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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙
📝 *श्रंखला -- 402* 📝
*वादकुशल आचार्य वादिदेव*
*साहित्य*
आचार्य वादिदेव कुशल साहित्यकार थे। विभिन्न दर्शनों का अवगाहन कर उन्होंने 'प्रमाणनयतत्वलोकालंकार' की रचना की। यह ग्रंथ 374 सूत्र और 8 परिच्छेदों में निबद्ध न्यायविषयक मौलिक रचना है।
इस ग्रंथ पर 'स्याद्वाद रत्नाकर' नामक स्वोपज्ञ टीका भी है।
आचार्य वादिदेव आचार्य सिद्धसेन की कृतियों के पाठक थे। आचार्य सिद्धसेन दिवाकरजी का 'सन्मतितर्क' उनका प्रिय ग्रंथ था। 'स्याद्वाद-रत्नाकर' की रचना में उन्होंने 'सन्मतितर्क' का उल्लेख किया है।
आचार्य वादी देव की शिष्य मंडली में भद्रेश्वर और रत्नप्रभ नामक विद्वान् श्रमण थे। 'स्याद्वाद-रत्नाकर' की रचना में इन दोनों शिष्यों का उन्हें पूर्ण सहयोग था।
*समय-संकेत*
वादिदेवसूरि 9 वर्ष की अवस्था में मुनि बने, 31 वर्ष की अवस्था में सूरिपद पर सुशोभित हुए। कुल संयम-पर्याय का 74 वर्ष तक पालन कर एवं सूरिपद को लगभग 52 वर्ष तक अलंकृत कर आचार्य वादिदेव वीर निर्वाण 1696 (विक्रम संवत् 1226) श्रावण कृष्णा सप्तमी के दिन 83 वर्ष की अवस्था में स्वर्गगामी हुए।
आचार्य वादिदेव के जीवन से सम्बद्ध विशेष घटनाओं के परिचायक संवत् निम्नोक्त श्लोकों में है—
*रसयुग्मरवौ वर्षे (1226) श्रावणो मासि सङ्गते।*
*कृष्णपक्षस्य सप्तम्यामपराह्वे गुरोर्दिने।।284।।*
*मर्त्त्यलोकस्थितं लोकं प्रतिबोध्य पुरन्दरम्।*
*बोधिका इव ते जग्मुर्दिवं श्रीदेवसूरयः।।285।।*
*शिखिवेदशिवे (1193) जन्मदीक्षा युग्मशरेश्वरे (1152)।*
*वेदाश्वशंकरे वर्ष (1174) सूरित्वमभवत् प्रभोः।।286।।*
*नवमे वत्सरे दीक्षा एकविशंत्तमे तथा।*
*सूरित्वं सकलायुश्च त्र्यशीतिवत्सरा अभूत्।।287।।*
*(प्रभावक चरित्र, पृष्ठ 181, 182)*
*कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र के प्रभावक चरित्र* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।
🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡
📜 *श्रंखला -- 56* 📜
*शोभाचंदजी बैंगानी (द्वितीय)*
*यति अगरचंदजी का विद्वेष*
बिदासर के एक उपाश्रय में यति अगरचंदजी रहा करते थे। उसमें नीम का एक वृक्ष था, अतः उसे 'नीम का उपाश्रय' कहा जाने लगा। यतिजी बड़े प्रभावशाली और मंत्रवेत्ता थे। सभी लोग उनसे डरते थे। यथासंभव हर कोई उन्हें प्रसन्न रखने का ही प्रयास करता था। यतिजी पहले डालगणी के प्रति अत्यंत विनयशील थे, किंतु बाद में वे उनके कट्टर विरोधी हो गए। एक दिन डालगणी बहिर्भूमि की ओर जा रहे थे। अनेक साधु तथा श्रावक उनके साथ थे। उस समय की प्रथा के अनुसार लोग 'खमा' बोलते हुए चल रहे थे। जब वे नीम के उपाश्रय के पास से गुजरे तो यति अगरचंदजी ने पीछे से सुनाते हुए कहा— "राम नाम सत्य है–बोलते हुए ये खांधिए मुर्दे को लिए हुए जा रहे हैं।" आचार्यश्री के साथ चलने वाले कुछ व्यक्तियों ने शब्द सुने तो सही, परंतु वापस कुछ कहने का साहस कोई नहीं कर पाया। बात फैलती हुई शोभाचंदजी के कानों तक भी पहुंची। उन्हें बहुत बुरा लगा। उन्होंने कहा— "जो हमारे ही उपाश्रय में रहता है और हमारी ही टुकड़े खाता है, वही व्यक्ति यदि हमारे आचार्य के विषय में अपशब्द कहता है, तो यह सहन नहीं किया जाएगा। हमें ऐसे व्यक्ति से तत्काल अपना उपाश्रय खाली करवा लेना चाहिए।" पारस्परिक विचार-विमर्श के पश्चात् उन्होंने पुत्र हणूतमलजी तथा हुलासमलजी बैंगानी को सुजानगढ़ भेजा। उन्होंने अपने प्रयास प्रारंभ किए और अंततः उपाश्रय खाली करा लेने का निजामत से आदेश प्राप्त कर लिया। निश्चित तिथि के दिन स्थान को खाली कराने के लिए पुलिस के साथ थानेदार वहां पहुंचा तो यति अगरचंदजी ने भैरव का रूप बनाकर ऐसी हाक लगाई कि स्वयं थानेदार ही डर कर वहां से चला गया। बाद में दूसरे थानेदार ने आकर उपाश्रय खाली करवाया।
यति अगरचंदजी ने बीदासर से निकटस्थ गांव सांडवा के उपाश्रय में जाने का निर्णय किया। अपना सामान ले जाने के लिए उन्होंने ऊंट या बैलगाड़ी किराए पर लेनी चाही, परंतु सेठ शोभाचंदजी से तोड़ लेने के कारण उन्हें किराए पर भी कोई वाहन प्राप्त नहीं हो सका। विवश होकर उन्हें वाहन के लिए शोभाचंदजी से ही याचना करनी पड़ी। उन्होंने अपना वाहन दिया और सारे सामान सहित उन्हें सांडवा पहुंचा दिया।
*धर्माराधना*
सेठ शोभाचंदजी एक पुण्यवान व्यक्ति थे। उनके जीवन में स्वतः सिद्ध संतुलन था। सामाजिक पक्ष में वे जितने मान्य थे, धार्मिक पक्ष में भी उतने ही आदरणीय थे। धर्मसंघ की गौरव-वृद्धि के लिए वे शतक जागरूक थे। त्याग और तपस्या की ओर भी उनकी प्रवृत्ति थी। प्रतिदिन सामायिक तथा विशिष्ट दिनों में पौषध किया करते थे। प्रतिवर्ष पचरंगी की सामूहिक तपस्या में वे पंचोला किया करते थे। निरंतर चौदह वर्षों तक चतुर्दशी के उपवास किए, फिर भोज करके उसका उद्यापन कर दिया। शायद उन्होंने अपनी अवस्था या बढ़ती हुई अशक्ति को ध्यान में रखते हुए ऐसा किया होगा, परंतु उपवास तो वे आजीवन करते रहे थे। वे कभी रुग्ण नहीं रहे, अतः अंतिम समय के अतिरिक्त औषध सेवन का भी अवसर नहीं आया। अपने जीवन काल का अंतिम उपवास उन्होंने आषाढ़ कृष्णा 14 का किया। पारणे के दिन रात को उन्हें ज्वर हो गया। द्वितीया की रात्रि को उनकी शारीरिक स्थिति बहुत बिगड़ गई। फिर भी उन्होंने रात्रिकाल में किसी प्रकार का औषध ग्रहण करने से इंकार कर दिया। एक मुहूर्त दिन चढ़ने के पश्चात् ही उन्होंने औषध ग्रहण किया, परंतु उससे कोई लाभ नहीं हुआ। संवत् 1974 आषाढ़ शुक्ला 3 की रात्रि को पौने दो घंटे का तिविहार अनशन प्राप्त कर उन्होंने शरीर-त्याग कर दिया।
*तेरापंथ जिनकी रग-रग में रमा हुआ था... ऐसे श्रावक बुधमलजी बैद के प्रेरणादायी जीवन-वृत्त* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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