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🧘♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘♂
🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन
👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला ९४* - *कार्य कौशल और प्रेक्षाध्यान ११*
एक *प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लेकर देखें*
आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*
प्रकाशक
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🌻 *संघ संवाद* 🌻
👉 दालखोला - ज्ञानशाला द्वारा तेरापंथ भवन में कार्यक्रम आयोजित
👉 जयपुर - आध्यात्मिक मिलन
👉 मुम्बई - "महिलाओं का संस्कार निर्माण में योगदान" विषय पर निबंध प्रतियोगिता का आयोजन
👉 बेहाला कोलकाता - होली स्नेह मिलन सतरंगी कार्यक्रम आयोजित
प्रस्तुति: 🌻 *संघ संवाद* 🌻
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👉 दिल्ली - *अणुव्रत महासमिति कार्यसमिति की पंचम बैठक का आयोजन*
प्रस्तुति: 🌿 *अणुव्रत सोशल मीडिया*🌿
संप्रसारक - 🌻 *संघ संवाद* 🌻
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👉 दिल्ली - *अणुव्रत महासमिति के प्रबंध मंडल की पंचम बैठक का आयोजन*
प्रस्तुति: 🌿 *अणुव्रत सोशल मीडिया*🌿
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 10* 📜
*ऐतिहासिक काल*
*श्वेताम्बर और दिगम्बर*
वीर निर्वाण के 609 वर्ष पश्चात् दिगम्बर सम्प्रदाय की स्थापना हुई, ऐसी श्वेताम्बर परंपरा की मान्यता है। दिगम्बरों का कथन है कि विक्रम नृप की मृत्यु के 136 वर्ष पश्चात् अर्थात् वीर निर्वाण के 606 वर्ष पश्चात् श्वेताम्बर सम्प्रदाय का जन्म हुआ। दोनों सम्प्रदाय अपने को मूल और दूसरे को अपनी शाखा मानकर चलते हैं। कौन मूल है तथा कौन शाखा है, यह अनुसंधान का विषय है। शब्दों की दृष्टि से श्वेताम्बर और दिगम्बर, ये दोनों ही परस्पर सापेक्ष हैं। इनमें किसी एक का नामकरण होने के पश्चात् ही दूसरे के नामकरण की आवश्यकता प्रतीत हुई होगी। दोनों ही नामों में वस्त्र को प्रधानता दी गई है, अतः सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि परस्पर अन्य कितने ही मतभेद क्यों न रहे हों, परंतु सम्प्रदाय-भेद का मुख्य कारण सचेलत्व-अचेलत्व का प्रश्न ही रहा था।
भगवान् महावीर ने अपने संघ में सचेल और अचेल दोनों ही प्रकार के श्रमणों को समान रूप से स्थान दिया था। अचेल मुनि जिनकल्पिक और सचेल ने स्थविरकलपिक कहलाते थे। उनके प्रभावक व्यक्तित्व का पोष पाकर संयम की भूमिका पर उगा हुआ श्रमण-संघ का वह वृक्ष समन्वय के अपने प्रकांड पर चिरकाल तक दोनों ही शाखाओं को समान रूप से धारण करता रहा।
महावीर निर्वाण के पश्चात् उक्त अभेध बहुत लंबा नहीं चल सका। जम्बू स्वामी के निर्वाण प्राप्त होने के साथ ही भेद-वृत्ति पनपने के संकेत मिलते हैं। उनके निर्वाणकाल से ही साधना की जिन दस विशेष अवस्थाओं का लोप माना गया है, उनमें एक जिनकल्पिक अवस्था भी है। संभव है, अंतरंग में पनप रहे द्वैध की वह प्रथम घोषणा रही हो। उसके कुछ वर्ष पश्चात् दशवैकालिक में आचार्य शय्यम्भव का यह स्पष्टीकरण दें कि ज्ञातपुत्र महावीर ने संयम और लज्जा के निमित्त वस्त्र धारण को परिग्रह नहीं कहा है, उन्होंने तो मूर्च्छा को परिग्रह कहा है– उसी भेद रेखा का और अधिक स्पष्टता के साथ संकेत करता है। इतना होते हुए भी उस समय वह मतभेद अंदर ही अंदर चलता रहा प्रतीत होता है।
बाहर उस मतभेद की स्पष्ट अभिव्यक्ति तब हुई जबकि आचार्य भद्रबाहु की अनुपस्थिति में वीर निर्वाण 160 के लगभग पाटलीपुत्र में महासम्मेलन बुलाया गया और उसमें ग्यारह अंगों का संकलन किया गया। वह वाचना सबको पूर्ण मान्य नहीं हो सकी। उससे पूर्व परस्पर में केवल आचार संबंधी मतभेद भी चलता था, परंतु उसके पश्चात् श्रुत संबंधी मतभेद भी चालू हो गया। इतना होने पर भी दोनों परंपराएं ज्यों-त्यों साथ-साथ चलती रहीं। कालांतर में जब मतभेदों का दबाव इतना अधिक हो गया कि साथ-साथ चल पाना असंभव हो गया, तब वीर निर्वाण 606 (ईस्वी सन् 79) में जैन श्रमण-संघ का एकत्व श्वेताम्बर और दिगम्बर के द्वित्व में परिणत हो गया।
*चैत्यवासी, संविग्न और लोंकामत संप्रदायों की स्थापना* के बारे में जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
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🧘♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘♂
🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन
👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला ९३* - *कार्य कौशल और प्रेक्षाध्यान १०*
एक *प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लेकर देखें*
आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*
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