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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙
📝 *श्रंखला -- 328* 📝
*सिद्ध-व्याख्याता आचार्य सिद्धर्षि*
*जीवन-वृत्त*
शुभंकर पुत्र सिद्ध ने विवाह होने के बाद श्रमण भूमिका में प्रवेश किया। श्रमण भूमिका तक पहुंचाने में मुख्य निमित्त सिद्ध की मां थी।
सिद्ध में अनेक गुण थे परंतु उसे द्यूत खेलने का नशा था। माता-पिता, बंधु एवं मित्रों द्वारा उचित मार्गदर्शन मिलने पर भी उससे द्यूत का परित्याग नहीं हो सका। दिन-प्रतिदिन उसके जीवन में द्यूत का नशा अधिक गहरा होता गया। वह प्रायः अर्धरात्रि का अतिक्रमण कर घर लौटता। सिद्ध की पत्नी को पति की प्रतीक्षा में रात्रि जागरण करना पड़ता। पति की इस आदत से पत्नी खिन्न रहती थी। एक दिन सास ने बहू को उदासी का कारण पूछा। लज्जावनक वधु ने पति के द्यूत व्यसन की तथा निशा में विलंब से आगमन की बात कही। सास बोली "विनयिनी! तुमने मुझे इतने दिन तक क्यों नहीं बताया? मैं पुत्र को मीठे-कड़वे वचनों से प्रशिक्षण देकर सही मार्ग पर ले आती। तुम निशा में निश्चिंत होकर नींद लेना, रात्रि का जागरण मैं करूंगी।" सास के कथन से वधू सो गई और पुत्रागमन की प्रतीक्षा में लक्ष्मी बैठी रही। यामिनी के पश्चिम याम में पुत्र ने द्वार खटखटाया। माता लक्ष्मी क्रुद्ध होकर बोली "काल-विकाल में भटकने वाले पुत्र को मैं कुछ नहीं समझती। अनुचित विहारी एवं मर्यादातिक्रांत के लिए मेरे घर में कोई स्थान नहीं है। तुम्हें जहां अनावृत द्वार मिले वहीं चले जाओ।" सिद्ध तत्काल उल्टे पांव लौटा। धर्म स्थान के द्वार खुले थे। वह वही पहुंच गया। वहां गोदोहिकासन, उत्कटुकासन, वीरासन, पद्मासन आदि मुद्रा में स्थित स्वाध्याय-ध्यानरत मुनियों को देखा। उनकी सौम्य मुद्रा के दर्शन से व्यसनासक्त सिद्ध का मन परिवर्तित हो गया। सोचा 'मेरे जन्म को धिक्कार है। मैं दुर्गतिदायक जीवन जी रहा हूं। आज सौभाग्य से सुकृत बेला आई, उत्तम श्रमणों के दर्शन हुए। मेरी मां प्रकुपित होकर भी मेरी उपकारिणी है। उनके योग से मुझे यह महान् लाभ मिला। उष्णक्षीर का पान पित्तप्रारणाशक होता है।'
शुभ्र अध्यवसायों में लीन सिद्ध ने मुनियों को नमस्कार किया। गुरुजनों द्वारा परिचय पूछे जाने पर उसने द्यूत व्यसन से लेकर जीवन का समग्र वृत्तांत सुनाया और निवेदन किया "जो कुछ मेरे जीवन में घटित होना था वह हो गया। अब मैं धर्म की शरण ग्रहण कर आपके परिपार्श्व में रहना चाहता हूं। नौका के प्राप्त हो जाने पर कौन व्यक्ति समुद्र को पार करने की कामना नहीं करेगा?" गुरु ने सिद्ध को ध्यान से देखा। ज्ञानोपयोग से जाना यह जैन शासन का प्रभावक होगा। उन्होंने मुनिचर्या का बोध देते हुए कहा "सिद्ध! संयम स्वीकृत किए बिना तुम हमारे साथ कैसे रह सकते हो? तुम्हारे जैसे स्वेच्छाचारी व्यक्ति के लिए यह जीवन कठिन है। मुनि व्रत असिधारा है। ब्रह्मव्रत का पालन, सामुदानिकी माधुकरी वृत्ति से आहार ग्रहण, षट्भक्त, अष्टभक्त तप की आराधना के रूप में कठोर मुनिव्रत का पालन लौहमय चनों का मोम के दांतो से चर्वण करना है।"
सिद्ध ने कहा "मेरे इस व्यसनपूर्ण जीवन से साधु जीवन सुखकर है।" दीक्षा की स्वीकृति में पिता की आज्ञा आवश्यक थी। संयोगवश सिद्ध के पिता शुभंकर पुत्र को ढूंढते हुए वहां पहुंच गए। पुत्र को देखकर प्रसन्न हुए। पुत्र सिद्ध को घर चलने के लिए कहा। पिता द्वारा बहुत समझाने पर भी सिद्ध ने दीक्षा लेने का निर्णय नहीं बदला। पुत्र के दृढ़ संकल्प के सामने पिता को झुकना पड़ा। सिद्ध पिता से आज्ञा लेकर गर्गर्षि के पास मुनि जीवन में प्रविष्ट हुआ।
*पुरातन प्रबंध संग्रह में व्याख्यायित सिद्ध-व्याख्याता आचार्य सिद्धर्षि के जीवन-वृत्त* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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त्याग, बलिदान, सेवा और समर्पण भाव के उत्तम उदाहरण तेरापंथ धर्मसंघ के श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।
📙 *'नींव के पत्थर'* 📙
📝 *श्रंखला -- 152* 📝
*दुलीचंदजी दुगड़*
*शान क्यों ले रहे हो?*
दुलीचंदजी को अनेक आचार्यों की सेवा करने का अवसर मिला। प्रत्येक आचार्य की उन पर महती कृपा रही। उनकी प्रकृति में अल्हड़पन और फक्कड़पन का कुछ विचित्र सा सम्मिश्रण था। अतः साधु-साध्वियों से लेकर आचार्यों तक के सम्मुख वे कभी-कभी कुछ ज्यादती कर बैठते थे। किंतु वे इसे इतने सहज भाव से करते कि वह किसी को ज्यादती जैसी प्रतीत नहीं होती। मूलतः उनके कार्य करने तथा बोलने का अपना एक पृथक् ही प्रकार था।
डालगणी अपनी वृद्धावस्था में संवत् 1964 के शीतकाल में लाडनूं पधारे। रुग्णावस्था के कारण उन्हें अंत तक वहीं रहना पड़ा। उन्हीं दिनों की बात है। एक दिन किसी व्यक्ति ने दूसरे व्यक्ति से कहा लाडनूं की जलवायु बहुत अच्छी है, इसलिए डालगणी अब यहीं विराजेंगे। डालगणी के कानों में जब उपर्युक्त शब्द पड़े तो वे उन्हें खटक गए। उन्होंने वहां से विहार करने का निश्चय किया और घोषणा कर दी। सभी लोग बड़े असमंजस में पड़ गए। वहां के प्रमुख व्यक्तियों ने मिलकर वहीं रुकने के लिए प्रार्थना की, परंतु वे नहीं माने। दुलीचंदजी की बात भी अनसुनी कर दी गई। वे कहीं हठ न पकड़ लें, इसलिए उन्हें समझा दिया कि विहार की घोषणा कर देने के पश्चात् रुकने का आग्रह करना उचित नहीं होता।
डालगणी के उस रुख से दुलीचंदजी को बहुत दुःख हुआ। वे उदास होकर घर आए और कंबल ओढ़कर सो गए। थोड़ी देर के पश्चात् उन्होंने सोचा कि इस प्रकार सोने से कोई समस्या हल थोड़े ही हो जाएगी। वे उठे और ठाकुर साहब से मिलने के लिए गढ़ में चले गए। वे सोच रहे थे कि शायद ठाकुर साहब की प्रार्थना पर डाल गणी विशेष ध्यान दें तो हमारा काम बन जाए। वे वहां गए तब ठाकुर साहब सो रहे थे। उनके साथ भी उनका खुला व्यवहार था, अतः पैर के अंगूठे को स्पर्श कर उन्होंने उनको जगा दिया और कहा— "आप तो अभी तक सोए ही पड़े हैं। उधर डालगणी ने लाडनूं से विहार कर दिया है।"
ठाकुर साहब को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे पूछने लगे कि वे तो रुग्ण थे, फिर उन्हें इस स्थिति में विहार करने की क्या आवश्यकता हो गई?
दुलीचंदजी ने कहा— 'इस बात का हमारे पास कोई उत्तर नहीं है। इसके लिए तो हम केवल इतना ही कह सकते हैं—
"राजा जोगी अगन जल, इनकी उल्टी रीत।
डरता रहिए परसराम, ये थोड़ी पालै प्रीत।।"
ठाकुर साहब झटपट तैयार हुए और अपने कुछ व्यक्तियों को लेकर दुलीचंदजी के साथ दर्शनार्थ चले दिए।
डालगणी ने बिदासर जाने के लिए गनोड़ा की ओर विहार किया था। शरीर विहार के उपयुक्त नहीं था। अतः कोस भर में उन्हें करीब बीस पच्चीस बार विश्राम करना पड़ा और दो-ढाई घंटे समय लग गया। सेवा में चल रहे सभी लोगों ने प्रार्थना की कि ऐसी स्थिति में बीदासर कैसे पहुंचा जा सकता है? आपको अब पुनः लाडनूं पधार जाना चाहिए।
डालगणी कुछ निर्णय नहीं कर पा रहे थे। एक मन कहता था कि वापस जाने से तो अच्छा है अगले गांव में ही पहुंच जाएं। दूसरा मन कहता था कि यदि किसी गांव में अटक जाए तो वहां औषध मिलना भी कठिन हो जाएगा। वे कुछ सोच ही रहे थे कि ठाकुर साहब तथा दुलीचंदजी आदि भी वहां पहुंच गए। दुलीचंदजी असंतोष से भरे हुए तो थे ही, अतः वहां पहुंचते ही उपालंभ के स्वर में बोले— "महाराज! आप हमारी शान क्यों ले रहे हैं? यदि आपको कुछ हो गया तो सारी दुनिया हम पर ताने कसेगी कि लाडनूं में कोई ऐसा श्रावक ही नहीं था जो रुग्णावस्था में विहार नहीं होने देता।" ठाकुर साहब ने भी प्रार्थना की कि अभी आपके शरीर की स्थिति विहार करने के योग्य नहीं है, अतः वापस पधार जाना चाहिए।
डालगणी ने तब वापस लाडनूं पधारने का निश्चय किया। वे पधारे तो सही, परंतु नगर में न पधारकर गांव के बाहर तखतमलजी फूलफगर के मकान में ही विराजे। उनका विचार था कि यदि शरीर कुछ ठीक हुआ तो वहीं से सीधे विहार कर देंगे।
*श्रावक दुलीचंदजी दुगड़ के कई और भी रोचक जीवन प्रसंगों...* से रूबरू होंगें और प्रेरणा पाएंगें... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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