04.04.2019 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 07.04.2019
Updated: 08.04.2019

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🧘‍♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘‍♂

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👉 प्रेरणा पाथेय:- आचार्य श्री महाश्रमणजी
वीडियो - 4 अप्रैल 2019

प्रस्तुति ~ अमृतवाणी
सम्प्रसारक 🌻 *संघ संवाद* 🌻

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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।

🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞

📜 *श्रृंखला -- 11* 📜

*ऐतिहासिक काल*

*चैत्यवासी और संविग्न*

जैन धर्म में सुव्यवस्था के लिए प्रारंभ में अनेक गणों की व्यवस्था थी। भगवान् के समय में नौ गण थे। उनके पश्चात् भी पृथक्-पृथक् आचार्यों के नाम से पृथक्-पृथक् गण या गच्छ चलते रहे थे, परंतु वे सब परस्पर अविरोधी थे, उनमें कोई मतभेद अथवा विग्रह नहीं था। वीर निर्वाण 882 में चैत्यवासी संप्रदाय की स्थापना हुई। उसके साथ ही दूसरा पक्ष संविग्न, सुविहितमार्गी या विधिमार्गी कहलाया। फलस्वरूप श्वेताम्बर मुनिगण दो विभागों में विभक्त हो गया।

चारित्रिक शिथिलता का प्रारंभ तो आर्य सुहस्ती से ही हो गया था, परंतु संप्रदाय रूप में उसकी व्यवस्थित स्थापना उक्त प्रकार से वीर निर्वाण की नौवीं शताब्दी में हुई। उस समय शिथिलाचार के कारण कुछ मुनि उग्र विहार छोड़कर मंदिरों के परिपार्श्व में रहने लगे। धीरे-धीरे उन्होंने अपना बल बढ़ाया। वीर निर्वाण की दसवीं शताब्दी तक उनके संप्रदाय का कोई प्राबल्य नहीं था। देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के दिवंगत होते ही उनका बल बढ़ गया। उन्होंने विद्या-बल और राज्य-बल दोनों के द्वारा उग्र विहारी श्रमणों पर पर्याप्त प्रहार किया। वे लोग मठाधीश बन कर तो रहने ही लगे, साथ ही वैद्यक, निमित्त-कथन तथा मंत्र, डोरा, ताबीज आदि भी करने लगे। सुविहितमार्गी मुनियों ने उनके शिथिलाचार के विरुद्ध लंबे समय तक अपना अभियान चालू रखा। आचार्य हरीभद्र ने *'सम्बोधप्रकरण'* में, आचार्य जिनवल्लभ ने *'संघ-पट्टक'* में और आचार्य जिनपति ने उसकी टीका में चैत्यवासियों के शिथिलाचार पर प्रबल प्रहार किए हैं।

*लोंकामत*

विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में लोंकाशाह ने आचार की कठोरता के पक्ष को प्रबल किया। उन्होंने व्यर्थ के क्रियानुष्ठानों, कुसंस्कारों आदि को मिटाने का प्रयास किया। मूर्ति-पूजा के वे प्रबल विरोधी थे। कबीर आदि ने मूर्ति-पूजा का विरोध प्राचीन शास्त्रों को छोड़कर केवल आत्मानुभव के आधार पर किया था, परंतु लोंकाशाह ने इस कार्य में प्रधानतः प्राचीन शास्त्रों का ही आश्रय लिया। ऐसा अभिमत है कि वे कुछ समय तक कबीर के समकालीन थे।

कुछ लोगों की मान्यता है कि लोंकाशाह ने स्वयं दीक्षित होकर धर्म-प्रचार किया था, तो कुछ उसके विपरीत यह मानते हैं कि वे अंत तक गृहस्थ ही रहे थे। दोनों ही धारणा वाले व्यक्ति इस बात पर एकमत हैं कि उन दिनों उनके मंतव्यों का प्रचार बड़े जोरों से हुआ था। कहा जाता है कि उन्हीं दिनों तीर्थ यात्रा के लिए जाता हुआ कोई संघ अहमदाबाद में ठहरा। उसके अनेक व्यक्ति लोंकाशाह के संपर्क में आए। उन्हीं में से पैंतालीस व्यक्ति प्रतिबुद्ध हुए और उन सबने विक्रम संवत् 1531 में (कुछ के मतानुसार 1533 में) एक साथ दीक्षा ग्रहण की। तभी से उनके गच्छ का नाम 'लोंकागच्छ' हुआ। कुछ लोग उनके धर्म को 'दया-धर्म' भी कहते हैं। जितने वेग से लोंकामत का प्रसार हुआ, उतने ही वेग से छिन्न-भिन्न भी हो गया। केवल तीस वर्ष की अवधि में ही उसमें अनेक शाखाएं हो गईं। मूलतः लोंकामत का संघीय पक्ष प्रारंभ से ही निर्बल रहा। उसकी सम्यक् व्यवस्था कभी हो ही नहीं पाई।

*स्थानकवासी व तेरापंथ सम्प्रदायों के उद्भव* के बारे में जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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👉 *मैं मनुष्य हूँ: श्रंखला १*

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