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👉 *संघ संवाद परिवार की तरफ से खमत खामणा*
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙
📝 *श्रंखला -- 424* 📝
*समाधि-सदन आचार्य शुभचन्द्र*
जैन परंपरा में शुभचंद्र नाम के कई विद्वान् आचार्य हुए हैं। प्रस्तुत शुभचंद्र ध्यान-योग के विशिष्ट ज्ञाता थे। उनकी प्रसिद्ध रचना 'ज्ञानार्णव' में योग एवं ध्यान के विस्तृत रूप का प्रतिपादन है। योग के विशेष व्याख्याता आचार्यों में शुभचंद्राचार्य का नाम विश्रुत है।
*जीवन-वृत्त*
आचार्य शुभचंद्र की गुरु-परंपरा, जन्म-भूमि अथवा माता-पिता के संबंध में किसी प्रकार के प्रामाणिक तथ्य उपलब्ध नहीं हैं।
विश्वभूषण भट्टारक के भक्तामर चरित उत्थानिका में शुभचंद्र से संबंधित जीवन परिचय का जो सामग्री उपलब्ध है उसका संक्षिप्त सार इस प्रकार है—
उज्जयिनी नरेश सिंधुल के दो पुत्र थे। शुभचंद्र और भर्तृहरि। सिंधुल के बड़े भ्राता का नाम मुंज था, परंतु मुंज सिंधुल का सहोदर नहीं था। सिंधुल के पिता को मूंज के खेत में एक लड़का पड़ा हुआ मिला। नरेश ने उसका नाम 'मुंज' रखा एवं पुत्र तुल्य मुंज का पालन पोषण किया। सिंधुल का जन्म उसके बाद हुआ, अतः उम्र में मुंज बड़े थे और सिंधुल छोटे थे। राजकुमार शुभचंद्र और भर्तृहरि दोनों सिंधुल के सुयोग्य पराक्रमी लड़के थे। इन दोनों बालकों के प्रति ईर्ष्यावश मुंज के मन में हिंस्र भाव पनपने लगे। शुभचंद्र और भर्तृहरि मुंज के दूर व्यवहार को देखकर संसार से विरक्त हो गए। शुभचंद्र ने जैन दीक्षा ग्रहण की और भर्तृहरि ने तांत्रिक मत की दीक्षा ग्रहण की। अपने-अपने क्षेत्र में कुछ समय तक साधना करने के बाद एक बार दोनों भ्राता मिले। शुभचंद्र के तेजस्वी व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व से भर्तृहरि प्रभावित हुए। उन्होंने भी जैन दीक्षा ग्रहण की। अपने भ्राता भर्तृहरि को संयम मार्ग में दृढ़ करने के लिए शुभचंद्र ने ज्ञानार्णव ग्रंथ की रचना की।
भक्तामर चरित उत्थानिका का यह प्रसंग शोध विद्वानों की दृष्टि में प्रामाणिक नहीं है। मुंज और सिंधुल विक्रम की 11वीं शताब्दी के हैं। भर्तृहरि 7वीं, 8वीं शताब्दी के विद्वान् है, अतः इनका एक साथ योग किसी प्रकार से उपयुक्त नहीं है।
शिलालेखों और ग्रंथों की प्रशस्तियों में प्रस्तुत आचार्य शुभचंद्र का उल्लेख नहीं है। आचार्य शुभचंद्र ने भी स्वरचित ग्रंथ ज्ञानार्णव में इसका संकेत नहीं किया है। पाठकों से स्व को अप्रकाशित रखने का यह भाव उनके निगर्वी मानस का प्रतीक है, पर इतिहास गवेषकों को ऐतिहासिक सामग्री नहीं मिलती।
*साहित्य*
साहित्य के क्षेत्र में आचार्य शुभचंद्र का महत्त्वपूर्ण योगदान ज्ञानार्णव ग्रंथ है। इसका परिचय इस प्रकार है
ज्ञानार्णव ग्रंथ ध्यान विषय की विशिष्ट कृति है। मालिनी, स्रगधरा, मन्दाक्रान्ता, शार्दूलविक्रीड़ित आदि छंदों में रचित तथा 42 प्रकरणों में विभक्त यह सुविशाल ग्रंथ पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत ध्यान का सूक्ष्मता से विश्लेषण, आग्नेयी, मारुति, पार्थिवी धारणाओं की विस्तार से परिचर्चा धर्मध्यान, शुक्लध्यान का स्वरूप-निर्णय, आज्ञा-विचय, अपाय-विचय, विपाक-विचय, संस्थान-विचय का विवेचन मन के विभिन्न स्तरों का बोध, कर्म क्षय की प्रक्रिया, उनके व्यवस्थित क्रम का दिशा-निर्देश, बारह भावना, पांच महाव्रत आदि बहुविध विषयों का ध्यान योग के साथ स्पष्ट प्रतिपादन इसमें है। सरस एवं प्रांजल शैली में प्रस्तुत सरल-रमणीय यह कृति आचार्य शुभचंद्र के प्रगल्भ पांडित्य, मर्मभेदिनी प्रज्ञा तथा विभिन्न दर्शनों के विश्लेषण से प्राप्त बहुश्रुतता का प्रतिबिंब है। ज्ञानार्णव की पीठिका में आचार्य शुभचंद्र ने समन्तभद्र, देवनन्दी पूज्यपाद, भट्ट अकलङ्क आदि आचार्यों का भावपूर्ण उल्लेख किया है, अतः इन आचार्यों को जानने के लिए स्वल्प सामग्री इस ग्रंथ में उपलब्ध हो जाती है।
*समाधि-सदन आचार्य शुभचन्द्र के आचार्य-काल के समय-संकेत* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।
🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡
📜 *श्रंखला -- 78* 📜
*हीरालालजी आंचलिया*
*नरेश और नमस्कार*
हीरालालजी दृढ़ निश्चय वाले श्रावक थे। धर्म का रंग उन पर इतना गहरा चढ़ा हुआ था कि वे धार्मिक पुरुषों के अतिरिक्त अन्य किसी को व्यवहार मात्र के लिए भी नमस्कार नहीं करते थे। एक बार बीकानेर नरेश गंगासिंहजी गंगाशहर में आए। किसी कार्य विशेष पर परामर्श के लिए उन्होंने स्थानीय सेठों को मिलने के लिए बुलाया। सभी प्रमुख साहूकारों ने नरेश की आज्ञा का पालन किया और मिलने के लिए पहुंचे, परंतु हीरालालजी नहीं गए। नरेश ने जब उनके विषय में पूछा तो किसी जानकार ने सारी बात बताते हुए कहा कि देव और गुरु के अतिरिक्त अन्य किसी को नमस्कार न करने का उन्होंने प्रण कर रखा है, इसीलिए वे यहां नहीं आ सके।
नरेश ने तब उन्हें बुलाने के लिए अपना आदमी भेजा और कहलवाया कि इतनी सी बात के लिए उन्हें रुकने की कोई आवश्यकता नहीं है। नमस्कार ही कोई बड़ी बात नहीं है। उनके मन में मेरे प्रति जो आदरभाव है, मैं उसे ही पर्याप्त मानता हूं। नरेश के उस उदार व्यवहार युक्त आमंत्रण पर वे उनसे मिलने के लिए गए।
*सत्य और व्यवहार*
वे एक सत्य साधक व्यक्ति थे। व्यवहार की रक्षा के लिए भी वे असत्य को प्रश्रय देना पसंद नहीं करते थे। कोई कितना ही परिचित अथवा कितना ही बड़ा व्यक्ति आवश्यकता वश उनके पास से कोई वस्तु मांगने के लिए आता तो वे "हां" या "ना" स्पष्ट कह दिया करते थे।
एक बार किसी ने उनसे कहा कि यदि वस्तु आपके पास है और मांगने वाले को वह दे दी जाती है, तब तो वह उचित ही है, परंतु वस्तु होते हुए भी जब आप यह कहते हैं कि अमुक वस्तु हमारे यहां है तो सही, किंतु देने का विचार नहीं है। तब यह कथन व्यवहार विरुद्ध हो जाता है। साथ ही आने वाले व्यक्ति को कटु भी लगता है। ऐसे अवसर पर आपको यही कहना चाहिए कि अमुक वस्तु मेरे पास नहीं है।
हीरालालजी ने कहा— "झूठ बोलूं और दूसरे को धोखा दूं— ये तो पाप करने की अपेक्षा तो मेरे लिए यही उचित है कि मैं उसे देने से इंकार कर दूं। सत्य के साथ जितना व्यवहार निभा सकता है, उतना ही मेरे लिए पर्याप्त है। व्यवहार के लिए सत्य को छोड़ना पड़े तो यह मुझे स्वीकार नहीं है।"
*गंगाशहर के श्रावक हीरालालजी आंचलिया के ज्ञान के प्रसार में योगदान व उनके विरक्ति भाव* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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*आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत प्रवचन का विडियो:
*अपने प्रभु का साक्षात्: वीडियो श्रंखला ३*
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संप्रेषक: 🌻 *संघ संवाद* 🌻
👉 प्रेक्षा ध्यान के रहस्य - आचार्य महाप्रज्ञ
प्रकाशक - प्रेक्षा फाउंडेसन
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