06.12.2018 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 06.12.2018
Updated: 07.12.2018

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👉 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत प्रवचन का विडियो:
*मन की समस्या: वीडियो श्रंखला ३*

एक *प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लेकर देखें*
आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*

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👉 प्रेक्षा ध्यान के रहस्य - आचार्य महाप्रज्ञ
*मातृका-न्यास: क्रमांक-१*

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👉 *न्यूजर्सी*: अमेरिका में *लोगस्स का महाअनुष्ठान*
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙

📝 *श्रंखला -- 487* 📝

*प्रज्ञापुरुष जयाचार्य*

*जीवन-वृत्त*

गतांक से आगे...

जयाचार्य के ज्येष्ठ भ्राता स्वरूपचंदजी स्वामी की दीक्षा भी उसी वर्ष वीर निर्माण 2339 (विक्रम संवत् 1869) पौष शुक्ला नवमी को जयपुर में आचार्य भारमलजी द्वारा संपन्न हुई थी। दोनों भाइयों की दीक्षा से जयाचार्य के द्वितीय ज्येष्ठ भ्राता भीमराजजी का मन भी वैराग्य की ओर झुका। जयाचार्य की माता कल्लूजी पहले से दीक्षा के लिए तैयार थीं। इन दोनों की दीक्षा भी इसी वर्ष फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन आचार्य भारमलजी द्वारा संपन्न हुई। पौने दो माह की अवधि में आईदानजी के परिवार से चार दीक्षाएं हुईं। जयाचार्य का पूरा परिवार ही तेरापंथ धर्मसंघ में समर्पित हो गया। तेरापंथ धर्मसंघ को यह विशिष्ट उपलब्धि थी एवं उज्जवल भविष्य का शुभारंभ था।

हेमराजजी स्वामी तेरापंथ धर्मसंघ के विशिष्ट आगमविज्ञ संत थे। उनके पास लगभग बारह वर्ष तक रहकर जयमुनि ने विविध योग्यताओं का अर्जन किया। आगमों का गंभीर अध्ययन कर उन्होंने आगमविज्ञ मुनियों में विशिष्ट स्थान पाया। जयमुनि की प्रतिभा को प्रकृति का वरदान था। उन्होंने ग्यारह वर्ष की उम्र में 'सन्त गुणमाला' कृति की रचना की एवं अट्ठारह वर्ष की उम्र में 'पन्नवणा' जैसे गंभीर ग्रंथ का राजस्थानी भाषा में पद्यानुवाद किया।

जयमुनि का कद छोटा था पर उनके कार्य महान् थे। उनका वर्ण श्याम था परंतु विचारों में शशि की भांति उज्जवलता और निर्मलता थी। उनका दीप्तिमान ललाट और ओजस्वी मुखमण्डल प्रथम बार में ही व्यक्ति को प्रभावित कर लेता था और उनके जीवन व्यवहार में सधे हुए योगी की सी गंभीरता थी।

जयमुनि की मानसिक एकाग्रता विलक्षण थी। पाली में वीर निर्वाण 2345 (विक्रम संवत् 1875) में जयमुनि बाजार के मध्य किसी एक दुकान में बैठे लेखन कार्य कर रहे थे। उनके ठीक सामने नृत्य मंडली द्वारा नाटक का कार्यक्रम प्रस्तुत किया जा रहा था। सैकड़ों लोग उस कार्यक्रम को देखने में मग्न थे। निकट दुकान पर बैठे हुए 15 वर्षीय बाल मुनि का मन एक क्षण के लिए भी उस मनोरंजक कार्यक्रम को देखने के लिए विचलित नहीं हुआ। दर्शक मंडली में खड़े एक वृद्ध व्यक्ति का ध्यान बाल मुनि की स्थिरता पर केंद्रित था। कार्यक्रम की संपन्नता पर उसने लोगों से कहा "तेरापंथ की नीव सौ वर्ष तक सुदृढ़ जम गई। जिस संघ में ऐसे निष्ठावान् स्थिरयोगी मुनि हों उस संघ की उम्र सौ वर्ष से कम नहीं हो सकती। कोई भी व्यक्ति उसका अनिष्ट नहीं कर सकता।"

साहस और बुद्धि संस्कारगत होते हैं। जयाचार्य के पास अतुल बुद्धि और असीम साहस था।

द्वितीयाचार्य भारमलजी द्वारा अपने उत्तराधिकारी के रूप में दो नामों का उल्लेख करने पर मुनि जय ने ही पूज्यश्री से एक नाम रखने का निवेदन किया था। जयाचार्य की उस समय अट्ठारह वर्ष की अवस्था थी पर उनकी विनम्र प्रार्थना में शतवर्षीय वृद्धावस्था का अनुभव था। भारमलजी स्वामी ने बाल मुनि की बात पर विशेष ध्यान दिया और एक ही नाम पत्र में रखा।

*मुनि जय की अपने गुरु के प्रति अनन्य भक्ति* के बारे में पढ़ेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।

🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡

📜 *श्रंखला -- 141* 📜

*जालमचंदजी पटावरी*

*बिना मिले वापस*

जालमचंदजी के चचेरे भाई नानूरामजी बंगाल में थे। उस समय तक व्यापार के निमित्त पुरुष ही बंगाल आदि दूरस्थ प्रदेशों में जाया करते थे। पत्नी आदि परिवार को साथ नहीं ले जाते थे। नानूरामजी की पत्नी मोमासर में ही थी। संयोगवश वह रुग्ण हो गई। जालमचंदजी उन दिनों मोमासर में ही थे। उन्होंने ध्यान देकर कई उपचार करवाए, परंतु वह ठीक नहीं हुई।

एक दिन नानूरामजी के मित्र गजराजजी शर्मा भाभी को साता पूछने आ गए। बात ही बात में उन्होंने कहा— "आप कहें तो नानू भाई को समाचार लिख कर बुला दूं।" भाभी ने स्वीकृति दे दी तो गजराजजी ने उनके लंबे समय से रुग्ण होने का पूरा विवरण लिख भेजा और उन्हें तत्काल आने का सुझाव दिया। पत्नी की लंबी रुग्णता के समाचार पाकर नानूरामजी उसी दिन गाड़ी चढ़ गए।

मोमासर आने वालों को उन दिनों राजलदेसर और श्री डूंगरगढ़ के बीच में स्थित परसनेऊ स्टेशन पर उतरना पड़ता था। वहां से कच्चे मार्ग से ऊंटों पर आना होता था। स्टेशन से आए किसी व्यक्ति ने जालमचंदजी को सूचना दी कि नानूरामजी स्टेशन से यहां पहुंचने ही वाले हैं। सेठ ने कहा— "तुम्हें कोई भ्रम हुआ है। नानू तो कुछ महीने पहले ही बंगाल गया है। इतना शीघ्र वापस आने का कोई कारण दिखाई नहीं देता। दूसरी बात यह भी है कि यहां से बुलावे का कोई समाचार उसे नहीं भेजा गया है और न उसने अपने आने का कोई समाचार हमें भेजा है।" गजराजजी शर्मा वहीं बैठे थे। उन्होंने कहा— "भाभी से पूछ कर भाई को समाचार तो मैंने लिखे थे, परंतु यह गलती मेरे से अवश्य हो गई कि मैंने आपको नहीं पूछा।" बाहर के व्यक्ति से पत्र लिखवा कर पति को बुलाने से उनके नेतृत्व की जो अवज्ञा हुई उससे खिन्न होकर जालमचंदजी ने कहा— "पत्नी के निमंत्रण पर जो इस प्रकार दौड़ेगा वह काम कर क्या निहाल करेगा?" सेठ के अप्रसन्नता भरे शब्दों को सुनकर शर्माजी धूज गए। वे चुपके से वहां से उठे और पैदल ही स्टेशन की ओर चल दिए। वे थोड़ी दूर ही गए थे कि स्टेशन से आते हुए नानूरामजी उन्हें मिल गए। शर्माजी ने सेठ साहब की अप्रसन्नता के शब्द उनको सुनाए तो वे भी असमंजस में पड़ गए। उस स्थिति में घर जाने का साहस नहीं जुटा पाए और वहीं से वापस परसनेऊ जाकर प्रथम ट्रेन से बंगाल चले गए। जालमचंदजी को जब पता चला कि भाई गांव-बाहर तक आकर चला गया तो उन्हें अपने द्वारा कहे गए शब्दों का बड़ा अनुताप हुआ। वे सोचने लगे कि मैं नहीं बोलता तो भाई अपनी पत्नी तथा परिवार से मिलकर जाता। इस घटना से यह ज्ञात हो जाता है कि जालमचंदजी का पूरे परिवार पर एक दबदबा था। चचेरे भाई तक उनके संकेत की लक्ष्मण-रेखा को लांघने का साहस नहीं कर सकते थे।

*जालमचंदजी पटावरी के पुत्र व पुत्रवधू की सजोड़े दीक्षा व पूज्य आचार्यश्री कालूगणी द्वारा उनको पूछे गए एक वाक्य में प्रेरणादायी संकेत* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

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👉 *आज के विहार के कुछ मनोरम दृश्य..*

दिनांक: 06/12/2018

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