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आज 22 जून को भारत की स्वतंत्रता के प्रथम संग्राम के नायक *जैन अमर शहीद सेठ अमरचन्द बांठिया* जी के वर्ष 1858 में अंग्रेजों द्वारा दी गयी सरेआम फांसी से हँसते - हँसते अपने प्राणों का बलिदान देने वाले सेठ अमरचंद जी को कोटि-कोटि नमन...संजय जैन - विश्व जैन संगठन
राजस्थान की राजपूतानी शौर्य भूमि में बीकानेर में जैन धर्म के अनुयायी शहीद अमरचंद बांठिया का जन्म 1793 में हुआ था। देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा शुरू से ही उनमें था। बाल्यकाल से ही अपने कार्यों से उन्होंने साबित कर दिया था कि देश की आन-बान और शान के लिए कुछ भी कर गुजरना है।
अमरचन्द जी ने अपने व्यापार में परिश्रम, ईमानदारी एवं सज्जनता के कारण ग्वालियर राजघराने ने उन्हें नगर सेठ की उपाधि देकर राजघराने के सदस्यों की भाँति पैर में सोने के कड़े पहनने का अधिकार दिया और आगे चलकर उन्हें ग्वालियर के राजकोष का प्रभारी नियुक्त किया।
1858 की भीषण गर्मी में लू के थपेड़ों के बीच, झांसी की वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई तथा उनके योग्य सेना नायक राव साहब और तात्या टोपे आदि सब अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध करने के लिए ग्वालियर के मैदान-ए-जंग में आ डटे थे। उस समय झांसी की रानी की सेना और ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों को कई महीनों से वेतन तथा राशन आदि का समुचित प्रबंध न हो पाने से संकटों का सामना करना पड़ रहा था।
ऐसे संकट के समय में अमरचंद बांठिया आगे बढ़े और महारानी लक्ष्मीबाई के एक इशारे पर ग्वालियर का सारा राजकोष विद्रोहियों के हवाले कर दिया।
ग्वालियर राजघराना उस समय अंग्रेजों के साथ था। अमरचन्द जी भूमिगत होकर क्रान्तिकारियों का सहयोग करते रहे पर एक दिन वे शासन के हत्थे चढ़ गये और मुकदमा चलाकर उन्हें जेल में ठूँस दिया गया।
सुख-सुविधाओं में पले सेठ जी को वहाँ भीषण यातनाएँ दी गयीं। अंग्रेज चाहते थे कि वे क्षमा माँग लें लेकिन सेठ जी तैयार नहीं हुए तब अंग्रेजों ने उनके आठ वर्षीय निर्दोष पुत्र को भी पकड़ लिया।
अंग्रेजों ने धमकी दी कि यदि तुमने क्षमा नहीं माँगी तो तुम्हारे पुत्र की हत्या कर दी जाएगी। यह बहुत कठिन घड़ी थी लेकिन सेठ जी विचलित नहीं हुए और उनके पुत्र को तोप के मुँह पर बाँधकर गोले से उड़ा दिया गया जिससे उनके निर्दोष बच्चे का शरीर चिथड़े-चिथड़े हो गया।
18 जून 1858 को लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हो गईं। इसके बाद सेठ जी के लिए 22 जून 1858 को फाँसी की तिथि निश्चित कर दी गयी।
इतना ही नहीं, नगर और ग्रामीण क्षेत्र की जनता में आतंक फैलाने के लिए अंग्रेजों ने यह भी तय किया गया कि सेठ जी को 'सर्राफा बाजार' में ही सरेआम फाँसी दी जाएगी!
सेठ जी तो अपने शरीर का मोह छोड़ चुके थे। अन्तिम इच्छा पूछने पर उन्होंने नवकार मन्त्र जपने की इच्छा व्यक्त की व उन्हें इसकी अनुमति दी गयी फिर उन्हें एक मजबूत नीम के पेड़ पर लटकाकर उन्हें फाँसी दी गयी और शव को तीन दिन वहीं पेड़ पर लटके रहने दिया गया।
सेठ जी के बारे में अधिक जानकारी हेतु निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ें:- https://www.liveaaryaavart.com/2016/06/seth-amar-chand-banthiya.html
सर्राफा बाजार स्थित जिस नीम के पेड़ पर सेठ अमरचन्द बाँठिया को फाँसी दी गयी थी, उसके निकट ही सेठ जी की प्रतिमा स्थापित है। हर वर्ष 22 जून को वहाँ बड़ी संख्या में लोग आकर देश की स्वतन्त्रता के लिए प्राण देने वाले उस अमर सेठ जी को श्रद्धाजलि अर्पित करते हैं।
भारत की आजादी में जैन समाज ने तन, मन व धन अपना पूर्ण सहयोग दिया लेकिन सरकार व समाज इन वीरों को याद नहीं करती जिसके कारण अन्य समाज के लोग जैनों के स्वतंत्रता आन्दोलन में किये गए सक्रिय सहयोग के बारे में नही जान पाते! संकलन व नमनकर्ता: संजय जैन मो.: 9312278313
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चतुर्थ पट्टचार्य श्री सुनिलसागर जी गुरुराज ईडर के पार्श्वनाथ जिनालय में प्राचीन शास्त्र भंडार को देखकर इतने जिज्ञासु हो अवलोकन में इतने तल्लीन हो गए की तेज उमस व गर्मी में शरीर से पसीने की धार बहने लगी
किन्तु धन्य है ऐसे स्वाध्याय व श्रुत आगम प्रेमी गुरुवर जो प्राचिन शास्त्रो को देखते ही उसमे रत हो गए 🙂🙂
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देव गुरु ओर उनकी वाणी मात्र मेरी शरण हैं.. जिनसे मुझे मिलेगी निस्चित अटल शांति ये नियम हैं..
मोह का नाश करन कारण मैं, रत्नत्रय को आराधु... जीवंत रूप में मुनिवर मुद्रा स्वयं में मैं निखारू!!
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ऐसा रहन-सहन जिसकी नीव अहिंसा पर हो! यही मतलब खादी का आजादी से पहले था, यह आज भी है। मुझे आज भी इसका जरा भी शक नहीं की हमें वह आजादी हासिल करना है,जिसे हिंदुस्तान के करोड़ों गांव वाले अपने आप समझने और महसूस करने लगे, तो चरखा कातना और खादी पहनना पहले से भी ज्यादा जरूरी है
हथकरघा के लाभ,
आरोग्य,
अहिंसा,
स्वरोजगार,
राष्ट्र, जन,धन, संस्कृति की रक्षा
रजत जैन भिलाई
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पिता विरक्त हो साधु हो गये, पुत्र भी ब्रह्मचर्य व्रत ले संघ में रहने लगा । एई दिन गर्मी अधिक थी, विहार करते हुए पिता ने पुत्र की व्याकुलता को समझा और मोह वश कह दिया, "हम लोग आगे मिलेंगे, तुम धीरे-धीरे आ जाना । पुत्र नदी के समीप अकेला रह गया । उसका मन तो पानी पीने का हुआ, परन्तु तुरन्त उसने विचार किया, "भले ही स्थूल रूप से कोई नहीं देख रहा, परन्तु सर्वज्ञ के ज्ञान से तो कुछ भी छिपना सम्भव नहीं है और शरीर के मोहवश मैं अपना संयम क्यों छोड़ूँ?" वह शान्त चित्त हो बैठकर तत्त्वविचार पूर्वक तृषा परीषह जीतता रहा, परनातु आयु का उसी समय अन्त आने से उसकी देह छूट गई और संयम की दृढ़ता एवं शान्त परिणामों से स्वर्ग में देव हुआ ।
वह देव तत्काल अवधिज्ञान से समस्त प्रसंग समझकर, उसी पुत्र का वेश बनाकर संघ में आया । उसने अन्य साधुओं को नमस्कार किया, परन्तु पिता को नहीं । वह बोला, "साधु होकर आपको ऐसा मोह एवं छल करना उचित नहीं था । मैंने अपना नियम नहीं छोड़ा और देह छोड़कर स्वर्ग में देव हुआ । हे गुरुवर! आप भी प्रायश्चित्त करें ।"
उसके बाद पिता ने प्रायश्चित्त किया और साधना में सचेत होकर तल्लीन हो गये ।
पुस्तक का नाम - लघु बोध कथाएँ ।
लेखक - ब्र. रवीन्द्र जी "आत्मन" ।
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