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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙
📝 *श्रंखला -- 492* 📝
*प्रज्ञापुरुष जयाचार्य*
*साहित्य*
गतांक से आगे...
इतिहास लेखन में जयाचार्य का अनुपम अनुदान है। उन्होंने जैन इतिहास के साथ तेरापंथ के इतिहास को भी बहुत समृद्ध किया। 'भिक्षु जस रसायन' ग्रंथ में स्वामीजी के केवल गुणानुवाद ही नहीं अपितु विविध दृष्टांतों के आधार पर तात्विक विवेचन भी है। इतिहास लिखने की यह सुंदर परंपरा तेरापंथ धर्मसंघ में जयाचार्य ने स्थापित की। उन्होंने अनेक साधु-साध्वियों तथा श्रावक-श्राविकाओं के जीवन चरित्र भी लिखे।
'भिक्षु दृष्टांत' संस्मरणात्मक साहित्य है। संस्मरणों की भाषा सरल एवं प्रसाद गुण युक्त है।
उपदेश कथाकोष, कथा साहित्य का अनुपम ग्रंथ है। इसमें लोककथाओं, पौराणिक कथाओं तथा ऐतिहासिक कथाओं का विशाल संग्रह है। शिक्षात्मक सूक्तों से कथाएं सरस एवं उपयोगी हो गई हैं। ये दोनों रचनाएं जयाचार्य के बहुमुखी ज्ञान की सूचक हैं।
जयाचार्य के साहित्य में आधुनिक शोध पद्धति के दर्शन होते हैं। आचार्य भिक्षु के साहित्य में प्रतिपादित विषयों को आगमिक आधार से पुष्ट कर उनकी रचनाओं को जयाचार्य ने शोध-ग्रंथ का रूप दिया। यह उनकी तुलनात्मक अध्ययन पद्धति एवं अनुसंधानात्मक प्रवृत्ति का उपक्रम एवं साहित्य के क्षेत्र में नई परंपरा का सूत्रपात था। सिद्धांत सार उनका एक विशाल शोध-ग्रंथ है।
जयाचार्य उच्चकोटि के भाष्यकार थे। उन्होंने आचार्य भिक्षु की अनेक रचनाओं पर भाष्य लिखा। उनका आगम वाणी पर भाष्य-साहित्य मर्मस्पर्शी है। जो युग-युग तक जैनागम के विद्यार्थी के लिए आलोक-स्तंभ का कार्य करता रहेगा।
जयाचार्य की स्वाध्याय साधना अतुल थी। जीवन के अंतिम आठ वर्षों में उन्होंने लगभग 86,67,470 गाथाओं का स्वाध्याय किया।
*समय-संकेत*
जयाचार्य आगमस्नातप्रज्ञा के धनी थे। उन्होंने 68 वर्ष के मुनि काल में 30 वर्ष तक आचार्य पद के दायित्व का कुशलता पूर्वक वहन किया।
जैन धर्म में संयमी जीवन का जितना महत्त्व है उससे अधिक महत्त्व पंडित-मरण का है। जैन शासन की प्रभावना करते हुए जयाचार्य ने सुंदर ढंग से संयमी जीवन जीया। उन्होंने अंतिम क्षणों को संवारा। वे प्रतिक्षण जागरूक थे। देह-शक्ति क्षीण होने का आभास होते ही उन्होंने अनशन स्वीकार किया। पूर्ण जागरूक अवस्था में तीन हिचकी के साथ उनकी आंख खुली और उसी मुद्रा में जयाचार्य का स्वर्गवास वीर निर्वाण 2408 (विक्रम संवत् 1938) भाद्रव कृष्णा द्वादशी को हुआ। जयपुर के रामनिवास बाग में उनका दाह संस्कार हुआ। जयपुर नरेश रामसिंहजी जयाचार्य के परम भक्त थे।
*मंगलप्रभात आचार्य मघवागणी और आचार्य माणकगणी के प्रभावक चरित्र* के बारे में पढ़ेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।
🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡
📜 *श्रंखला -- 146* 📜
*घमंडीरामजी महता*
*एक मण्डली*
घमंडीरामजी महता को लंबी परंपरा के संस्कार प्राप्त हुए थे, अतः उनकी धार्मिकता सहज ही दृढ़ता और संस्कार-शीलता लिए हुए थी। धर्मसंघ की उन्नति की आकांक्षा उनके मन में सदैव हिलोरें लिया करती थी। जब कभी अवसर आता वे उसके लिए अपनी सेवाएं देने को तत्पर रहा करते थे। उनके समय में जसोल में कुछ समवयस्कों की एक पूरी की पूरी मंडली थी, जो कि उच्च धार्मिक संस्कारों और सेवा भावना से संपन्न थी। उस सहज संगठित मंडली के सदस्य जहां सामाजिक कार्यों में एकमत होकर कार्य करते वहां आध्यात्मिक जागृति के कार्यों में भी सामूहिक भाग लेकर दूसरों के लिए मार्गदर्शन करते। साधु-साध्वियों की सेवा में जाना होता तब भी वे लोग प्रायः आगे रहा करते थे। आचार्यश्री डालगणी और कालूगणी के युग में उन लोगों ने काफी सेवाएं की थीं।
*सफल वकील*
घमंडीरामजी तत्कालीन जोधपुर राज्य के सुप्रसिद्ध वकीलों में गिने जाते थे। वे जोधपुर और आबू दोनों ही स्थानों पर वकालत किया करते थे। दोनों ही स्थानों पर उनकी वकालत अच्छी चला करती थी। लोगों में उनके प्रति सम्मान की भावना थी और वे लोगों में आस्था रखने वाले व्यक्ति थे। अच्छी आजीविका, अच्छा व्यवहार और अच्छी धार्मिकता ये तीनों बातें एक स्थान पर प्रायः दुर्लभ ही होती हैं, परंतु महताजी में वे प्रयाग में त्रिवेणी की तरह सहज ही प्राप्य थीं।
*कवि भी*
घमंडीरामजी का कविता करने की ओर भी रुझान था। अन्य सभी गृहस्थी के कार्य करते हुए भी जिस प्रकार वे अपनी रुचि होने के कारण धार्मिक कार्यों तथा अनुष्ठानों के लिए समय निकाल लिया करते थे, वैसे ही कविता के लिए भी यदा-कदा समय निकाल ही लेते थे। उनकी कविताओं में मुख्यतः धार्मिक गीतकाएं ही हुआ करती थीं, जो की स्वयं की भाव विशुद्धि के साथ-साथ औरों के लिए भी प्रेरणादायी बन सकती थीं।
कभी-कभी घमंडीरामजी का मनोभाव विनोद करने का होता तब वे अपने समवयस्कों की खिल्ली उड़ाने वाले दोहे और सोरठे बनाने से भी नहीं चूकते। उनको वे सबके सम्मुख सुनाया करते और फिर सामूहिक आनंद लूटा करते। इस विषय में वे अपने घनिष्ठ मित्र तथा समधी भैरजी सालेचा को सर्वाधिक लक्ष्य बनाया करते थे। अपनी घनी दाढ़ी तथा उनकी विरल दाढ़ी को लेकर तो न जाने कितने ही प्रकार के व्यंग करते रहते थे। भैरजी भी उनके व्यंगों में पूरा रस लिया करते तथा समय-समय पर बराबर की चोट भी करते रहते।
संवत् 1974 में घमंडीरामजी का देहावसान हो गया। समाज को लंबे समय तक एक सहृदय, विनोदी एवं धार्मिक व्यक्ति का अभाव खटकता रहा।
*जसोल के सेवापरायण श्रावकों में से एक भैरजी सालेचा का प्रेरणादायी जीवन-वृत्त* के बारे में जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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दिनांक: 12/12/2018
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