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🌐 *बदले युग की धारा,* 🌊
👁 *नई दृष्टि हो, नई सृष्टि हो अणुव्रतों के द्वारा,* 🙏
🌐 *बदले युग की धारा।* 🌊
🌼 *'अणुव्रत अनुशास्ता' आचार्य श्री महाश्रमण जी* के पावन सान्निध्य में *चेन्नई* के माधावरम् में..⛩
🌈 *"अणुव्रत उद्बोधन सप्ताह" का चतुर्थ दिन - "पर्यावरण शुद्धि दिवस"*
दिनांक: 29/09/2018
प्रस्तुति: ✨ *अणुव्रत सोशल मीडिया* ✨
प्रसारक:
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🌻 *संघ संवाद* 🌻
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👉 प्रेरणा पाथेय:- आचार्य श्री महाश्रमणजी
वीडियो - 29 सिंतबर 2018
प्रस्तुति ~ अमृतवाणी
सम्प्रसारक 🌻 *संघ संवाद* 🌻
👉 *चेन्नई* (माधावरम): *श्री प्रकाश बैद "अमृतवाणी" के अध्यक्ष निर्वाचित*
प्रस्तुति: 🌻 *संघ संवाद* 🌻
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🙏 *जागे शुभ संस्कार, समय का अंकन हो।*
*पुष्ट बने आधार, समय का अंकन हो ।।*🕰
⛩ *चेन्नई (माधावरम), महाश्रमण समवसरण में..*
3⃣ *अभातेयुप के त्रिदिवसीय राष्ट्रीय अधिवेशन ~"YOUTH CONNECT"~ का दूसरा दिन..*
🙏 *गुरुवरो धम्म-देसणं!* 🙏
👉 *आज के "मुख्य प्रवचन" कार्यक्रम के कुछ विशेष दृश्य..*
दिनांक: 29/09/2018
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*आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत प्रवचन का विडियो:
*अपने आप को जाने: वीडियो श्रंखला १*
👉 *खुद सुने व अन्यों को सुनायें*
*- Preksha Foundation*
Helpline No. 8233344482
संप्रेषक: 🌻 *संघ संवाद* 🌻
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙
📝 *श्रंखला -- 436* 📝
*जिनधर्मानुरागी आचार्य जयसिंहसूरि*
*जीवन-वृत्त*
गतांक से आगे...
जासिग बुद्धिमान बालक था। वह पढ़ता था एवं अपनी मां के साथ संतो के व्याख्यान सुनने भी जाया करता था। एक बार बालक जासिग ने कक्कसूरि से 'जम्बूचरित्र' का आख्यान सुना। बालक का मन संसार से विरक्त हो गया। वह संयम ग्रहण करने को उत्सुक बना। वैराग्य भावपूर्ण जासिग ने स्थिरपद्र (थराद) नगर में वीर निर्वाण 1667 (विक्रम संवत् 1197) में आर्यरक्षितसूरि से आर्हती दीक्षा स्वीकार की। इस समय जयसिंहसूरि की उम्र लगभग 18 वर्ष की थी। मुनि जीवन में उनका नाम यशेशचंद्र रखा गया। गुरु की सन्निधि में रहकर नवदीक्षित मुनि ने विद्याभ्यास किया। आगमों का अध्ययन किया। शीघ्रग्राही बुद्धि के कारण यशेशचंद्र मुनि कुछ ही वर्षों में अनेक विषयों के ज्ञाता बन गए।
आर्यरक्षितसूरि ने उनको विउणप्प नगर में वीर निर्वाण 1672 (विक्रम संवत् 1202) में सूरि पद पर प्रतिष्ठित किया। उनका नाम जयसिंह रखा गया। इस समय उन्हें मुनि बने पांच वर्ष हो गए थे। विधिपक्ष-गच्छ (अंचलगचछ) के संस्थापक आर्यरक्षितसूरि के स्वर्गवास के बाद जयसिंह ने वीर निर्वाण 1706 से 1728 (विक्रम संवत् 1236 से 1258) तक गच्छ संचालन का भार संभाला। उनके शासनकाल में अंचलगच्छ की विशेष प्रगति हुई।
जयसिंहसूरि ने मेवाड़, मारवाड़, कच्छ, सौराष्ट्र आदि क्षेत्रों में विचरण कर अनेक व्यक्तियों को जैन धर्म का बोध दिया। कईयों को जैन दीक्षा भी प्रदान की।
आर्यरक्षितसूरि ने विधिपक्ष-गच्छ (अंचलगच्छ) की स्थापना की। उसका व्यापक प्रचार-प्रसार करने वाले जयसिंहसूरि थे। अपने गच्छ को संगठित करने का उन्होंने प्रयत्न किया।
*समय-संकेत*
जयसिंहसूरि विक्रम की 12वीं शताब्दी के अंतिम दशक में दीक्षित हुए तथा 13वीं शताब्दी में आचार्य बने। उन्होंने 22 वर्ष तक धर्मसंघ का दायित्व संभाला। उनका स्वर्गवास वीर निर्वाण 1728 (विक्रम संवत् 1258) में हुआ। अंचलगच्छ के प्रभावी आचार्य जयसिंहसूरि वीर निर्वाण की 18वीं (विक्रम की 13वीं) शताब्दी के विद्वान् आचार्य थे।
*उदारमना आचार्य उदयप्रभ के प्रभावक चरित्र* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।
🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡
📜 *श्रंखला -- 90* 📜
*चिमनीरामजी कोठारी*
*पुत्र की मृत्यु पर*
यद्यपि चिमनीरामजी परिवार में रहते थे। फिर भी धीरे-धीरे अभ्यास करके पारिवारिक ममत्व को उन्होंने प्रायः क्षीण कर दिया था। किसी की मृत्यु आदि पर वे अन्य साधारण व्यक्तियों की तरह शोक-विह्वल नहीं होते थे। किसी को शोकाग्रस्त देखते तो उसे सांत्वना की बात कहते तथा धर्म-ध्यान की ओर अपने मन को मोड़ लेने की प्रेरणा देते। उनके पास परोपदेश पांडित्य नहीं था। कहने से पूर्व उस विषय की अपनी पूरी-पूरी साधना कर लेना उनका लक्ष्य रहता था।
संवत् 1962 की बात है। वे आचार्य डालगणी के दर्शनार्थ सरदारशहर गए। वहां एक दिन रात्रि के समय अचानक ही किसी अज्ञात रोग के आक्रमण से उनके पुत्र की मृत्यु हो गई। उस दुर्घटना से स्थानीय लोगों को बड़ा दुःख हुआ। चिमनीरामजी को भी दुख तो हुआ ही था, किंतु उन्होंने अपने मन पर अत्यंत नियंत्रण रखा। उन्होंने अपनी आंखों को गिला नहीं होने दिया। उस दिन के लिए और अधिक विराग बढ़ाते हुए उन्होंने उपवास तथा पौषध वक्त ग्रहण कर लिया। सांत्वना देने के निमित्त आने वाले व्यक्ति संवेदना प्रकट करते समय जब आंखें गीली कर लेते थे, तब भी चिमनीरामजी अपने आपको विचलित नहीं होने देते थे। वे कहते कि उसके साथ हमारा इतना ही संयोग था।
*अंतिम साधना*
संवत् 1972 में लगभग 62 वर्ष की अवस्था में उनका देहावसान हुआ। जिस रात्रि को उन्होंने शरीर छोड़ा उसी रात्रि को उनकी पत्नी ने उन्हें कुछ विशेष धर्म जागरण करते हुए देखा था। उसने पूछा भी था कि क्या आपको अपना आयुष्य इतना समीप प्रतीत हो रहा है? उन्होंने अपनी पत्नी को उस समय कोई उत्तर नहीं दिया और अपनी साधना में ही विशेष रूप से दत्तचित्त रहे। संभव है उन्हें अपनी मृत्यु का कोई पूर्वाभास हो गया था। कहा जाता है कि जब उन्होंने शरीर छोड़ा तब उस स्थान पर क्षण भर के लिए अज्ञात प्रकार का एक तेज प्रकाश फैल गया और किसी मधुर वाद्य की झनझनाहट का शब्द सुनाई दिया।
*ब्यावर के श्रावक नथमल जी भण्डारी के प्रेरणादायी जीवन-वृत्त* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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