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🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन
👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला ३३* - *मानसिक स्वास्थ्य और प्रेक्षाध्यान ११*
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आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*
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👉 *मैत्री मृत्यु के साथ: श्रंखला १*
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👉 प्रेरणा पाथेय:- आचार्य श्री महाश्रमणजी
वीडियो - 1 फरवरी 2019
प्रस्तुति ~ अमृतवाणी
सम्प्रसारक 🌻 *संघ संवाद* 🌻
News in Hindi
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙
📝 *श्रंखला -- 529* 📝
*'वैराग्यमूर्ति' आचार्य वीरसागरजी*
आचार्य वीरसागरजी दिगंबर परंपरा के आचार्य थे। वे गंभीर विचारक और बाल ब्रहमचारी थे। वे गृहस्थ जीवन में भी अपना अधिकांश समय जिन भक्ति, पूजा-पाठ और स्वाध्याय योग में बिताते। मुनि जीवन में उन्होंने शांतिसागरजी की परंपरा को अधिक गतिमान बनाया एवं दिगंबर धर्मसंघ का विविध रूपों में विकास किया।
*गुरु-शिष्य-परंपरा*
वीरसागरजी के गुरु शांतिसागरजी थे। शांतिसागरजी के नेमीसागरजी, चंद्रसागरजी, पायसागरजी, कुन्थुसागरजी, सुधर्मसागरजी, वर्धमानसागरजी आदि कई शिष्य थे। उनमें वीरसागर प्रमुख थे। शांतिसागरजी की गुरु परंपरा आचार्य कुन्दकुन्द एवं मूल संघ से संबंधित है।
*जन्म एवं परिवार*
वीर सागर जी का जन्म हैदराबाद स्टेट औरंगाबाद जिले के अंतर्गत वीरग्राम में वीर निर्वाण 2402 (विक्रम संवत् 1932) आषाढ़ी पूर्णिमा को हुआ। वे जाति से खंडेलवाल थे। उनका गोत्र गंगवाल था। उनके पिता श्रेष्ठी रामसुखजी थे। गृहस्थ में उनका नाम हीरालाल था।
*जीवन-वृत्त*
वीरसागरजी के माता-पिता धार्मिक वृत्ति के थे, अतः उन्हें सहज धार्मिक संस्कार प्राप्त हुए। उम्र वृद्धि के साथ धार्मिक रूचि बढ़ गई। वे स्वाध्याय आदि प्रवृत्तियों में अधिक रस लेते थे। वे सांसारिक कामों में उदासीन रहते। माता-पिता ने उनका विवाह करना चाहा पर उन्होंने अस्वीकार कर दिया। इस समय उनकी अवस्था 16 वर्ष की थी। संयोग से चाह के अनुसार बालक को राह मिल गई। एक दिन एलक श्री पन्नालालजी महाराज से उनको व्रत ग्रहण करने की प्रेरणा प्राप्त हुई। वीरसागरजी ने उनसे उस समय सप्तम प्रतिमा व्रत स्वीकार किया।
बच्चों को धार्मिक संस्कार देने के लिए उन्होंने निःशुल्क पाठशाला प्रारंभ की। इससे बालक-बालिकाओं में जैनधर्म के संस्कारों का विकास हुआ। वीरसागरजी की श्रमशीलता के कारण यह पाठशाला निरंतर गति करती रही। वीरसागरजी के शिष्य शिवसागरजी इसी पाठशाला के विद्यार्थी थे।
*'वैराग्यमूर्ति' आचार्य वीरसागरजी की दीक्षा, मुनि जीवन व उनके आचार्यकाल के समय-संकेत* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।
🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡
📜 *श्रंखला -- 183* 📜
*बालचंदजी कठोतिया*
*खुले द्वार*
बालचंदजी धन कमाने में जितने निपुण थे उतने ही व्यय करने में भी। कंजूसी उनके पास कभी नहीं फटक पाती थी। अपने तथा अपने परिवार की सुख-सुविधा के लिए व्यय करने वाले अनेक मिल जाएंगे, किंतु समाज में जिन व्यक्तियों से अपना सीधा संबंध न हो उनके लिए पूरी उदारता बरतने वाले व्यक्ति अंगुली-गणनीय ही मिलेंगे। बालचंदजी वैसे व्यक्तियों में से ही थे। अपने समाज के व्यक्तियों को आगे बढ़ाने तथा व्यापार में जमाने का उनका पूरा प्रयास रहता था। उनका बासा उन सभी ओसवालों के लिए सदैव खुला रहता था जो कार्य नियमित कलकत्ता जाते, किंतु भोजन तथा निवास का व्यव उठाने में क्षम नहीं होते थे। वे लोग दिनभर स्वतंत्र रूप से अपना कार्य करते और स्नान, भोजन तथा शयन आदि उनके वहीं किया करते थे। उन लोगों का व्यक्तिगत सामान कठोतियों की गद्दी में ही रहा करता था।
*ऊनी थान*
एक बार बाजार में वे घरेलू आवश्यकता के लिए कपड़ा खरीदने के लिए गए। एक दुकान पर ऊनी कपड़ा पसंद किया। दुकानदार के पास उसके तीस-पैंतीस थान बचे हुए पड़े थे, अतः उसे वह माल निकालना ही था। उसने भी बिकने का अच्छा अवसर देखा। वह बोला— "सेठ साहब! यदि यह सारे थान आप खरीद लें तो मैं मूल भाव में दे सकता हूं।"
उनको यद्यपि इतनी आवश्यकता नहीं थी। वे तो केवल एक आध धान खरीदने के लिए ही वहां गए थे, किंतु दुकानदार ने जब इतनी आशा भरी मुद्रा में उनसे कहा तो उन्होंने उसे निराश नहीं किया। सारे थान खरीद कर उन्होंने अपने मुनीमों तथा नौकरों में एक-एक पोशाक एवं एक-एक दोवड़ बनवाकर बांट दिए। शेष बचे हुए थान सुजानगढ़ में अपनी माता के पास इसलिए भेज दिए कि वे उन्हें वहां बांट दें। उनकी माता भी उनकी ही तरह दूसरों को सहयोग देने में रुचि रखने वाली उदार महिला थीं।
*चतुर मिस्त्री*
वे खाने तथा खिलाने के बहुत शौकीन थे। जहां की जो चीज अच्छी बनती वहां से वे उसे मंगाते रहते थे। वे न केवल अपने साथियों को ही, किंतु छोटे से छोटे कर्मकर को भी खिला कर प्रसन्न होते थे। एक बार सुजानगढ़ में उनके यहां चेजा चल रहा था। किसी दिन अवसर निकाल कर वे स्वयं कार्य को देखने गए। घूम-फिर कर सारा कार्य देखने के पश्चात् उन्होंने मिस्त्री से पूछा— "क्यों सब कुछ ठीक चल रहा है?" मिस्त्री चतुर आदमी था। वह उनके उदार स्वभाव से परिचित था, अतः कहने लगा— "काम तो सब ठीक ही चल रहा है, किंतु आज ठंड अधिक होने के कारण शायद सभी को शीघ्र भूख लग गई है, अतः कुछ ढीले-ढीले दिखाई देते हैं।" बालचंदजी उसका तात्पर्य समझ गए और तत्काल बाजार से मिठाई मंगाकर उन सब में बंटवा दी।
*सुजानगढ़ के श्रावक बालचंदजी कठोतिया की खिलाने व बांटने की प्रवृत्ति* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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दिनांक: 01/02/2019
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