19.10.2018 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 19.10.2018
Updated: 19.10.2018

Update

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙

📝 *श्रंखला -- 450* 📝

*जनहितैषी आचार्य जिनप्रभ*

जिनप्रभ नाम के कई आचार्य हुए हैं। प्रस्तुत जिनप्रभसूरि सुविहित मार्गी परंपरा के विद्वान् आचार्य थे। स्तोत्र-साहित्य के रचनाकार के रूप में उनकी प्रसिद्धि है। विविध तीर्थकल्प उनकी महत्त्वपूर्ण रचना है। जैन इतिहास की विपुल सामग्री इस ग्रंथ में है। विधिमार्गप्रपा उनकी श्रेष्ठ एवं उपयोगी रचना है।

जिनप्रभसूरि ने 38 वर्ष तक ग्रंथ रचना का कार्य किया एवं जैनभारती की उन्होंने विशिष्ट उपासना की।

*गुरु-परंपरा*

जिनप्रभसूरि की परंपरा में खरतरगच्छ में जिनपतिसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि (द्वितीय) हुए। जिनेश्वरसूरि के दो प्रमुख शिष्य थे *1.* जिनप्रबोधसूरि, *2.* जिनसिंहसूरि। जिनप्रबोधसूरि ओसवाल वंशज थे। जिनसिंहसूरि श्रीमाली जाति के थे। दोनों प्रकांड विद्वान् थे। जिनेश्वरसूरि ने दोनों शिष्यों की नियुक्ति अपने पट्टधर के रूप में की। जिससे खरतरगच्छ नाम से प्रसिद्ध वर्धमानसूरि का यह गच्छ दो भागों में विभक्त हुआ। जिनसिंहसूरि से लघु खरतरगच्छ का जन्म हुआ। जिनप्रबोधसूरि का गच्छ वृहत् खरतरगच्छ कहलाया। यह समय वीर निर्वाण 1650 (विक्रम संवत् 1280) है। जिनप्रबोधसूरि ने ओसवाल समुदाय एवं जिनसिंहसूरि ने श्रीमाल परिवार में धर्म प्रचार का काम किया, अतः उनके गच्छ का दूसरा नाम श्रीमालगच्छ भी है।

जिनसिंहसूरि स्वयं श्रीमाल परिवार के थे। उनके शिष्य परिवार में कई श्रीमाल थे। जिनप्रभुसूरि इन्हीं जिनेश्वरसूरि (द्वितीय) के शिष्य थे।

*जन्म एवं परिवार*

जिनप्रभसूरि वैश्य वंशज थे। ताम्बी उनका गोत्र था। वह हीलवाड़ी के निवासी श्रेष्ठी महीधर के पौत्र और रत्नपाल के पुत्र थे। उनकी माता का नाम खेतल था। खेतल देवी के पांच पुत्र थे। उनमें जिनप्रभसूरि बीच के थे। नाम उनका सेहड़पाल (सुभटपाल) था।

*जीवन-वृत्त*

जिनप्रभसूरि बचपन से ही समझदार थे। अपने भाइयों में वे सबसे अधिक योग्य थे। एक बार श्रेष्ठी रत्नपाल के परिवार से जिनसिंहसूरि का परिचय हुआ। उन्होंने पांच पुत्रों में बीच के पुत्र को धर्मसंघ हितार्थ समर्पित करने के लिए रत्नपाल को कहा। गुरु के निर्देशानुसार श्रेष्ठी रत्नपाल ने अपने पुत्र की भेंट उनके चरणों में चढ़ा दी। जिनसिंहसूरि इससे प्रसन्न हुए। वीर निर्वाण 1796 (विक्रम संवत् 1326) में बालक को मुनि दीक्षा प्रदान की। किढ़वाणानगर में विक्रम संवत् 1341 में उनको आचार्यपद पर नियुक्त किया तथा अपने गण का दायित्व सौंपा। उनका नाम जिनप्रभ रखा गया।

जिनप्रभुसूरि ने अपने गुरु के उत्तराधिकार को कुशलता पूर्वक संभाला। धर्म प्रचार में वे विशेष प्रयत्नशील बने। उनके पास चामत्कारिक विद्याएं थीं। दिल्ली के बादशाह के समक्ष उन्होंने कई चमत्कार दिखाए। बादशाह की सभा में किसी साईं फकीर द्वारा टोपी को आकाश में चढ़ाना और जैन संत द्वारा प्रेषित रजोहरण से टोपी को पीटते हुए नीचे लाने की घटना जिनप्रभसूरि से संबंधित है। जन-श्रुति के अनुसार यह प्रसंग तपागच्छ के आचार्य हीरविजयजी के साथ अधिक प्रसिद्ध है।

बादशाह मुहम्मद तुगलक को धर्म बोध देने और उन्हें जैनधर्म का अनुरागी बना लेने का श्रेय भी जिनप्रभसूरि को है। जिनप्रभसूरि का बादशाह मुहम्मद तुगलक की सभा में सम्मान पूर्वक स्थान था। उन्होंने बादशाह मुहम्मद तुगलक से कई बार अमारि की घोषणा करवाई। इस कार्य से जैनधर्म की प्रभावना हुई। बादशाहों को प्रतिबोध देने की श्रृंखला में जिनप्रभसूरि का नाम संभवतः सर्वप्रथम है।

*जनहितैषी आचार्य जिनप्रभ द्वारा रचित साहित्य एवं उनके आचार्यकाल के समय-संकेत* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।

🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡

📜 *श्रंखला -- 104* 📜

*कालूरामजी जम्मड़*

*अनौचित्य को प्रश्रय नहीं*

कालूरामजी अपने विचारों के अत्यंत दृढ़ व्यक्ति थे। अन्य कोई क्या कहता है या क्या करता है, इससे वे तनिक भी प्रभावित नहीं होते थे। वे प्रायः देखते कि उसके कहने या करने में कुछ औचित्य भी है या नहीं? यदि उन्हें इसमे कोई औचित्य दृष्टिगत नहीं होता तो वे उसे किसी भी मूल्य पर प्रश्रय नहीं देते। धार्मिक क्षेत्र में तो वे अतिरिक्त सावधानी रखते।

संवत् 1968 के ग्रीष्मकाल की घटना है। यति संप्रदाय के श्रीपूज्य बीकानेर से सरदारशहर आए। उनके पदार्पण तथा नगर प्रवेश की कुछ खास परंपराएं थीं। प्रमुख जैन नागरिकों और पंचों को उनकी अगवानी में उपस्थित होना पड़ता था। जब वे चलते तब नगर प्रवेश से लेकर ठहरने के स्थान तक उनके आगे-आगे पांतिया या दरी बिछाई जाती थी। वे उस पर पैर रखकर ही चलते थे। श्रीपूज्य वहां पहुंचे तब सभी प्रमुख व्यक्ति तथा पंच उनके स्वागत में उपस्थित हुए। कालूरामजी को भी निमंत्रित किया गया था, पर वह नहीं गए। वे साधना-प्रधान जैन-संतों के लिए उक्त राजसी प्रकार को उचित नहीं मानते थे।

नगर प्रवेश करते समय श्रीपूज्यजी ने जिज्ञासा की— "सभी लोग आ गए हैं या कोई अवशिष्ट है?" उन्हें बताया गया— "अन्य सभी तो आ गए हैं, परंतु एक कालूरामजी जम्मड़ नहीं आए। वे कहते हैं कि राजाओं की तरह पांतियों पर चलने वाले व्यक्ति साधु नहीं हो सकते।"

श्रीपूज्यजी को उनका नहीं आना तो अखरा ही, साथ में उनकी उक्त टिप्पणी ने तो अग्नि में घी का कार्य किया। वे प्रज्वलित हो उठे। वे मंत्र विद्या विशारद थे। कहते हैं उन्होंने मंत्र प्रयोग किया और कहा— "मैं भी देखता हूं कि हमारे से टेढ़े चलकर वे कितने दिनों तक जीवित रहते हैं?"

कालूरामजी को श्रीपूज्यजी के उक्त कथन का पता चला तो कहने लगे— "यह क्रोध भी तो उनकी ऐसा असाधुता का ही द्योतक है। मंत्र विद्या के प्रयोग से वे मुझे मार सकते हैं, परंतु उससे उनकी साधुता कि नहीं, असाधुता की ही पुष्टि होगी। मैं मर सकता हूं, पर ऐसे असंतजनों को तनिक भी प्रश्रय देना पसंद नहीं करता।" कहा जाता है कि उक्त घटना के दस दिन पश्चात् ही संवत् 1938 ज्येष्ठ की अमावस्या को वे दिवंगत हो गए। निर्भय रहकर गर्वोन्नत हिंसा का सामना करते हुए वे टूट गए, पर झुके नहीं। ऐसे स्थिरचेता व्यक्ति ही धर्मसंघ के गौरव को समुन्नत करने वाले होते हैं।

*गंगाशहर निवासी श्रावक लाभूरामजी चोपड़ा के प्रेरणादायी जीवन-वृत्त* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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आचार्य श्री महाश्रमण
प्रवास स्थल
माधावरम, चेन्नई

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*गुरवरो धम्म-देसणं*

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आचार्य प्रवर के
मुख्य प्रवचन के
कुछ विशेष दृश्य

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कार्यक्रम की
मुख्य झलकियां

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दिनांक:
19 अक्टूबर 2018

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प्रस्तुति:
🌻 *संघ संवाद* 🌻

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*आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत प्रवचन का विडियो:

*अपने बारे में अपना दृष्टिकोण: वीडियो श्रंखला ३*

👉 *खुद सुने व अन्यों को सुनायें*

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Helpline No. 8233344482

संप्रेषक: 🌻 *संघ संवाद* 🌻

👉 प्रेक्षा ध्यान के रहस्य - आचार्य महाप्रज्ञ

प्रकाशक - प्रेक्षा फाउंडेसन

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