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🌼 *'अणुव्रत अनुशास्ता' आचार्य श्री महाश्रमण जी* के पावन सान्निध्य *चेन्नई* के माधावरम् में..⛩
👉 *"अणुव्रत उद्बोधन सप्ताह" का तृतीय दिन - "अणुव्रत प्रेरणा दिवस"*
दिनांक: 26/09/2018
प्रस्तुति: ✨ *अणुव्रत सोशल मीडिया* ✨
प्रसारक: 🌻 *संघ संवाद* 🌻
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👉 प्रेरणा पाथेय:- आचार्य श्री महाश्रमणजी
वीडियो - 28 सिंतबर 2018
प्रस्तुति ~ अमृतवाणी
सम्प्रसारक 🌻 *संघ संवाद* 🌻
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙
📝 *श्रंखला -- 435* 📝
*जिनधर्मानुरागी आचार्य जयसिंहसूरि*
अंचलगच्छ के प्रभावक आचार्यों में जयसिंहसूरि का एक नाम है। जयसिंहसूरि विद्वान् एवं वादकुशल आचार्य थे। वे विधिपक्ष गच्छ के द्वितीय पट्टधर थे। उनकी स्मरण शक्ति प्रखर थी। वे एक दिन में सैंकड़ों पद्य कंठस्थ कर लेते थे। उन्हें व्याकरण, न्याय, साहित्य, छंद आदि विविध विषयों का अधिकृत ज्ञान था।
*गुरु-परंपरा*
जयसिंहसूरि के दीक्षा गुरु आर्यरक्षितसूरि थे। आर्यरक्षितसूरि अंचलगच्छ के संस्थापक थे। अतः जयसिंहसूरि की गुरु परंपरा आर्यरक्षितसूरि से प्रारंभ होती है। आर्यरक्षितसूरि के उत्तराधिकारी जयसिंहसूरि विधिपक्ष गच्छ (अंचलगच्छ) के द्वितीय पट्टधर थे। इस गच्छ के तृतीय पट्टधर धर्मघोषसूरि, चतुर्थ पट्टधर महेन्द्रसिंहसूरि थे। महेन्द्रसिंहसूरि शतपदी विवरण के रचनाकार थे।
*जन्म एवं परिवार*
जयसिंहसूरि का जन्म वैश्य वंश में वीर निर्वाण 1649 (विक्रम संवत् 1179) में हुआ। उनके पिता का नाम दाहड़ एवं माता का नाम नेढ़ी था। श्रेष्ठी दाहड़ कोंकण प्रदेशांतर्गत सोपारक नगर में रहता था। सोपारत नगर की जैन इतिहास से भी कड़ी जुड़ी हुई है। द्वादश वर्षीय दुष्काल के समय आर्य वज्रसेन कोंकण देश के सोपारक नगर में पधारे। सोपारक नगर निवासी जिनदत्त श्रेष्ठी के चार युवा पुत्रों को उन्होंने आर्हती दीक्षा प्रदान की। जयसिंहसूरि की जन्म भूमि होने का सौभाग्य इसी सोपारक नगर को है।
*जीवन-वृत्त*
श्रेष्ठी दाहड़ सोपारक नगर का समृद्ध व्यक्ति था। वह धर्मानुरागी था। दाहड़ की पत्नी नेढ़ी भी धर्मपरायण महिला थी। सुखी परिवार था। नेढ़ी ने पूर्णिमा की रात्रि में पूर्ण चंद्रमा का स्वप्न देखा। स्वप्न की बात उसने अपने पति से कही। दोनों ने महसूस किया यह स्वप्न हमारे प्रांगण में किसी पुण्यवान जीव के आगमन की सूचना है। गर्भ की अवधि संपन्न होने पर नेढ़ी ने पुत्र रत्न को जन्म दिया। पुत्र का नाम जासिग रखा गया।
*बालक जासिग के जीवन-वृत्त* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।
🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡
📜 *श्रंखला -- 89* 📜
*चिमनीरामजी कोठारी*
*पांच द्रव्य*
खाने-पीने के विषय में भी वे अत्यंत नियंत्रण रखने वाले व्यक्ति थे। रसना पर उन्होंने एक प्रकार से विजय प्राप्त कर ली थी। सीमित द्रव्यों को सीमित प्रमाण में ग्रहण कर वे अपने को संतुष्ट कर लेते थे। एक दिन में 8 तोले चावल और गेहूं या चने की दो रोटियां बस इतना ही उनका भोजन परिमाण था। द्रव्यों की संख्या उन्होंने क्रमशः घटाते-घटाते कम कर दी थी। गेहूं की रोटी, घी, दूध, आंवला और पानी ये पांच द्रव्य ही अंतिम वर्षों में उनका आहार रह गया था। बीच-बीच में महीनों तक पानी और रोटी केवल इन दो द्रव्यों पर ही रह जाया करते थे।
*एक अभिग्रह*
एक बार उन्होंने एक अभिग्रह किया कि जब तक उनकी पुत्री अधिक द्रव्य खाने के लिए उनसे आग्रह न करे, तब तक वे पानी और रोटी ये दो द्रव्य ही खाएंगे। अभिग्रह पूर्ण हो जाने से पूर्व किसी दूसरे को बतलाया नहीं जा सकता, अतः उनकी पुत्री को अभिग्रह का कोई पता नहीं लग सका। वे यों भी बहुधा आयम्बिल करते रहते थे, अतः अभिग्रह की और उसका ध्यान नहीं गया। संयोग हुआ कि उन्हीं दिनों लड़की के ससुराल वाले उसे लिवा ले जाने को आ गए। वह उनके साथ अपने ससुराल बिदासर चली गई। फल यह हुआ कि चिमनीरामजी का यह अभिग्रह उस समय पूर्ण नहीं हो पाया। वे लगातार छह महीनों तक केवल दो ही द्रव्य खाते रहे।
आयम्बिल की उस छः मासिक तपस्या से उनकी शारीरिक शक्ति बहुत क्षीण हो गई। लड़की लगभग छः महीनों के पश्चात् पुनः पीहर आई तब पिता को अत्यंत कृशकाय और थका हुआ देखकर उसे बड़ा दुःख हुआ। उसने तब सहज भाव से घी, दूध आदि अन्य द्रव्यों के लिए आग्रह किया। तब कहीं जाकर उन्होंने पुनः अन्य द्रव्य खाने प्रारंभ किए।
*तेरह सामायिक*
वे अपने व्रतों के प्रति बहुत जागरूक और सुदृढ़ थे। व्रतों की रक्षा के लिए प्राणों तक की बाजी लगा देने में उन्हें हिचक नहीं होती थी। एक बार उन्हें दस्तों की बीमारी हो गई। सामायिक जितने काल में भी उन्हें अनेक बार शौचार्थ जाना पड़ता था, अतः सामायिक नहीं कर पाते थे। सामायिक करने से पूर्व चारों आहारों का प्रत्याख्यान था, अतः भोजन या पानी भी ग्रहण नहीं कर सकते थे। उक्त अवसर पर लगातार बारह दिनों तक वे सामायिक नहीं कर सके। फलतः बारह दिन की चौविहार तपस्या उन्हें करनी पड़ी। तेरहवें दिन तेरह सामायिक कर लेने के पश्चात् ही उन्होंने अन्न-जल ग्रहण किया।
*साधुभूत श्रावक चिमनीरामजी कोठारी के विलक्षण विराग भाव* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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💎 *संघ - संपदा बढ़ती जाए, प्रगति शिखर पर चढ़ती जाए ।* ⛰
🌈 *भेक्ष्व शासन नन्दन वन की सौरभ से सुरभित भूतल हो।।*🌷
⛩ *चेन्नई (माधावरम), महाश्रमण समवसरण में..*
3⃣ *पूज्य गुरुदेव के पावन सान्निध्य में अभातेयुप के त्रिदिवसीय राष्ट्रीय अधिवेशन ~"YOUTH CONNECT"~ का शुभारंभ..*
🙏 *गुरुवरो धम्म-देसणं!* 🙏
👉 *आज के "मुख्य प्रवचन" कार्यक्रम के कुछ विशेष दृश्य..*
दिनांक: 28/09/2018
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👉 प्रेक्षा ध्यान के रहस्य - आचार्य महाप्रज्ञ
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*आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत प्रवचन का विडियो:
*प्रेक्षा प्रयोग है चिर यौवन का: वीडियो श्रंखला ४*
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