोटी क्रिया भी नहीं की जा सकतीं। हाँ, ईश्वर मुक्तावस्था को छोड़ कर पुनः शरीर को धारण कर जागतिक-कार्य कर लेता है, ऐसा कहना भी उचित नहीं, क्योंकि शरीर की प्राप्ति कर्मों पर, कर्मों का बन्धन शुभाशुभ विभाव-भावों पर आधारित है और ईश्वर इन सबसे ऊपर उठा हुआ होता है यह सर्व-सम्मत है।
विषय-कषायों को त्याग कर जितेन्द्रिय, जितकषाय और विजितमना हो जिसने पूरी आस्था के साथ आत्म-साधना की है और अपने में छुपी हुई ईश्वरीय शक्ति का उद्घाटन कर अविनश्वर सुख को प्राप्त किया है, वह ईश्वर अब संसार में अवतरित नहीं हो सकता है। दुग्ध में से घृत को निकालने के बाद घृत कभी दुग्ध के रूप में लौट सकता है क्या?
ईश्वर को सशरीरी मानने रूप दूसरा विकल्प भी उपयुक्त नहीं है, क्योंकि शरीर अपने आप में वह बन्धन है जो सब बन्धनों का मूल है। शरीर है तो संसार है, संसार में दुःख के सिवा और क्या है? अतः ईश्वरत्व किसी भी दुःखरूप बन्धन को स्वीकार-सहन नहीं कर सकता है। वैसे ईश्वरत्व की उपलब्धि संसारदशा में सम्भव नहीं। हाँ, संसारी ईश्वर बन सकता है, साधना के बल पर, सांसारिक बन्धनों को तोड़ कर।
यह भी नहीं कहा जा सकता है कि विद्याओं, विक्रियाओं के बल पर, विद्याधरों और देवों के द्वारा भी मनोहर नगरादिकों दिशा की जब रचना की जाती है, तब सशरीरी ईश्वर के द्वारा सृष्टि की रचना में क्या बाधा है? क्योंकि देवादिकों में से निर्मित नगरादिक तात्कालिक होते हैं, न कि त्रैकालिक। यह भी सीमित होते हैं न कि विश्वव्यापक। और यहाँ परोपकार का प्रयोजन नहीं अपितु विषय-सुख के प्यासे मन की तुष्टि है। सही बात तो यह है कि विद्या-विक्रियाएँ भी पूर्व-कृत पुण्योदय के अनुरूप ही फलती हैं, अन्यथा नहीं।
जैनदर्शक सम्मत सकल परमात्मा भी, जो कर्म-पर्वतों के भेत्ता, विश्व-तत्त्वों के ज्ञाता और मोक्ष-मार्ग के नेता के रूप में स्वीकृत हैं, सशरीरी हैं। वह जैसे धर्मोपदेश देकर संसारी जीवों का उपकार करते हैं वैसे ही ईश्वर सृष्टि-रचना करके हमको सबको उपकृत करते हैं, ऐसा कहना भी युक्ति-युक्त नहीं है। क्योंकि प्रथम तो जैन-दर्शन ने सकल परमात्मा को भगवान् के रूप में औपचारिक स्वीकार किया है। यथार्थ में उन्हें स्नातक-मुनि की संज्ञा दी है और ऐसे ही वीतराग, यथाजात-मुनि निःस्वार्थ धर्मोपदेश देते हैं।
जिन-शासन के धर्मोपदेश को आधार बनाकर अपने मत की पुष्टि के लिए ईश्वर को विश्व-कर्मा के रूप में स्वीकारना ही ईश्वर को पक्षपात की मूर्ति, रागी-द्वेषी सिद्ध करना है। क्योंकि उनके कार्य कार्य-भूत संसारी जीव, कुछ निर्धन, कुछ धनी, कुछ निर्गुण, कुछ गुणी, कुछ दीन-हीन-दयनीय-पदाधीन, कुछ स्वतन्त्र-स्वाधीन-समृद्ध, कुछ नर, कुछ वानर-पशु-पक्षी, कुछ छली-कपटी-धूर्त हृदयशून्य, कुछ सुकृति पुण्यआत्मा, कुछ सुरूप-सुन्दर, कुछ कुरूप-विद्रूप आदि-आदि क्यों हैं? इन सबको समान क्यों न बनाते वह ईश्वर? अथवा अपने समान भगवान् बनाते सबको? दीनदयाल दया-निधान का व्यक्तित्व ऐसा नहीं हो सकता। इस महान् दोष से ईश्वर को बचाने हेतु, यदि कहो, कि अपने-अपने किये हुए पुण्यापुण्य के अनुसार ही, संसारी जीवों को सुख-दुःख भोगने के लिए स्वर्ग-नरकादिकों में ईश्वर भेजता है, यह कहना भी अनुचित है क्योंकि जब इन जीवों की सारी विविधताएँ-विषमताएँ शुभाशुभ कर्मों की फलश्रुति हैं, फिर ईश्वर से क्या प्रयोजन रहा? पुलिस के कारण नहीं; चोर चोरी के कारण जेल में पवेश पाता है, देवों के कारण नहीं, शील के कारण सीता का यश फैला है।
इस सन्दर्भ में एक बात और कहनी है कि ‘‘कुछ दर्शन, जैन-दर्शन को नास्तिक मानते हैं और प्रचार करते हैं कि जो ईश्वर को नहीं मानते हैं, वे नास्तिक होते हैं। यह मान्यता उनकी दर्शन-विषयक अल्पज्ञता को ही सूचित करती है।’’
ज्ञात रहे, कि भ्रमण-संस्कृति के सम्पोषक जैन-दर्शन ने बड़ी आस्था के साथ ईश्वर को परम श्रद्धेय-पूज्य के रूप में स्वीकारा है, सृष्टि-कर्ता के रूप में नहीं। इसीलिए जैन-दर्शन, नास्तिक दर्शनों को सही दिशाबोध देनेवाला एक आदर्श आस्तिक दर्शन है। यथार्थ में ईश्वर को सृष्टि-कर्ता के रूप में स्वीकारना ही, उसे नकारना है, और यही नास्तिकता है, मिथ्या है। इस प्रासंगिक विषय की संपुष्टि महाभारत की हृदयस्थानीय ‘गीता’ के पंचम अध्याय की चौदहवीं और पन्द्रहवीं कारिकाओं से होती है—
‘‘न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।
नाऽऽदत्ते कस्यचित् पापं न चेव सुकृतं विभुः।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।’’
प्रभु परमात्मा लोक के कर्तापन को (स्वयं लोक के कर्ता नहीं बनते), कर्मों-कार्यों को और कर्मफलों की संयोजना को नहीं रचते हैं; परन्तु लोक का स्वभाव ही ऐसा प्रवर्त रहा है। वे विभु किसी के पाप एवं पुण्य को भी ग्रहण नहीं करते। अज्ञान से आच्छादित ज्ञान के ही कारण लोक के जीव-जन्तु मोहित हो रहे हैं। यही भाव तेजोबिन्दु उपनिषद् की निम्न कारिका से भली-भाँति स्पष्ट होता है:
‘‘रक्षको विष्णुरित्यादि ब्रह्मा सृष्टेस्तु कारणम्’’1
‘‘संहारे रुद्र इत्येवं सर्वं मिथ्येति निश्चिनु।’’2
ब्रह्मा को सृष्टि का कर्ता, विष्णु को सृष्टि का संरक्षक और महेश को सृष्टि का विनाशक मानना मिथ्या है, इस मान्यता को छोड़ना ही आस्तिकता है। अस्तु।
दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज द्वारा रचित महाकाव्य जो की भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित है मूकमाटी से अंश
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।। #आचार्यश्री जी का मंगल विहार अपडेट।। पूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ का मंगल विहार चल रहा, #जबलपुर की ओर।
◆ आज रात्रि विश्राम- पिपरिया-उमरिया गांव
◆ कल की आहार चर्या- रांझी (जबलपुर)
◆ यदि विहार हुआ तो *कल का संभावित रात्रि विश्राम- शिवनगर जबलपुर।
साभार- ब्र श्री सुनील भैया जी, #इंदौर
■आगामी संभावित दिशा-
कही ये दिशा #टीकमगढ़ की ओर तो नही?
गुरुवर के मन की बात तो केवल गुरुवर ही जानें।
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आचार्यश्री विद्द्यासागर जी महाराज जी का सबको आशीर्वाद ग्वारीघाट जैन मन्दिर,जबलपुर से डोंगरगढ़ जाते समय(फोटो पसंद आये तो शेयर करें)फोटो- प्रदीप जैन(काज्जू) ग्वारीघाट,जबलपुर.म.प्र.
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अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी में भगवान महावीर जन्मकल्याणक के पावन अवसर पर श्री जी को पालकी से शोभा यात्रा में रथ पर विराजमान करने हेतु ले जाते हुए....