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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙
📝 *श्रंखला -- 432* 📝
*अप्रमत्तविहारी आर्यरक्षितसूरि*
*(अंचल गच्छ संस्थापक)*
*जीवन-वृत्त*
गतांक से आगे...
भालिज्य ग्राम निवासी श्रेष्ठी यशोधन संघ के साथ मंदिर पूजा के उद्देश्य से पावागिरी शिखर पर आया। उसने जैन मुनियों के दर्शन किए। उनसे उपदेश सुनकर प्रसन्न हुआ। विजयचंद्र आदि चारों मुनियों के मासिक तप का पारणा श्रेष्ठी यशोधन के 42 प्रकार के दोष से रहित विशुद्ध आहार दान से हुआ। मध्याह्न में श्रेष्ठी यशोधन मुनियों की उपासना में पुनः उपस्थित हुआ। विजयचंद्र मुनि ने उसे धर्म का बोध दिया तथा उत्तरासंग (वस्त्र के अंचल) से षडावश्यक धर्मोपासना एवं गुरु को वंदन करने की विधि समझाई। श्रेष्ठी यशोधन मुनि विजयचंद्र की वाणी से प्रभावित हुआ। उसने श्रावक व्रत ग्रहण किए।
वहां से यशोधन श्रेष्ठी मुनियों के साथ अपने गांव में आया। चक्रेश्वरीदेवी की प्रेरणा से श्रावक संघ ने विजयचंद्र मुनि को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया। श्रेष्ठी यशोधन ने उल्लास के साथ आचार्य पद महोत्सव मनाया। आचार्य पद पर अधिष्ठित होने के बाद विजयचंद्र सूरि ने आगम मान्यता के अनुसार श्रमणाचार की पुनः प्रतिष्ठा के उद्देश्य से विधि मार्ग की स्थापना की एवं अपने गच्छ की समाचारी-स्थापना में कई नए नियम बनाए। दीपपूजा, फलपूजा, बीजपूजा आदि के स्थान पर तंदुलपूजा अथवा पत्रपूजा को मान्यता प्रदान की। श्रावक-श्राविकाओं के लिए वस्त्र के अंचल से षडावश्यक आदि धार्मिक क्रियाओं को करने का विधान दिया। पर्व पर पौषध करने का नियम बनाया एवं माल्यार्पण आदि कई सावद्य क्रियाओं का निषेध किया।
विजयचंद्रसूरि द्वारा इस प्रकार विधि-पक्ष-गच्छ समाचारी की विधिवत् प्रतिष्ठा हुई।
मेरुतुंग लघु शतपदी के अनुसार नाणकगच्छ के सर्वदेवसूरि द्वारा बड़गच्छ की स्थापना हुई। बड़गच्छ में अनेक आचार्य हुए। उनमें जयसिंहसूरि ने आर्यरक्षित को आर्हती दीक्षा प्रदान की। मुनि जीवन में नवदीक्षित शिष्य का नाम विजयचंद्र रखा गया। विजयचंद्र मुनि कई वर्षों तक दीक्षा गुरु के पास रहे। आगमों का अध्ययन किया। एक दिन जयसिंहसूरि ने अपने प्रतिभा संपन्न शिष्य विजयचंद्र की नियुक्ति उपाध्याय पद पर की। विजयचंद्र मुनि ने इससे पहले ही क्रियोद्धार करने का निश्चय किया। अपने पूर्वकृत निश्चय के अनुसार विजयचंद्र मुनि एक दिन तीन सहयोगी संतो के साथ गच्छ से अलग होकर स्वतंत्र विहरण करने लगे। विहारक्रम में वे अपने मामा शीलगुणसूरि के पास गए। शीलगुणसूरि पौर्णमिक गच्छ के विद्वान् आचार्य थे। उनके पास उन्होंने आगमों का गहन अध्ययन किया। शीलगुणसूरि ने इनको आचार्य पद पर नियुक्त करना चाहा पर विजयचंद्र मुनि पापभीरू थे। उन्होंने सोचा आचार्य बनने पर इस गण के विधि-विधानों का पालन करना होगा एवं माल्यार्पण आदि सावद्य प्रवृत्तियों का संचालन करना होगा।
विजयचंद्र मुनि आचार्य पद के आकर्षण में नहीं फंसे। अपने सहयोगी संतों के साथ वे स्वतंत्र विहरण करने लगे।
*आचार्य विजयचंद्रसूरि द्वारा स्थापित विधिपक्ष गच्छ* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।
🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡
📜 *श्रंखला -- 86* 📜
*फूसराजजी चोपड़ा*
*उदार सहयोगी*
फूसराजजी समाज के व्यक्तियों को हर प्रकार का सहयोग देने को सदा तत्पर रहते थे। जो व्यक्ति थली से नए-नए जाते उनको वे काम सीखने, रहने और खाने की तब तक के लिए पूरी सुविधा प्रदान करते जब तक कि अपना व्यापार धंधा प्रारंभ कर स्वावलंबी नहीं हो जाते। इन्हीं कारणों से वे जहां रहते हैं वहां का खर्च अपेक्षाकृत अधिक ही रहा करता था। नाहटाजी के अन्य मुनीम इस बात की प्रायः शिकायत करते ही रहते थे कि चोपड़ा जी बहुत अधिक खर्च करते हैं। आपको उन पर नियंत्रण लगाना चाहिए।
नाहटाजी ने उक्त प्रकार की शिकायतों पर कभी ध्यान नहीं दिया। कभी कभी तो उल्टा उनका समर्थन ही कर देते थे। वे कहते कि मुनीमजी का हृदय बहुत विशाल है। वे साधर्मिक भाइयों को काम में लगाने में बड़े कुशल हैं। खर्च करके भी वे अपने घर तो कुछ ले जाते नहीं। प्रतिवर्ष अच्छा लाभ कमा कर देते हैं। जो खर्च करते हैं उसमें हमारी प्रतिष्ठा भी तो बढ़ती है। उनके इस समर्थन पर सारे मुनीमों को चुप ही हो जाना पड़ता था।
*मनस्वी व्यक्ति*
वे एक मनस्वी व्यक्ति थे। यद्यपि किसी विद्यालय में पढ़ने का उनको कभी संयोग नहीं मिला, तथापि उन्होंने अपनी मेधा के बल पर हिंदी सीख ली। बंगला के लिए उन्होंने आइसढाल में रहते समय कुछ दिन एक बंगाली मैनेजर के पास अभ्यास किया और फिर स्वयं के अभ्यास से अच्छा ज्ञान कर लिया। उनके द्वारा बनाए गए दस्तावेजों आदि में किसी प्रकार की त्रुटि नहीं रहती थी।
संस्कृत भाषा के प्रति उनका विशेष अनुराग था। स्थानीय प्रायः सभी संस्कृतवेत्ताओं से उनका आत्मीयता का संबंध था। शिक्षकों तथा छात्रों को यथावश्यक सहयोग बहुधा देते ही रहते थे। उन्होंने व्याकरणतीर्थ, काव्यशास्त्री पंडित ललित मोहन गोस्वामी से 'कस्तूरी-प्रकरण' नामक जैन संस्कृत ग्रंथ का बंगला भाषा में अनुवाद करवाया था। अन्य अनेक प्रकारों से भी वे संस्कृत एवं संस्कृतज्ञों का पोषण करते रहते थे।
वे सच्चे अर्थ में शिक्षा प्रेमी थे। उनके अपने मनोभाव का ही यह परिणाम था कि उनके पुत्र छोगमलजी चोपड़ा तत्कालीन बीकानेर राज्य में यथाज्ञात प्रथम ग्रैजुएट बने थे। कलकत्ता में वकालत करने वाले राजस्थानीयों में भी उनका नाम प्रथम पंक्तियों में लिया जाता था।
*कर्त्तव्य भावना*
उनकी कर्त्तव्य भावना बड़ी प्रबल थी। जैन धर्म की प्रतिष्ठा और प्रभावना करने में कभी चूकते नहीं थे। माहीगंज में पुराने समय से एक जैन मंदिर था। उसमें अष्टम तीर्थंकर चंद्रप्रभु की मूर्ति स्थापित थी। पहले मुर्शिदाबाद के अनेक धनिक जैन परिवारों की वहां कोठियां थीं। उन्होंने उस मंदिर का निर्माण करवाया था। समय ने पलटा खाया तो नाहटाजी के अतिरिक्त अन्य किसी का काम और निवास वहां नहीं रह पाया। उस स्थिति में मंदिर तथा उसकी संपत्ति की पूरी सार संभाल और व्यवस्था फूसराजजी ने ही की। वे स्वयं प्रतिदिन वहां जाकर व्यवस्था का निरीक्षण करते और स्वयं सामायिक आदि भी वही करते। कई बार लोग उन्हें पूछ भी लेते कि आप तो मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं करते, फिर मंदिर की इतनी चिंता क्यों करते हैं? वे कहते— "मैं मूर्ति पूजा में चाहे विश्वास ना करूं, परंतु यह मंदिर हमारे ही तीर्थंकरों का है। इसकी प्रतिष्ठा व प्रभाव बनाए रखना हमारा कर्तव्य है।"
*श्रावक फूसराजजी की एक विशेष रुचि व प्रशस्त धार्मिकता* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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👉 सोलापुर - पर्युषण महापर्व का आयोजन
👉 रायपुर - तप अभिनन्दन समारोह
👉 बेहाला, कोलकत्ता - महिला मण्डल सामूहिक क्षमा याचना व कार्यशाला में बेहाला मण्डल की सहभागिता
👉 रायपुर - महिला मंडल स्वर्ण जयंती के उपलक्ष में चेकअप केम्प का आयोजन
👉 अहमदाबाद - जैन संस्कार विधि के बढ़ते क़दम
👉 वापी - संकल्प संगठन यात्रा
👉 सचिन, सूरत - पर्युषण महापर्व आराधना
👉 अहमदाबाद - जैन संस्कार विधि के बढ़ते क़दम
प्रस्तुति: 🌻 *संघ संवाद* 🌻
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙
📝 *श्रंखला -- 431* 📝
*अप्रमत्तविहारी आर्यरक्षितसूरि*
*(अंचल गच्छ संस्थापक)*
प्रस्तुत आचार्य आर्यरक्षितसूरि अंचल गच्छ के संस्थापक थे। क्रियोद्धारक आचार्यों में उनकी गणना है। आचार्य बनने से पूर्व आर्यरक्षित का नाम विजयचंद्र था। विधिपक्ष-गच्छ (आगमानुसारी समाचारी) की स्थापना के बाद मुनि विजयचंद्र आर्यरक्षित नाम से विश्रुत हुए। अनुयोग व्यवस्थापक पूर्वधर आर्यरक्षित सूरि इनसे पूर्ववर्ती थे।
*गुरु-परंपरा*
अंचल गच्छ के आचार्य भावसागर सूरि द्वारा रचित वीरवंश-पट्टावली (विधिपक्ष गच्छ पट्टावली) में गुरु-परंपरा के अनुसार बड़गच्छ के संस्थापक उद्द्योतनसूरि हुए। उद्द्योतसूरि के पट्टधर क्रमशः सर्वदेवसूरि, पद्मदेवसूरि, उदयप्रभसूरि, प्रभानन्दसूरि, धर्मचन्द्रसूरि... नौवें पट्टधर वीरचन्द्रसूरि एवं दसवें जयसिंहसूरि हुए। जयसिंहसूरि ही आर्यरक्षितसूरि (विजयचंद्र मुनि) के दीक्षा गुरु थे।
*जन्म एवं परिवार*
आर्यरक्षितसूरि का जन्म आबू के निकट दंताणी गांव में वीर निर्वाण 1606 (विक्रम संवत् 1136) में हुआ। उनका गोत्र प्राग्वाट् (पोरवाल) था। उनके पिता मंत्री द्रोण के माता का नाम देढ़ी था। आर्यरक्षितसूरि का गृहस्थ जीवन का नाम गोदुह कुमार था।
*जीवन-वृत्त*
गोदुह कुमार बुद्धिमान बालक था। परिवार जैन धर्म के प्रति आस्थाशील था। गोदुह कुमार को धर्म के संस्कार अपने परिवार से प्राप्त हुए। एक दिन संसार से विरक्ति हुई। जयसिंहसूरि से गोदुह कुमार ने मुनि दीक्षा ली। मुनि जीवन में गोदुह कुमार का नाम विजयचंद्र रखा गया।
मुनि जीवन में आगमों का अध्ययन किया। अध्ययन करते समय विजयचंद्र मुनि को साधुचर्या में शिथिलाचार की अनुभूति हुई। उन्होंने क्रियोद्धार करने की बात सोची। जयसिंहसूरि ने विजयचंद्र मुनि की उपाध्याय पद पर नियुक्ति की। पद का व्यामोह विजयचंद्र मुनि के बढ़ते कदमों को रोक नहीं सका। वे एक दिन तीन सहयोगी संतो के साथ गच्छ से पृथक् हो गए। निर्दोष भोजन की उपलब्धि नहीं होने पर उन्होंने पावागिरी शिखर पर बने मंदिर में एक महीने का तप किया। साधुचर्या के अनुरूप आहर पानी नहीं मिलने पर संलेखना तप करने का उनका विचार था परंतु घटनाचक्र ने अचानक मोड़ लिया।
*मुनी विजय चंद्र सूरी के जीवन को एक नया मोड़ देने वाले घटनाचक्र* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।
🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡
📜 *श्रंखला -- 85* 📜
*फूसराजजी चोपड़ा*
*रुपये किसके?*
उस युग में व्यापारी वर्ग कितना न्याय-निष्ठ था, इसका एक उदाहरण यहां प्रस्तुत है। रंगपुर के रेल्वे गोदाम में आग लग गई। अनेक व्यापारियों की गांठें कलकत्ता भेजने के लिए वहां रखी हुई थीं। फूसराजजी की भी 250 गांठें थीं। वहीं के एक दूसरे व्यापारी चंद्रनाथ कूंडू की भी 250 गांठें थीं। आग लगी उस समय कूंडू साहब के मैनेजर ने किसी प्रकार से अपनी गांठें गोदाम से निकाल लीं और अपने गोले में ले गए। फूसराजजी की गांठों की बीमा बेची हुई थी। वे स्वयं कलकत्ता में थे, अतः शीघ्र ही बीमा कंपनी से उन्होंने पूरा क्लेम प्राप्त कर लिया।
कई महीनों पश्चात् कूंडू साहब के मैनेजर को पता चला कि उन्होंने जो गांठें जलने से बचा ली थीं वे उनकी नहीं किंतु लाभूराम जी की थीं। उसने तत्काल मंगलचंदजी (लाभूरामजी के पुत्र) को सारी बात से अवगत किया और उन्हें वे गांठें मंगा लेने को कहा।
मंगलचंदजी ने कहा— "हम तो बीमा कंपनी से पूरा क्लेम प्राप्त कर चुके हैं, अतः अब इन गांठों पर हमारा कोई अधिकार नहीं है।" उधर मैनेजर का कथन था कि यदि हमारी गांठों के भरोसे हमने किसी दूसरे का माल बचा लिया तो इतने मात्र से वह माल हमारा थोड़े ही हो जाता है? अंततः मैनेजर द्वारा बार-बार दबाव डाले जाने पर मंगलचंदजी ने कहा— "मैं सारे समाचार कलकत्ता में बाबाजी के पास भेजता हूं, वे जो भी निर्देश देंगे वैसा ही कर लिया जाएगा।"
कलकत्ता में फूसराजजी के पास जब यह समाचार पहुंचे तो उन्होंने तत्काल बीमा कंपनी को सूचित किया। कंपनी के मैनेजर ने कहा— "गांठें आप ले लें और उन्हें बेच दें। आढ़त, दलाली तथा अन्य खर्च बाद देकर रकम हमें भेज दें।" फूसराजजी ने उक्त बात रंगपुर लिख दी। फलस्वरूप वे गांठें उन्होंने बेच दीं। पाट का भाव उस समय बहुत ऊंचा था, अतः सारा खर्च बाद कर देने पर भी उसका मूल्य क्लेम की रकम से लगभग 5000 रुपये अधिक प्राप्त हुआ। फूसराजजी ने वह सारी रकम बीमा कंपनी के मैनेजर को दी, किंतु उसने कहा— "हमें केवल क्लेम की रकम ही दें। उससे अधिक पर हमारा कोई अधिकार नहीं है। आपके माल से जो कुछ लाभ आपको मिला है, वह सब आपका ही है।"
आखिर फूसराजजी ने रंगपुर समाचार लिखकर निर्देश दिया कि बीमा कंपनी से क्लेम प्राप्त होने पर हमारी क्षतिपूर्ति तो उस समय ही हो गई थी, अतः क्लेम की रकम वापस कर देने के बाद जो बची है वह कूंडू साहब को देना ही संगत लगता है। उन्होंने इस माल को बचाया था, अतः इससे उनकी आंशिक क्षतिपूर्ति हो तो वह उचित ही है।
जब उक्त बात कूंडू साहब के सामने रखी गई तो उन्होंने स्पष्ट इंकार करते हुए कहा— "हमने तो अपने माल का बीमा बेचा ही नहीं था, अतः इसमें हमारा कोई हक नहीं है।"
जब उक्त रकम को लेने के लिए कोई भी तैयार नहीं हुआ, तब बहुत समय तक तो वह उचंती खाते ही रखी रही। बाद में जब फूसराजजी रंगपुर आए तब कूंडू महाशय से परामर्श करके उक्त रकम का कुछ अंश उन मजदूरों में बांट दिया गया जिनके श्रम से वे गांठें बचाई गई थीं। कुछ अंश स्थानीय राजराजेश्वरी देवी के अति प्राचीन मंदिर के जीर्णोद्धार में लगा दिया गया। शेष स्थानीय सार्वजनिक पुस्तकालय में दे दिया गया।
*श्रावक फूसराजजी की सहयोग व कर्तव्य भावना तथा मनस्विता* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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🌼 *अमलतम आचार धारा में स्वयं निष्णात हैं,*
*दिप सम शत दिप दीपन के लिए प्रख्यात हैं,*
*धर्म - शासन के धुरंधर धीर धर्माचार्य हैं,*
*प्रथम पद के प्रवर प्रतिनिधि प्रगति में अनिवार्य हैं।* 🙏
⛩ *चेन्नई (माधावरम), महाश्रमण समवसरण में..*
*गुरुवरो धम्म-देसणं!*
👉 आज के *"मुख्य प्रवचन"* कार्यक्रम के *कुछ विशेष दृश्य..*
दिनांक: 25/09/2018
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👉 जालना - धम्म जागरण का आयोजन
👉 उधना, सूरत - 216 वां भिक्षु चरमोत्सव
👉 अहमदाबाद - जैन संस्कार विधि के बढ़ते क़दम
👉 सोलापुर - 216 वां भिक्षु चरमोत्सव व जैन संस्कार विधि से जन्मोत्सव
👉 जयपुर - ज्ञानशाला अभिप्रेरणा कार्यक्रम का आयोजन
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News in Hindi
👉 राजाजीनगर(बेंगलुरु): तेयुप द्वारा संगठन यात्रा
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👉 प्रेक्षा ध्यान के रहस्य - आचार्य महाप्रज्ञ
प्रकाशक - प्रेक्षा फाउंडेसन
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