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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙
📝 *श्रंखला -- 498* 📝
*मंगलप्रभात आचार्य मघवागणी*
*और*
*आचार्य माणकगणी*
*जीवन-वृत्त*
*माणकगणी*
गतांक से आगे...
मघवागणी के स्वर्गवास के बाद माणकगणी ने वीर निर्वाण 2419 (विक्रम संवत् 1949) में आचार्य पद का दायित्व संभाला। उस समय उनकी अवस्था 38 वर्ष की थी। चैत्र शुक्ला 8 के दिन आचार्य पद महोत्सव उल्लास के साथ मनाया गया।
माणकगणी के जीवन में कई विरल विशेषताएं थीं। उनका कद लंबा था, गर्दन भी लंबी थी। वे लंबी यात्रा करना पसंद करते थे। एक साथ वे सात कोस (मारवाड़ी कोस) का विहार आसानी से कर लेते थे। उनकी डग लंबी थी। सामान्य आदमी की तीन डग जमीन को माणकगणी दो ही डग में माप लेते थे।
हरियाणा वासियों को पूर्वाचार्यों की अपेक्षा माणकगणी का सान्निध्य अधिक प्राप्त हुआ।
माणकगणी का चिंतन रूढ़ परंपरा पोषित नहीं था। उनके द्वारा धर्मसंघ में नए उन्मेष आने की संभावनाएं थीं। आचार्य पद पर उन्होंने पांच चातुर्मास किए। सरदारशहर, चूरू, जयपुर, बीदासर इन चार क्षेत्रों के चातुर्मास माणकगणी के धर्म प्रचार की दृष्टि से बड़े प्रभावक रहे। माणकगणी का वीर निर्वाण 2424 (विक्रम संवत् 1954) का चातुर्मास सुजानगढ़ में था। वह चातुर्मास आपका अंतिम चातुर्मास था। महामनस्वी माणकगणी का 42 वर्ष की अल्पायु में अप्रत्याशित रूप से स्वर्गवास होने के कारण युवाचार्य की नियुक्ति माणकगणी ने नहीं की।
संघ विकास की दृष्टि से उन्होंने अपना समय उन क्षेत्रों में अधिक दिया जहां पूर्वाचार्यों का कम विराजना हुआ।
मघवागणी एवं माणकगणी दोनों के शासनकाल में तेरापंथ धर्मसंघ का चतुर्मुखी विकास हुआ एवं जैन धर्म की प्रगति हुई।
*समय-संकेत*
मघवागणी एवं माणकगणी दोनों पुण्यवान् एवं भाग्यशाली आचार्य थे। उनके आचार्यकाल में सर्वत्र शांति का वातावरण बना रहा। मघवागणी 11 वर्ष की उम्र में मुनि बने। जयाचार्य द्वारा 24 वर्ष की उम्र में उनकी युवाचार्य पद पर नियुक्ति हुई। उन्होंने 11 वर्ष आचार्य पद का कुशलतापूर्वक दायित्व संभाला। मर्यादा महोत्सव संपन्न होने के बाद वीर निर्वाण 2419 (विक्रम संवत् 1949) में चैत्र शुक्ला पंचमी के दिन अनशन की स्थिति में पूर्ण समाधि में क्षणों में मघवागणी का तेरापंथ की राजधानी सरदारशहर में स्वर्गवास हुआ। तेरापंथ धर्मसंघ में उस समय 71 साधु एवं 193 साध्वियां थीं।
माणकगणी ने 16 वर्ष की उम्र में संयम दीक्षा ग्रहण की। धर्मसंघ को आचार्य अवस्था में मात्र साढे़ चार साल तक आपका मार्गदर्शन प्राप्त हुआ। प्रगतिशील माणकगणी का स्वर्गवास वीर निर्वाण 2424 (विक्रम संवत् 1954) में हुआ।
मघवागणी और माणकगणी का आगमन मानवता के मंगल प्रभात का आगमन था।
*व्याख्यान वाचस्पति आचार्य विद्यानन्द (आत्माराम) के प्रभावक चरित्र* के बारे में पढ़ेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।
🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡
📜 *श्रंखला -- 152* 📜
*रूपचंदजी सेठिया*
*त्यागमय जीवन*
श्रावक रूपचंदजी का समग्र जीवन एक त्यागमय जीवन के ज्वलंत कहानी था। उनके जीवन की छोटी-बड़ी हर क्रिया त्याग की प्रकाश-धारा से नहाई हुई थी। बालवय से ही वे धर्मानुरागी थे। यद्यपि तत्कालीन प्रथा के अनुसार उनका विवाह दस वर्ष की बाल्यावस्था में कर दिया गया था। फिर भी उनमें उनकी अत्यासक्ति कभी नहीं हुई। जब वे 32 वर्ष की पूर्ण युवावस्था में थे तभी पति-पत्नी दोनों ने साधना के रूप में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन प्रारंभ कर दिया। पांच वर्षों तक लगातार साधना कर लेने के पश्चात् संवत् 1960 में जब आचार्य डालगणी का चातुर्मास सुजानगढ़ में हुआ तब उनके पास प्रकट रूप में जीवन पर्यंत के लिए पूर्ण ब्रह्मचर्य का संकल्प कर लिया।
चलने-फिरने तथा खाने-पीने से लेकर उनके जीवन का हर व्यवहार संयमित था। हर कार्य में वे पुर्ण विवेक रखते वे। प्रायः नीची दृष्टि किए हुए देखकर चलते। शौच के लिए प्रायः बाहर अचित्त भूमि में जाते। लघु शंका की निवृत्ति भी अचित्त तथा सूखी भूमि देखकर करते। भोजन में झूठा नहीं छोड़ते। कोई कितना ही स्वादिष्ट पदार्थ क्यों न होता तथा कोई उसके लिए उनसे कितना ही आग्रह क्यों न करता, पर वे अपनी मात्रा से अधिक बिल्कुल नहीं लेते। यदि वे स्वयं किसी को परोसते तो जताए बिना अधिक नहीं डालते।
पहले कुछ वर्षों तक वे भोजन के लिए चांदी की थाली तथा कटोरियों का प्रयोग करते थे। परन्तु बाद में उन्हें वह अपनी सादगी के लक्ष्य से विपरीत अनुभव होने लगा। तब पत्थर की थाली और कटोरी का प्रयोग करने लगे। भोजनोपरांत हाथ धोते समय थाली और कटोरी को भी दो लेते और वह पानी भी पी जाते।
वे रूई भरा वस्त्र न ओढ़ते-पहनते थे और न बिछाते थे। सर्दी में भी 23 हाथ से अधिक कपड़ा रात को काम में नहीं लेते थे। दिन तथा रात में अपने उपयोग में आने वाले वस्त्रों का उनका प्रमाण 59 हाथ था।
प्रतिदिन सामायिक तथा दोनों समय प्रतिक्रमण किया करते थे। कहीं दूसरे गांव जाने का अवसर होता तो मार्ग में भी प्रतिक्रमण के समय सवारी से उतर जाते और शुद्ध जगह देखकर प्रतिक्रमण करते। प्यास उन्हें कुछ अधिक लगा करती थी, फिर भी निरंतर चौविहार किया करते। संवत् 1972 के बाद उन्होंने रेल पर चढ़ने का परित्याग कर दिया। उसके बाद जहां भी जाते 'बहली' से जाया करते। मरणासन्न स्थिति में भी विदेशी औषधि लेने का त्याग था। पारण के सिवा शेष सदैव प्रहर दिन के बाद ही भोजन करते।
वे अचित्त पानी ही पिया करते थे। उसे प्रातः सायं दोनों समय छनवाते। इतना ही नहीं उनके सारे घर का पानी भी दोनों समय छाना जाता था। हवेली चिनवाई गई उसमें जितना भी पानी लगा, वह सारा छानकर ही काम में लिया गया।
उनमें अतुलनीय पाप भीरुता थी। छोटे से छोटे कार्य में भी पूरी सावधानी बरतते और विवेक से काम लेते। सचित्त वस्तु के स्पर्श से वे प्रायः स्वयं को बचाते रहते। मार्ग में यदि कोई सचित्त वस्तु पड़ी होती तो वे उससे बच कर निकलते। नख आदि कटवाते तो उन्हें धूल में नीचे गड़वा देते। ताकि चावल समझ कर भूल से खा लेने पर किसी पंखी के गले में अटक न जाए। घर में घृत, तेल, चासनी, पानी आदि को उघाड़ा नहीं रहने देते। किसी भी मीठी वस्तु के टपके कहीं गिर जाते तो उन्हें अचित्त पाने से तत्काल धुलवाकर साफ करवा देते।
*डालगणी के कृपापात्र सुजानगढ़ के श्रावक रूपचंदजी सेठिया के उन्नत संस्कारों* के बारे में जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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दिनांक: 19/12/2018
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