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👉 प्रेरणा पाथेय:- आचार्य श्री महाश्रमणजी
वीडियो - 16 जनवरी 2019
प्रस्तुति ~ अमृतवाणी
सम्प्रसारक 🌻 *संघ संवाद* 🌻
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙
📝 *श्रंखला -- 517* 📝
*कमनीय कलाकार आचार्य कालूगणी*
*समय के पारखी*
गतांक से आगे...
डॉ. हर्मन जेकोबी के अतिरिक्त इतालवी विद्वान् डॉ. एल. पी. टैसिटोरी, प्रो. ग्लेंसी, शिकागो के डॉ. गिल्की आधी विदेशी विद्वान् तथा जयपुर के रेजिडेंट पीटरसन, आबू के ए. जी. जी. के. जी. आर. हॉलैंड आदि राजकीय क्षेत्र से संबंधित व्यक्ति आचार्य कालूगणी के संपर्क में आए एवं उनके प्रवचनों से प्रभावित हुए। उन्हें आचार्य देव से धर्म विषयक कई बातों की विशेष अवगति मिली।
बाव (गुजरात) के राणा ने कालूगणी के दो बार दर्शन किए। गुरुदेव की सौम्य मुद्रा एवं अध्यात्म साधना ने राणाजी को मंत्रमुग्ध बना दिया। राणाजी की प्रार्थना पर बाव क्षेत्र में साधु-साध्वियों के चातुर्मास होने लगे।
आचार्य कालूगणी के शासनकाल में बीकानेर के महाराजा गंगासिंहजी के साथ भी तेरापंथ धर्मसंघ का घनिष्ठ संबंध बना।
उदयपुर के महाराणा भोपालसिंहजी ने भी विक्रम संवत् 1992 में फतेहसिंहजी की बाड़ी में कालूगणी के दर्शन किए। गुरुदेव की पावन सान्निध्य पाकर उन्हें प्रसन्नता हुई।
कालूगणी राजा-महाराजाओं, प्रशासकों, नरेशों, ठाकुरों तथा सत्ताधारी व्यक्तियों के ही नहीं थे, अपितु सामान्य स्थिति के व्यक्ति भी आपके चरणों में बैठकर जीवन की समस्याओं को सुलझाया करते थे।
कालूगणी के पास मुनि पृथ्वीराजजी, मुनि फौजमलजी, मुनि छबीलजी, मुनि घासीरामजी, मुनि चौथमलजी, मुनि सोहनलालजी, मुनि नथमलजी आदि वाद-कुशल, सिद्धांतों के विशिष्ट ज्ञाता, संस्कृत के धुरंधर विद्वान् प्रभावी मुनियों की मंडली थी। साध्वीप्रमुखाश्री जेठांजी एवं झमकूजी के अतिरिक्त साध्वी गंगाजी, रायकंवरजी आदि व्याख्यानी, चर्चावादी, तत्त्वज्ञा, आगम-विशेषज्ञा तथा शास्त्रार्थ करने में निपुण एवं साहसी साध्वियां भी थीं।
कालूगणी ने अपने कार्यक्रमों से धर्मसंघ को तेजस्विता प्रदान की। जिससे उनके युग में अध्यात्म की व्यापक प्रभावना हुई। तेरापंथ धर्मसंघ मुख्य संप्रदाय के रूप में गिना जाने लगा।
कालूगणी का जीवन अनेकांत दर्शन का उदाहरण था। वे विनम्र होते हुए भी स्वाभिमानी थे। पापभीरु होते हुए भी अभय थे। अनुशासन की प्रतिपालना में दृढ़ होते हुए भी सौम्य स्वभावी थे। आगमों के प्रति अगाध आस्थाशील होते हुए भी प्रगतिगामी विचारों के धनी थे। वे जैन धर्म की प्रभावना में अनवरत जागरूक थे।
*कमनीय कलाकार आचार्य कालूगणी के महाप्रयाण व उनके आचार्य-काल के समय-संकेत* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।
🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡
📜 *श्रंखला -- 171* 📜
*लालचंदजी पारख*
*अपनी दुकान, अपनी कमाई*
लालचंदजी ने उसी बाजार में एक छोटी दुकान किराए पर ली और अपना स्वतंत्र काम करने लगे। वे अपनी क्षमता के अनुरूप थोड़ा-थोड़ा कपड़ा लाते और बेचते। जब काम कुछ जमा तो उन्होंने अपने पास एक लड़के को नौकर भी रख लिया। उसे दस रुपया महीना देते। जब वह पांच-सात महीनों में अच्छी तरह कार्य सीख जाता तब स्वयं ही प्रयास करके उसे स्वतंत्र कहीं नौकरी लगवा देते और फिर अपने पास किसी दूसरे लड़के को रख लेते। इस प्रकार उन्होंने न जाने कितने ओसवाल बालकों को कार्यक्षम बनाया और काम दिलवाया। इसमें उन्होंने दो लाभ देखे थे। प्रथम यह कि वे दस रुपयों से अधिक मासिक व्यय देकर अपनी बचत को कम करना नहीं चाहते थे। द्वित्तीय लाभ यह था कि काम सीखे हुए हर बालक को आगे प्रगति करने के अनेक अवसर उपलब्ध हो सकते थे। इनके अतिरिक्त सहज ही उन्हें यह तीसरा लाभ भी प्राप्त हो जाया करता था कि वे लड़के जहां भी रहते वहां यदि उनका कोई काम होता तो सर्वप्रथम उसे ही करते।
उन्होंने दीपावली के अवसर पर अपनी दुकान प्रारंभ की थी। रामनवमी तक के पांच महीनों में साढे़ तीन हजार का लाभ अर्जित किया। यह लाभ उनके लिए बहुत बड़ा था। क्योंकि नौकरी में उन्हें केवल पच्चीस रुपए मासिक मिलते थे। पच्चीस रुपयों से सात सौ पर पहुंच जाना प्रगति के मार्ग पर उनकी लंबी छलांग ही माननी चाहिए। इस प्रकार उन्होंने कुछ ही वर्षों में अपनी सूझबूझ के द्वारा अच्छी आर्थिक प्रगति कर ली।
उनकी सफलता का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह भी था कि वे अपने वचन के बड़े पक्के थे। जिस किसी के यहां से माल खरीदते उससे पहले ही निर्णीत रूप में कह देते कि अमुक दिन तक रुपए चुका दूंगा। फिर उसमें कोई चूक नहीं होने देते। चाहे जैसे भी हो वादे से एक दिन पूर्व वे रुपए अवश्य वहां पहुंचा देते। बाजार में उनकी बात का विश्वास ऐसा पक्का जम गया कि लोग उन्हें माल देने में कभी संकोच नहीं करते थे।
कुछ अर्से के पश्चात् उन्होंने अपनी बचत की रकम तथा मित्रों के सहयोग से प्राप्त रकम के आधार पर एक बड़ी दुकान ले ली और बड़े पैमाने पर कार्य प्रारंभ कर दिया। व्यापारिक सूझबूझ अच्छी थी। जो भी कार्य करते, पूरी निष्ठा और साहस के साथ करते। समय का सहयोग भी अच्छा मिला। फलस्वरूप शीघ्र ही धनिक व्यक्तियों की पंक्ति में आ गए। कुछ ही वर्षों में तो वे अपने बाजार के प्रमुख व्यवसायी गिने जाने लगे।
*'मारवाड़ी चेंबर ऑफ कॉमर्स' व्यापारिक संस्था की स्थापना व उसके अंतर्गत मामलों के सलटाव* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
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