05.04.2019 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 07.04.2019
Updated: 08.04.2019

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👉 प्रेरणा पाथेय:- आचार्य श्री महाश्रमणजी
वीडियो - 5 अप्रैल 2019

प्रस्तुति ~ अमृतवाणी
सम्प्रसारक 🌻 *संघ संवाद* 🌻

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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।

🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞

📜 *श्रृंखला -- 12* 📜

*ऐतिहासिक काल*

*स्थानकवासी*

लोंकाशाह के अनुयायियों में आगे चलकर लवजी मुनि हुए। उन्होंने विक्रम संवत् 1709 में 'ढूंढिया' संप्रदाय का उद्भव किया। कालांतर में इस संप्रदाय की एक शाखा के आचार्य धर्मदासजी विक्रम संवत् 1716 में दीक्षित हुए। उनके निन्यानवे शिष्य हुए। आचार्य धर्मदासजी के दिवंगत होने पर वे सब बाईस शाखाओं में विभक्त हो गए। फलस्वरुप उनकी शिष्य-परंपरा 'बाईसटोला' नाम से प्रसिद्ध हुई। अब तक उक्त परंपरा की सत्रह शाखाओं का पूर्णतः लोप हो चुका है। शेष पांच शाखाओं में भी साधुओं की संख्या नगण्य रह गई है, फिर भी यह नाम इतना प्रचलित हुआ कि ढूंढिया संप्रदाय की समग्र शाखाओं को लोग इसी नाम से पहचानने लगे।

'स्थानकवासी' नाम अपेक्षाकृत अर्वाचीन है, परंतु वर्तमान में यही अधिक प्रचलित है। यह नाम संभवतः तब प्रचलित हुआ, जब इस संप्रदाय के मुनि स्थानकों में रहने लगे। सुप्रसिद्ध विद्वान् आचार्य क्षितिमोहनसेन का इस विषय में यह अभिमत है— 'बाद में जब लोगों में ठीक रूप से उनकी प्रतिष्ठा हो गई, तब इस संप्रदाय के लोग भिन्न-भिन्न जगहों में अड्डे जमाने लगे और सांप्रदायिक वैभव खड़ा होने लगा। क्रमशः उनको 'स्थानक-दोष' स्पर्श करने लगा। इसलिए उन्हें 'स्थानकवासी' कहने लगे।

*तेरापंथ*

स्थानकवासी संप्रदाय में से तेरापंथ का उद्भव हुआ। आचार्य धर्मदासजी के बाईस शिष्यों में से एक धन्नोजी थे। उनके तृतीय पट्ट पर आचार्य रघुनाथजी हुए। तेरापंथ के प्रवर्तक आचार्य भीखणजी ने उन्हीं के पास दीक्षा ग्रहण की थी। उन्होंने संघ के आचार-विचार को आगमों के कषोपल पर कस कर देखा तो अनेक अपूर्णताएं मिलीं। संगठन के अभाव ने भी उनके मन को झकझोरा। फलस्वरूप विक्रम संवत् 1817 आषाढ़ पूर्णिमा के दिन तेरापंथ की स्थापना हुई। आदि में तेरह साधु तथा तेरह ही श्रावक थे, अतः इसका नाम तेरापंथ पड़ गया। स्वामीजी ने उस नाम को स्वीकार करते हुए उसका अर्थ किया— 'हे प्रभो! यह तेरापंथ है।'

स्वामी भीखणजी ने श्रमण-संघ के जिस सुदृढ़ स्वरूप का स्वप्न देखा था, उसे उन्होंने तेरापंथ में मूर्त रूप दिया। आचार-शुद्धि बनाए रखने के लिए उन्होंने अनेक मर्यादाएं कीं। आगमानुमोदित विचारों की स्थापना के लिए उन्होंने आगम-मंथन किया और अनेक नए तथ्यों का उद्घाटन किया। संगठन की दृढ़ता के लिए उन्होंने व्यक्तिगत शिष्य-प्रथा को समाप्त किया और समूचे संघ के लिए एक ही आचार्य का होना मान्य रखा। थोड़े ही दिनों में एक आचार्य, एक आचार और एक विचार के लिए तेरापंथ अन्य श्रमण-संघों के लिए अनुकरणीय बन गया।

*दिगम्बर संप्रदाय में भी शिथिलाचार के विरुद्ध क्रांति में परिणत एक शाखा का नाम 'तेरापंथ' है* उसके बारे में जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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