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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।
🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡
📜 *श्रंखला -- 181* 📜
*बालचंदजी कठोतिया*
*पांच गांठों का मूल्य*
एक बार बालचंदजी ने पाट की पांच सौ गांठें एक अंग्रेज मिल को बेचीं। उनमें भूल से पांच गांठें मध्यम कोटि की चली गईं। आगे जब माल खोलकर देखा गया तो संयोग से पहली तीन गांठें वे ही खोली गईं जो मध्यम कोटि की थीं। अंग्रेज निरीक्षक जब उस माल पर क्लेम करने लगा तो दलाल ने, जो की स्वयं अंग्रेज ही था कहा— "उनका माल खराब आए यह नहीं हो सकता। माल चढ़ाने का उतारने वालों की ही कहीं गलती हुई है।" दलाल ने तत्काल फोन पर उनसे बात की और सारी स्थिति बतलाई। बालचंदजी ने जब अपने यहां तहकीकात की तो पता लगा कि भूल से मध्यम कोटि की पांच गांठें वहां चली गई हैं। वे स्वयं तत्काल वहां पहुंचे और गांठें खोलकर देखने के लिए कहा। लगभग पचास गांठें खोलने पर भी जब कोई खराब माल नहीं निकला तब उस अंग्रेज निरीक्षक को विश्वास हो गया कि दलाल जो कुछ कह रहा था वह ठीक था। जब किसी प्रकार का क्लेम नहीं करके उनके माल का वह पूरा मूल्य चुकाने लगा तो उन्होंने लेने से इंकार कर दिया। उन्होंने बताया कि हमारे माल में पांच गांठें मध्यम आ गई हैं, अतः उनका मूल्य अन्य माल के समान हम नहीं ले सकते। आखिर उन पांच गांठों का मूल्य कम लगाकर ही उन्होंने पैसे लिए।
*कुछ परवाह नहीं*
एक बार उनकी एक प्रेस में किसी कारण से आग लग गई। उसमें काफी माल जल गया तो काफी खराब भी हो गया। बालचंदजी उस समय सुजानगढ़ में थे। समाचार प्राप्त होते ही वे कलकत्ता पहुंचे। माल का बीमा करवाया हुआ था, अतः जो जल चुका था उसका घाटा तो पूरा हो जाने वाला था, परंतु आग बुझाते समय जो माल भीगकर खराब हो गया वस्तुतः वही चिंता का विषय था। बीमा कंपनी का मैनेजर उनका मित्र था, अतः कई व्यक्तियों का सुझाव रहा कि जले तथा भीगे हुए माल का मूल्य बीमा कंपनी से लिया जाए। बालचंदजी ने उस सुझाव को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने केवल जले हुए माल के आंकड़े ही दिए और उसी का यथोचित मूल्य प्राप्त किया। शेष माल का घाटा उन्होंने स्वयं वहन किया। वे अपनी बातचीत में बहुधा 'कुछ परवाह नहीं' वाक्यांश का प्रयोग बहुलता से किया करते थे। वास्तविकता भी यही थी कि वे कठिन से कठिन परिस्थिति में भी किसी की कोई परवाह किए बिना अपने साहस के बल पर काम संपन्न कर लिया करते थे।
*एक झगड़ा*
एक बार की बात है कलकत्ता के सुप्रसिद्ध सेठ दूलीचंदजी के फारबिसगंज मुकाम के आदमी पाट खरीदने के लिए हाट बाजार में गए हुए थे। इधर बालचंदजी के आदमी भी उसी काम से गए हुए थे। दोनों में पाट खरीदने के सिलसिले में परस्पर कुछ कहा-सुनी हो गई। फिर वह उग्र रूप लेकर मारपीट तक पहुंच गई।
बालचंदजी प्रायः अपने व्यक्तियों को दो बातें कहा करते थे। प्रथम यह कि चाहे लाख रुपए ही क्यों न लग जाएं, किंतु अपनी बात को नीचे मत गिरने दो। दूसरी यह कि संयोगवश किसी के साथ झगड़ा हो जाए तो मार खाकर नहीं किंतु मार देकर ही आना चाहिए। उनके इसी सिद्धांतानुसार इन लोगों ने सेठ दूलीचंदजी के आदमियों की काफी मरम्मत कर डाली। उन लोगों ने इन पर फौजदारी मुकद्दमा चालू कर दिया।
बालचंदजी को जब सारी घटना का पता लगा तो उन्हें काफी दुःख हुआ। सेठ दूलीचंदजी उनके मित्र थे। उन्होंने तत्काल अपने अनुज जेसराजजी को सेठ के पास भेजा और कहलवाया कि कहीं ऐसा न हो कि नौकरों की लड़ाई में हम स्वयं उलझ जाएं।
सेठ दूलीचंदजी को जब यह पता चला कि वे बालचंदजी के आदमी थे तो उन्होंने अपने व्यक्तियों को मुकद्दमा उठाने का निर्देश देकर बात को यहीं समाप्त कर दिया।
*सुजानगढ़ के श्रावक बालचंदजी कठोतिया की अनुशासनप्रियता* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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दिनांक: 30/01/2019
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