22.12.2018 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 23.12.2018
Updated: 23.12.2018

News in Hindi

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙

📝 *श्रंखला -- 501* 📝

*अज्ञान तिमिरनाशक आचार्य डालगणी*

डालगणी तेरापंथ धर्मसंघ के सातवें आचार्य थे। वे आगम मर्मज्ञ, शास्त्रार्थ निपुण, तार्किक प्रतिभा के धनी, कष्टसहिष्णु, दृढ़संकल्पी, उग्रपाद विहारी, अनंत मनोबली एवं महान् आचार्य थे। दीप्तिमान भाल, विकस्वर नयन, गंभीर दृष्टि एवं बुलंद स्वर उनके बाह्य व्यक्तित्व के असाधारण गुण थे। उनका अंतरंग व्यक्तित्व भी अनेक विशेषताओं से संपन्न था। स्वयं के कर्तृत्व ने उनके व्यक्तित्व में विलक्षण क्षमताओं को विकास दिया। उन्होंने कच्छ में लंबे समय तक विहरण कर धर्म सरिता को प्रवाहित करने का कठिन श्रमसाध्य कार्य किया।

*गुरु-परंपरा*

डालगणी की दीक्षा जयाचार्य के निर्देश से मुनिश्री हीरालालजी द्वारा हुई। जयाचार्य की सन्निधि में ज्ञानार्जन किया। जयाचार्य के बाद मघवागणी से उन्होंने नाना प्रकार की शिक्षाएं प्राप्त कीं। वे छठे आचार्य माणकगणी के उत्तराधिकारी बने। मघवागणी, माणकगणी की जो गुरु-परंपरा है वही डालगणी की है। तेरापंथ धर्मसंघ में सब आचार्यों की एक ही गुरु-परंपरा है।

*जन्म एवं परिवार*

डालगणी का जन्म ओसवाल परिवार में वीर निर्वाण 2379 (विक्रम संवत् 1909) आषाढ़ शुक्ला चतुर्थी को हुआ। भारत की ऐतिहासिक नगरी उज्जयिनी को उनकी जन्म भूमि होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनके पिताश्री का नाम कनीरामजी एवं माता का नाम जड़ावांजी था। उनका गोत्र पीपाड़ा था।

*जीवन-वृत्त*

डालगणी का जन्म धार्मिक परिवार में हुआ। पिता का वात्सल्य उनको अधिक समय तक नहीं मिला। उनकी बाल्यावस्था में ही कानीरामजी का देहावसान हो गया। मां जड़ावांजी ने ही पिता और माता दोनों का दायित्व कुशलता से निभाया। अत्यंत स्नेह से बालक का पालन-पोषण किया। धार्मिक संस्कार उनको अपनी माता से प्राप्त हुए।

जड़ावांजी धार्मिक महिला थीं। पति के देहावसान के बाद जड़ावांजी का मन भोग प्रधान जीवन से विरक्त हो गया। सांसारिक व्यवहारों को वह कर्तव्य के साथ निभा रही थीं। बालक डालचंद के जीवन का एक दशक पूरा हुआ। दूसरा दशक प्रारंभ हुआ। इस उम्र में हर बालक समझदार हो जाता है। जड़ावांजी को पुत्र के पालन-पोषण की अब उतनी चिंता नहीं थी, जितनी पहले थी। अतः पारिवारिक जनों के संरक्षण में पुत्र की व्यवस्था कर जड़ावांजी संयम ग्रहण करने की तैयारी में लगीं। गुरुदेव के आदेश की प्रतीक्षा थी, वह प्राप्त हुआ। पूर्ण वैराग्य के साथ जड़ावांजी ने साध्वी गोमांजी से विक्रम संवत् 1920 में पेटलावद में संयम दीक्षा ग्रहण की।

मां जड़ावांजी की दीक्षा ने पुत्र डालचंद को संयमी जीवन ग्रहण करने हेतु उत्सुक बनाया। बालक की वैराग्य भावना दिन-प्रतिदिन वृद्धिंगत होती गई। परिवार वालों ने उनको इस त्याग पथ से विचलित करने का प्रयास किया। डालचंद अपने निर्णय में दृढ़ रहा। इंदौर में डालचंद को मुनिश्री हीरालालजी की उपासना का अवसर मिला। अपनी भावना बालक डालचंद ने मुनिश्री के सामने प्रकट की। उनसे तात्त्विक ज्ञान का प्रशिक्षण पाया। बालक की योग्यता से मुनिश्री हीरालालजी प्रभावित हुए। परिवार वालों को भी डालचंद की भावना के सामने अनुमति देनी पड़ी। जयाचार्य आदेश से मुनिश्री हीरालालजी ने वीर निर्वाण 2393 (विक्रम संवत् 1923) में भाद्रव कृष्णा द्वादशी को संयमोत्सुक बालक को भगवती दीक्षा प्रदान की। मां जड़ावांजी की दीक्षा इससे तीन वर्ष हुई थी।

*डालमुनि के संयमी जीवन* के बारे में पढ़ेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।

🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡

📜 *श्रंखला -- 155* 📜

*रूपचंदजी सेठिया*

*अंतिम समय*

रूपचंदजी जैसे अध्यात्म-प्रेमी और शासन-भक्त श्रावक थे, अंतिम समय में भी उन्हें उसी के अनुरूप धर्म का सहयोग मिला। संवत् 1983 के फाल्गुन महीने में अष्टमाचार्य कालूगणी का सुजानगढ़ में पदार्पण हुआ। उन दिनों रूपचंदजी रुग्ण थे। आचार्यश्री स्थंडिल भूमि से वापस आते समय प्रायः दोनों समय ही दर्शन दिया करते थे। प्रातःकाल में तो कई बार वहां विराज कर उन्हें सेवा भी कराते थे। फाल्गुन शुक्ला 7 संध्या को जब आचार्यश्री तथा मुनि मगनलालजी आदि उन्हें दर्शन देकर वापस स्थान पर पधारे तब बालचंदजी बैंगानी आदि उपस्थित श्रावकों को फरमाया कि रूपचंदजी का शरीर टिकना अब कठिन लगता है, अतः अंतिम समय में उन्हें धर्म का सहाय मिले तो ठीक रहे। आचार्यश्री की उस भावना के आधार पर कुछ श्रावक रात को उनके वहां गए। उस समय उनके श्वास का वेग अधिक था। श्रावकों ने उन्हें धर्म-ध्यान की प्रेरणा देते हुए कहा कि आप को त्याग प्रत्याख्यान तो काफी हैं ही, किंतु इस अवस्था में कुछ विशेष करने की भावना हो तो यह अच्छा अवसर है।

रूपचंदजी ने उनकी भावना को समझते हुए कहा— "आप लोग मुझे धर्म का सहाय देते हैं, यह उचित ही है। संथारे का विचार तो अभी मेरा है नहीं।"

कुछ देर धार्मिक ढालें आदि सुनाकर श्रावकगण वापस आ गए। रूपचंदजी अपने विषय में पूर्ण सावधान थे। आधी रात के लगभग उन्होंने पास में बैठे व्यक्तियों से कहा कि अब मुझे नीचे सुला दो। जब उन्हें नीचे सुला दिया गया तब सबके सम्मुख उन्होंने अरहंत, सिद्ध और गुरु की साक्षी से यावज्जीवन के लिए चतुर्विध आहार का त्याग कर संथारा ग्रहण कर लिया। लगभग एक घंटा पांच मिनट का संधारा प्राप्त कर रात्रि के एक बजने के कुछ देर बाद ही उनका देहांत हो गया। लगभग दो बजे कालूगणी नींद से अचानक उठकर विराज गए और मुनि मगनलालजी को जगाकर फरमाया कि रूपचंदजी का शरीरांत हो गया है, ऐसा मालूम पड़ता है। मुनि मगनलालजी ने पूछा— "क्या कोई व्यक्ति अभी आया है?" आचार्यश्री ने कहा कि नहीं आदमी तो कोई नहीं आया, परंतु अभी-अभी सारा स्थान एक साथ जोर से प्रकाशित हो उठा था, अतः मेरा यह अनुमान है। उक्त बातचीत के थोड़ी देर पश्चात् ही उनके दिवंगत होने की सारी जानकारी देने के लिए वहां से कई व्यक्ति आ गए। इस प्रकार श्रावक रूपचंदजी अपनी 60 वर्ष की अवस्था में एक आदर्श श्रावक का उदाहरण प्रस्तुत कर गए। उन्होंने पांच आचार्यों के समय को देखा और बड़ी लगन से सबकी सेवा में लगे रहे।

*अपने नाम के अनुरूप स्वभाव वाले सरदारशहर के श्रावक सम्पतरामजी दूगड़ के प्रेरणादायी जीवन-वृत्त* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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दिनांक: 22/12/2018

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