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#गुरुणाम्गुरु_ज्ञानसागर_मुनिराज एक अनमोल हीरे विद्यासागर को तराशने वाले महान शिल्पी आत्मशिल्पी आचार्य ज्ञानसागर महाराज का जीवन परिचय
आचार्यश्री ज्ञानसागर जी परिचय एक ऐसे साधक का जिसने स्वावलंबन का अवलंबन ले स्वयं के अवलोकन की यात्रा प्रारंभ की, जो तमाम विपत्तियो को सहते हुए उनके सामने झुका नहीं अपितु उन्हे भी अपनी संपत्ति बना लिया, एक ऐसा विरला साधक जिसकी बराबरी भविष्य में शायद ही कोई कर पाए आइए जानते है आत्मशिल्पी गुरु के गुरु का जीवन परिचय जिसने अपने गुरुत्वाकर्षण से सुदूर दक्षिण से चलकर आए एक सामान्य बालक विद्याधर को आचार्य विद्यासागर बना दिया वही इतिहास पुनः दोहराते है जो 2300 वर्ष पहले चाणक्य और चन्द्रगुप्त ने रचा था।
*प्रथम कड़ी*
राजपूताना के शेखावाटी की धरती जिसने देश व दुनिया को अनेक व्यापारी दिए उसी धरती का छोटा सा गाँव राणोली। हाँ इसी राणोली में 24 अगस्त 1897 में चतुर्भुजदास छाबड़ा व घृतावरी बाई के आँगन में द्वितीय व अद्वितीय संतान गौरवर्णीय बालक का जन्म हुआ, इसी गौरवर्ण को देखते हुए नाम रखा "भूरामल" भूरामल ठेठ राजस्थानी नाम था। महज ११ वर्ष की उम्र में सिर से पिता का साया उठ गया, यही से भूरामल के स्वावलंबन की यात्रा प्रारंभ हुई। बड़े भाई छगनलाल (१२ वर्ष) के साथ आजीविका की खोज में राजस्थान से मीलो चलकर बिहार के गया में पहुचे यहाँ दोनो एक जैन सेठ के प्रतिष्ठान में व्यवसाय करने लगे। 3 वर्ष तक नौकरी की पर मन विद्या अध्ययन के लिए छटपटा रहा था, बड़े भाई ने मनःस्थिति भाँपकर काशी पढने के लिए भेजा। भूरामल को मात्र उत्तीर्ण होने के लिए अध्ययन नहीं करना था अपितु ऐसा ज्ञान अर्जित करना था जो जीवन के अंत-अंत तक स्मृति में बना रहे, विद्या के प्रति बढते लगाव ने अल्प समय में शास्त्री-परीक्षा के सारे ग्रन्थ भूरामल को रटा दिए।
जैन ग्रन्थो के अध्ययन का अभाव- उस समय जैन ग्रन्थो से अध्ययन की परिपाटी नहीं थी, जैन विद्यालयो में भी ब्राह्मणो द्वारा लिखित ग्रन्थ ही पढाए जाते थे, भूरामल व कुछ साथियो ने मिलकर काशी विश्वविद्यालय व कलकत्ता परीक्षालय के संस्कृत पाठ्यक्रम में जैन ग्रन्थो का समावेश कराया।
जब भूरामल का स्याद्वाद महाविद्यालय में अध्ययन चल रहा था तब वहाँ के ब्राह्मण विद्वानो ने जैन ग्रन्थो का अध्ययन कराने में आनाकानी प्रकट की, भूरामल ने स्वाध्याय के बल पर व अध्यापक प. उमरावसिंह जैन के प्रोत्साहन पर जैन ग्रन्थो का गहन अध्ययन कर क्वींस काॅलेज से शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण की।
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2300 वर्ष पहले दिगम्बर (श्रमण) जैन आचार्य #भद्रबाहु से मुनि दीक्षा ग्रहण कर मगध सम्राट #चंद्रगुप्तमौर्य
जैन मुनि परंपरा - "नग्न अवस्था धारण करना, 24 घंटे में एक बार (खड़े होकर हाथों की अंजुली में नवधा विधिपूर्वक) नित्य प्रातः आहार जल ग्रहण करना, पैदल चलना, शैया, गृह आदि लौकिक पदार्थों का त्याग आदि"
का पालन करते हुए मगध से दक्षिण भारत, पूर्णतः नग्न और पैदल, आचार्य भद्रबाहु के साथ ससंघ चल कर पहुंचे।
कर्नाटक के #श्रवणबेलगोला की एक पहाड़ी में स्थित गुफा के फर्श में भद्रबाहु जी के चरण चिन्ह भी उत्कीर्ण हैं। यहीं चंद्रगुप्त ने मुनि अवस्था से संलेखना पूर्वक देह त्याग किया। आज इस पहाड़ी को आदरपूर्वक #चंद्रगिरि पर्वत कहा जाता है।
चंद्रगुप्त के राजपाट तज कर मुनि बनने और दक्षिण यात्रा तथा संलेखना पूर्वक देहत्याग की जीवंत व प्रामाणिक विवरण घटनाओं के मूर्तिचित्रों वाले 02 आयाग पट्टों में बड़े अनूठे व रोचक ढंग से उकेरा गया है।
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विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद के साथ भारत को गौरवान्वित करने वाले वीरचंद गाँधी
११ सितंबर १८९३ से शिकागो—अमेरिका में विश्वधर्म सम्मेलन प्रारंभ हुआ जो १७ दिन चला। सर्व धर्म परिषद शिकागो में विश्वविख्यात जैनाचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरि प्रसिद्ध नाम आत्मारामजी को जैन धर्म के प्रतिनिधि के रूप में आमंत्रित किया और उन्हें अपनी में मानद सदस्य का स्थान दिया । साधु जीवन की मर्यादा के अनुसार श्री आत्मारामजी म.सा. का जाना संभव नहीं था तो परिषद् के अत्यधिक आग्रह पर आचार्य विजयानन्दसूरिजी (आत्मारामजी महाराज) ने 6 महीने का प्रशिक्षण देकर वीरचन्द गाँधी को को इस धर्म संसद में अपना प्रतिनिधि बनाकर अपनी रचना - ‘ शिकागो प्रश्नोत्तर’ के साथ सम्मेलन में भाग लेने भेजा था।
वीरचंद गाँधी अपने साथ एक रसोईया भी लेकर गए थे क्योंकि विदेश में शाकाहार भोजन मिलना मुश्किल था l पगड़ी बांधे जोधपुरी स्टाइल का सूट पहने वीरचंद गाँधी जब अमेरिका पहुंचे तब वे मात्र 29 वर्ष के थेl वीरचन्द गाँधी ने जैन दर्शन और अन्य भारतीय दर्शनों का अध्ययन किया।
विश्व धर्म संसद में श्री वीरचंद जी गाँधी ने जैन धर्म के सिद्धांतो को प्रभावशाली ढंग से विश्व के सामने रखा। वीरचंद गाँधी ने पहले ही दिन पूज्य गुरूदेव का उल्लेख करते हुए जो विद्वत्तापूर्ण प्रवचन दिया उससे उपस्थित विद्वानों में उसकी धूम मच गयी। वहाँ के सभी समाचार पत्रों में आपके फोटों व प्रवचनों की चर्चा होने लगी। उनकी सभाओं में उस समय दस हजार की उपस्थिति होती थी। वीरचंद गाँधी के पहले विदेशी लोग जैन धर्म को बौध्द धर्म की शाखा समझते थे l जैन दर्शन पर उनके शोधपूर्ण रोचक व सारगर्भित व्याख्यानों के बाद अमरीकी और विदेशी लोग जैन धर्म व जैन ध्रर्म के सिद्धांतो की और आकर्षित हुए व वीरचंद गाँधी को कुछ साल अमेरिका में रहने का निवेदन किया। वीरचंद गाँधी ने अमेरिका व यूरोप में कुल 535 व्याख्यान दिए व कई मेडल जीते l वीरचंद गाँधी और स्वामी विवेकानंद अच्छे मित्र थेl
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http://hindimedia.in/veerchand-gandhi-who-honored-india-with-swami-vivekananda-in-the-world-parliament-of-religions/
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इन गरमीकी सीजनमें हम घरमें बैठके ऐ.सी और पंखेके नीचे आरामसे सांसारिक सुख समजके आराम कर रहे है ठीक आज उस ही समयमें 68 वर्षकी बुजुर्ग माता समान दादी इतनी ज्यादा धुप होके आत्मिक सुख समजके गिरनार महातीर्थ की 11 यात्रा कर रही है धन्य है इस दादीको जो इतनी धुपमें भी सब कुछ जींदगीका माहौल छोडके ऐक आनंदमयी जींदगी जीने (९९ यात्रा) करने गिरनार महातीर्थ पहोंच गये है और आराम से यात्रा कर रहे है....✍🏻 #Girnar • #BhagwanNeminath
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मुनिश्री को आहार देने की विधि, क्रमानुसार..
१) पड़गाहन: हे स्वामी, नमोस्तु,नमोस्तु,नमोस्तु, अत्र, अत्र,अत्र, तिष्ठ,तिष्ठ,तिष्ठ, आहार जल शुद्ध है। विधि मिलने पर मुनिवर आपके सामने खड़े हो जाते हैं। णमोकार मंत्र बोलते हुए तीन प्रदिक्षा दीजिये।उसके बाद - नमोस्तु महाराज, मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि, आहार जल शुद्ध है, भोजनशाला में प्रवेश कीजिये।
२) उच्चासन: मुनिवर को चौकी पाटे पर विराजमान होने को कहें - हे स्वामी, उच्चासन पर विराजमान होइए। मुनिराज के चरण एक थाली में रखकर एक कलश में गुनगुना जल लेकर धोएं। चरण धोने के पश्चात सभी लोग गंधोदक माथे पर लगाएं एवं इसके उपरांत सभी दाता प्रासुक जल से अपने हाथ धोएं।
३) पूजाविधि - आव्हानन: ॐ हृइम श्री, मुनिराज, अत्र अवतर, अत्र अवतर, अत्र अवतर, तिष्ठ,तिष्ठ,तिष्ठ, मम सन्निहितो भव भव वषट स्थापनम संनिधिकरणं - ऐसा कहकर पुष्प क्षेपण करें। पश्चात मुनिवर के चरणों मे जल,चंदन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, एवं फल चढ़ाएं। पश्चात मुनिवर को अर्घ दें। इसके बाद शांतिधारा, परीपुष्पांजलि क्षेपण करें एवं पंचांग नमोस्तु करें। पूजाविधि के पश्चात थाली एवं कटोरी में परोसा हुआ भोजन मुनिवर को पहले दिखाएं। हे स्वामी, नमोस्तु, नमोस्तु, नमोस्तु, मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि, आहार जल शुद्ध है, ग्रहण कीजिये। नमोस्तु।। मुनिवर के मुद्रिका छोड़ने के बाद हाथ धुलावें।
महाराजजी के खड़े होकर मंत्र बोलने के बाद पहले पानी दें, पानी के बाद दूध दें। दूध के बाद आहार दें। दूध के बाद खट्टी चीज या खट्टी चीज के बाद दूध न दें।
शास्त्रों से प्राप्त जानकारी के आधार पर - सुभाषचंद्र बजाज।
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दुःखेष्वनुद्विवग्नमनाः सुखेषु विगतस्प्रृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीरमुनिरुच्यते।।
(Bhagvat Geeta,Chapter 2,Verse 56)
One whose mind remain undisturbed amidst misery, who does not crave for pleasure, and who is free from all sorts of wordly attachment (Veetragi), fear and anger, is called a real sage of steady wisdom.
And the perfect live example of this is Acharya Shri Guruvar Vidyasagar Ji 🙏
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