News in Hindi
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🔮 *अणुव्रत महासमिति के सत्र*
*2017-19 की कार्यसमिति*
*की तृतीय बैठक............*
🎤 *अणुव्रत गीत का संगान*
📖 *अणुव्रत आचार संहिता का वाचन*
🌀 *गत बैठक की कार्यवाही*
*का वाचन व पुष्टि.......*
🎯 *अणुव्रत महासमिति*
*अध्यक्ष द्वारा उद्बोधन.....*
💎 *आचार्य श्री महाश्रमण प्रवास स्थल,*
*माधावरम, चेन्नई...........*
प्रस्तुति - 🔅 *अणुव्रत सोशल मीडिया* 🔅
प्रसारक - 🌻 *संघ संवाद* 🌻
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Source: © Facebook
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🔮 *अणुव्रत महासमिति के सत्र*
*2017-19 की प्रबंध मण्डल की*
*तृतीय बैठक का आगाज.....*
🎤 *अणुव्रत गीत का संगान*
📖 *अणुव्रत आचार संहिता का वाचन*
🌀 *आचार्य श्री महाश्रमण प्रवास स्थल,*
*माधावरम, चेन्नई...........*
प्रस्तुति: 💎 *अणुव्रत सोशल मीडिया*💎
प्रसारक: 🌻 *संघ संवाद* 🌻
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*आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत प्रवचन का विडियो:
*तन मन और आत्मा: वीडियो श्रंखला १*
👉 *खुद सुने व अन्यों को सुनायें*
*- Preksha Foundation*
Helpline No. 8233344482
संप्रेषक: 🌻 *संघ संवाद* 🌻
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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।
🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡
📜 *श्रंखला -- 41* 📜
*सुखराजजी भंडारी*
*निष्ठाशील श्रावक*
सुखराज जी भंडारी जोधपुर निवासी थे। उनका जीवन काल संवत् 1900 से 1944 तक का था। वे वहां के प्रख्यात व्यक्तियों में से थे। संघ के अत्यंत हितैषी और दृढ़ निष्ठाशील श्रावकों में उनकी गिनती हुआ करती थी।
संवत् 1923 में मुनि हंसराजजी का चातुर्मास जोधपुर में हुआ तब 14 व्यक्तियों ने एक साथ श्रावक के बारह व्रत धारण किए। उनमें एक सुखराजजी भी थे। सामायिक, जप आदि दैनिक धार्मिक कृत्यों में वे प्रतिदिन नियमित रूप से समय लगाया करते थे। साधु-साध्वियों के दर्शन तथा सेवा में सदैव तत्पर रहते। समय-समय पर जयाचार्य की सेवा में भी उपस्थित हुआ करते थे। जयाचार्य के प्रति उनके मन में अगाध श्रद्धा थी। जब-जब दर्शनार्थ वहां जाते तब-तब गुणानुवाद की नव्य रचनाएं करके ले जाते। सभा में खड़े होकर बड़े गंभीर स्वर में उन्हें सुनाया करते।
*किसकी मानूं*
एक बार जोधपुर से बहादुरमलजी भंडारी आदि बहुत से व्यक्ति जयाचार्य के दर्शन करने के लिए लाडनूं गए। सुखराजजी भंडारी भी उनके साथ थे। काफी समय के व्यवधान से उन्हें गुरु दर्शन का अवसर प्राप्त हुआ था। लोग जयाचार्य के सम्मुख पहुंचते ही अहंपूर्विका से दर्शन करने लगे। अन्य सभी जब दर्शन करने की होड़ में जुटे थे तब कवि सुखराजजी खड़े-खड़े कुछ सोच रहे थे।
सुप्रसिद्ध श्रावक बहादुरमलजी जब दर्शन करके खड़े हुए तो सुखराजजी को इस प्रकार चिंतनशील मुद्रा में खड़ा देखकर कहने लगे— "आप खड़े क्या कर रहे हैं? दर्शन करिए न।"
सुखराजजी ने कहा— "मेरे सम्मुख तो इस समय गृहकलह की समस्या उत्पन्न हो गई है। आप दर्शन करने की बात कहते हैं वह तो ठीक है, परंतु समस्या के हल होने से पूर्व मैं दर्शन कैसे कर सकता हूं?"
बहादुरमलजी ने साश्चर्य उनकी ओर देखा और कहने लगे— "आप कवि लोग बड़ी ही विचित्र प्रकृति के होते हैं। आचार्यश्री के चरणो में आकर भी आप यहां तक कौन सा गृह कलह ले आए हैं? इस समय आप जोधपुर में नहीं, लाडनूं में हैं और आचार्यश्री के चरणो में उपस्थित हैं।"
सुखराजजी— "हां-हां, मुझे पता है कि मैं इस समय जोधपुर में नहीं, आचार्यश्री के चरणो में हूं। परंतु गृहकलह यही आने पर ही तो प्रारंभ हुआ है। उसमें मूल कारण स्वयं आचार्यश्री ही तो हैं।"
अपने नाम का उल्लेख सुनकर जयाचार्य ने भी साश्चर्य उधर देखा और पूछने लगे— "भंडारीजी यह क्या बात कह रहे हैं? मैं तुम्हारे कौन से गृह कलह में कारण बन गया हूं?"
सुखराज जी ने तब अपने गृह कलह का विवरण देते हुए स्वरचित निम्नोक्त दोहा जयाचार्य के सम्मुख प्रस्तुत किया—
चाहत सिर स्पर्शन चरण, पर श्रुति चाहत वैण।
जीभ जगत गुण जीत रा, दर्शन चाहत नैण।।
उन्होंने स्वयं जयाचार्य से ही पूछा— "आप ही बतलाइए, अब मैं किसकी मांग पहले पूरी करूं और किसके पीछे?"
जयाचार्य ने हंसते हुए कहा— "तीन अंतिम मांगें तो आपने मुझे पूछने से पूर्व ही पूरी कर डाली हैं। अब तो केवल एक ही शेष रही है। एक में पहले पीछे का प्रश्न ही कहां उठता है?"
उपस्थित सभी लोगों के सम्मिलित ठहाके के साथ सुखराजजी ने जयाचार्य के चरणों में वंदन किया।
*श्रावक सुखराजजी भंडारी की कवित्व शैली* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙
📝 *श्रंखला -- 387* 📝
*जनप्रिय आचार्य जिनदत्त*
*जीवन-वृत*
गतांक से आगे...
जिनदत्तसूरि के युग में चैत्यवास की धारा राज्याश्रय प्राप्त कर बड़े वेग से बह रही थी। सुविहित विधि मार्ग पर चलने वाले जैनाचार्य के के लिए यह कड़ी कसौटी का युग था। जिसके हृदय में साहस का दीप जलता है उसके लिए कठिन कार्य भी सरल हो जाता है। जिनदत्तसूरि धैर्य से अपने लक्ष्य की ओर बढ़े। उन्होंने चैत्यवासी मुनियों के साथ कई शास्त्रार्थ किए एवं सुविहितमार्गी धारा को पुष्ट किया। अपने सिद्धांत के विस्तार का महत्त्वपूर्ण कार्य जिनदत्तसूरि के शासनकाल में हुआ।
जनश्रुति के अनुसार जिनदत्तसूरि ने अपने जीवन काल में कई सहस्र व्यक्तियों को जैन दीक्षा दी। संख्या की यह वृद्धि सुविहित मार्ग की नींव को मजबूत करने में परम सहायक सिद्ध हुई। आचार्य जिनदत्तसूरि की इस प्रवृत्ति का अनुकरण यदि समस्त जैन समाज करता तो आज जैनों की संख्या संभवतः कई करोड़ तक पहुंच जाती।
संघ व्यवस्था में जिनदत्तसूरि ने नए आयाम उद्घाटित किए। उन्होंने जिनवल्लभसूरि द्वारा प्रतिपादित षट्कल्याणक विधि को प्रमुखता प्रदान की। नए नियम बनाए और स्वतंत्र खरतरगच्छ का प्रवर्तन किया। यह उल्लेख 'जैन परंपरा नो इतिहास' नामक गुजराती ग्रंथ पृष्ठ 451 पर है। इस उल्लेख के आधार पर खरतरगच्छ के संस्थापक जिनदत्तसूरि सिद्ध होते हैं।
जिनचंद्रसूरि को जिनदत्तसूरि ने विक्रमपुर में वीर निर्वाण 1675 (विक्रम संवत् 1205) में अपना उत्तराधिकारी घोषित किया और उसी समय खरतरगच्छीय आचार्यों के नाम में 'जिन' शब्द को जोड़ने की परंपरा प्रारंभ हुई।
*साहित्य*
जिनदत्तसूरि संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश भाषा के अधिकारी विद्वान् थे। उन्होंने इन भाषाओं में कई ग्रंथों की रचना की। कई ग्रंथ स्तुत्यात्मक हैं। कई उपदेशात्मक भी हैं। उनके कतिपय ग्रंथों के नाम इस प्रकार हैं—
*1.* सन्देह-दोहावली (प्राकृत)
*2.* चैत्य-वन्दन-कुलक (प्राकृत)
*3.* उपदेश-कुलक (प्राकृत)
*4.* गणधर-सप्ततिका (प्राकृत)
*5.* विघ्नविनाशी-स्तोत्र (प्राकृत)
*6.* अजित-शान्ति-स्तोत्र (प्राकृत)
*7.* महाप्रभावक-स्तोत्र (प्राकृत)
*8.* पार्श्वनाथ-स्तोत्र (प्राकृत)
*9.* चच्चरी-प्रकरण (अपभ्रंश)
*10.* उपदेश धर्मरसायन (अपभ्रंश)
*11.* काल स्वरूप-कुलक (अपभ्रंश)
*12.* चक्रेश्वरी-स्तोत्र (संस्कृत)
*13.* सर्व जिन-स्तुति (संस्कृत)
*14.* वीर-स्तुति (संस्कृत)
*15.* गणधर सार्धशतक यह सामग्री बहुल उत्तम ग्रंथ है। इसके 150 पद्य हैं। इसमें गणधरों का इतिहास है।
*समय-संकेत*
जिनदत्तसूरि का अनशनपूर्वक स्वर्गवास वीर निर्वाण 1681 (विक्रम संवत् 1211) अजमेर में आषाढ़ शुक्ला एकादशी के दिन हुआ। जिनदत्तसूरि के नाम से बनी दादाबाड़ी आज भी वहां विद्यमान है।
अपने युग में जिनदत्तसूरि द्वारा व्यापक रूप से जैन शासन की प्रभावना और बड़ी संख्या में जैनीकरण का कार्य उनकी प्रभावकता का सूचक है।
आज भी कई प्रांतों एवं नगरों में जिनदत्तसूरि के नाम से दादाबाड़िया हैं। खरतरगच्छ में जिनदत्तसूरि की मान्यता अधिक है।
*आचार्य काल*
(वीर निर्वाण 1639-1681)
(विक्रम संवत् 1169-1211)
(ईस्वी सन् 1112-1154)
*नित्य नवीन आचार्य नेमिचन्द्र के प्रभावक चरित्र* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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💧 *अणुव्रत* 💧
🔹 संपादक 🔹
*श्री अशोक संचेती*
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*अणुव्रत विचार दर्शन*
स्तम्भ के अंतर्गत
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*धर्म एक निष्काम साधना*
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*दृष्टि का विपर्यय*
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