06.04.2019 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 07.04.2019
Updated: 08.04.2019

News in Hindi

👉 औरंगाबाद - साध्वीवृन्द का आध्यात्मिक मिलन
👉 गुडियातम - मुनिश्री का तेरापंथ भवन में प्रवेश
👉 दुबई: U.A.E.- ‘know your power - अपनी शक्ति को जाने' कार्यशाला का आयोजन
👉 जयपुर शहर - महिला मंडल द्वारा गोल्डन बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड
👉 विराटनगर - महिला मंडल द्वारा दो दिवसीय स्वर्ण जयंती "स्वर्णिम उड़ान" समारोह का आयोजन

प्रस्तुति: *🌻संघ संवाद 🌻*

Source: © Facebook

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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।

🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞

📜 *श्रृंखला -- 13* 📜

*ऐतिहासिक काल*

*दिगम्बर तेरापंथ*

श्वेताम्बरों के समान दिगम्बरों में भी अनेक शाखाएं हुईं। उनमें एक शाखा का नाम 'तेरापंथ' है। वह भी शिथिलाचार के विरुद्ध एक क्रांति का ही परिणाम है। दिगम्बर परंपरा में भी जब शिथिलाचार व्याप्त होने लगा, तब मुनिजन उग्र विहार छोड़ कर मठवासी बनने लगे। जो 'भट्टारक' शब्द पूज्य तथा आदरणीय अर्थ में दिगम्बराचार्यों के नाम के साथ उपाधि के रूप में जोड़ा जाता था, कालांतर में वह किसी मठ या मंदिर से संबद्ध मुनि के लिए रूढ़ हो गया। मठवास की यह प्रवृत्ति चौथी-पांचवी शती से बढ़ने लगी। परंपरानिष्ठ साधु उनके शैथिल्य से बड़े असंतुष्ट थे। उन्होंने यथासमय तीव्रता से उनका विरोध किया। फलस्वरूप उनमें दो संघ हो गए— वनवासी और चैत्यवासी। वे दोनों क्रमशः मूल-संघ और द्रविड़-संघ के नाम से प्रसिद्ध हुए।

देवसेन कृत *'दर्शनसार'* के मतानुसार पूज्यपाद देवनंदी के शिष्य वज्रनंदी ने द्रविड़ संघ की स्थापना विक्रम संवत् 526 में की। उसके पश्चात् उसका बल बढ़ता गया और ग्यारहवीं शती तक पहुंचते-पहुंचते प्रायः सभी प्रमुख आचार्य मठाधीश हो गए। भट्टारक संप्रदाय के वे आचार्य न केवल मठादि की व्यवस्था ही करते, अपितु उनकी संपत्ति का भी उपभोग करने लगे। राजगुरु होकर वे छत्र, पालकी, सुखासन आदि द्वारा एक प्रकार से राज-वैभव-संपन्न हो गए। उनकी प्रवृत्तियां प्रायः श्वेताम्बर चैत्यवासियों के समान ही कही जा सकती हैं। तेरहवीं शताब्दी में भट्टारक वसंतकीर्ति ने अपवादवेष के रूप में कभी-कभी वस्त्र धारण करने की परंपरा भी प्रचलित की थी।

श्वेताम्बरों में जिस प्रकार लोंकाशाह ने मूर्ति-पूजा को अमान्य किया, उसी प्रकार दिगम्बर परंपरा में तारणस्वामी (विक्रम संवत् 1505 से 1572) ने भी मूर्ति को अमान्य घोषित किया। उन्होंने 'तारण-तरण-समाज' की स्थापना की। वह समाज चैत्यालय के स्थान पर 'सरस्वती-भवन' बनाता और मूर्ति के स्थान पर शास्त्रों को विराजित करता, परंतु उसका बल अधिक नहीं बढ़ सका। भट्टारकों की सत्ता पर उसका कोई अधिक प्रभाव नहीं पड़ा। वे परिग्रह से अधिकाधिक संबद्ध होते गए। कुछ तो मंत्र, ज्योतिष, वैद्यक आदि में ही अपना बहुत-सा समय लगाने लगे।

*भट्टारकों के शैथिल्य पर प्रतिक्रिया व 'दिगम्बर तेरापंथ' के उदय* उसके बारे में जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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जैन धर्म के आदि तीर्थंकर *भगवान् ऋषभ की स्तुति* के रूप में श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में समान रूप से मान्य *भक्तामर स्तोत्र,* जिसका सैकड़ों-हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन श्रद्धा के साथ पाठ करते हैं और विघ्न बाधाओं का निवारण करते हैं। इस महनीय विषय पर परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की जैन जगत में सर्वमान्य विशिष्ट कृति

🙏 *भक्तामर ~ अंतस्तल का स्पर्श* 🙏

📖 *श्रृंखला -- 1* 📖

भक्तामर स्तोत्र जैन परंपरा में सर्वमान्य स्तोत्र है। श्वेतांबर और दिगंबर– दोनों इसका पाठ बड़ी श्रद्धा से करते हैं। जीवन में अनेक परिस्थितियां आती हैं, किंतु जहां अध्यात्म है वहां कोई परिस्थिति नहीं है। जब हम आत्मा से बाहर आते हैं, आत्मानुभूति से थोड़े दूर होते हैं, तब सारी परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं। एक व्याप्ति बनाई जा सकती है– जब-जब हम अध्यात्म में रहते हैं, तब-तब परिस्थिति के वात्याचक्र से मुक्त रहते हैं और जब-जब शरीर में आते हैं, तब-तब परिस्थितियों के वात्याचक्र से आक्रांत हो जाते हैं।

आदमी सदा परिस्थितियों से बचने का उपाय खोजता रहता है। वह चाहता है कि परिस्थितियां प्रभावित न करें। हमारी दुनिया में अनेक बाधाएं, विघ्न, अपाय और समस्याएं हैं। समस्याओं का सामना करने के लिए जरूरत है मनोबल की। मनोबल से शून्य व्यक्ति परिस्थितियों का सामना नहीं कर सकता। वह हीन भावना में चला जाता है। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है, जिसके सामने कठिनाइयां और समस्याएं न आएं। अगर न आएं तो मानना चाहिए कि उसका होना अथवा न होना दोनों समान है। महान् व्यक्ति वह होता है, जो परिस्थितियों से जूझता है, उनका मुकाबला करता है। वह मनोबल के द्वारा उन परिस्थितियों का पार पा लेता है, संकट की वैतरणी को तर जाता है। उसके पार जाकर वह उल्लास, शांति और सुख की सांस लेता है। समस्याओं की वैतरणी को तरने के लिए एक नौका चाहिए, कोई सहारा चाहिए, जिससे उसे पार कर सकें। आचार्यों ने सहारे के लिए स्तोत्र को आलंबन बनाया। जैन परंपरा, बौद्ध परंपरा, वैदिक परंपरा और इस्लाम परंपरा– सब परंपराओं में अनेक स्तोत्रों की रचना हुई। अनेक मंत्र रचे गए। उनके सहारे अनेक समस्याओं का पार पाया, विघ्नों और बाधाओं को दूर किया, फिर चाहे वे बाधाएं ग्रहकृत, मनुष्यकृत, परिस्थितिकृत अथवा मनोवृत्तिकृत हों। मंत्र और स्तोत्र से बाधाओं को मिटा दिया। सूर्य के आगे बादल आते हैं, प्रकाश आवृत हो जाता है। एक समय आता है, सूर्य बादलों को छिन्न-भिन्न कर फिर आकाश में चमकने लग जाता है। बाधाओं को हटाने का सबसे बड़ा आलंबन बनता है– स्तोत्र।

आचार्य मानतुंग ने भक्तामर स्तोत्र की रचना की। यह रचना विशेष परिस्थिति में हुई। उसके संदर्भ में बहुत सारी कथाएं प्रचलित हैं। जहां शक्तिशाली स्तोत्र होता है वहां उसके साथ चमत्कार की अनेक घटनाएं जुड़ जाती हैं। भक्तामर के साथ भी चमत्कार की घटनाएं जुड़ी हुई हैं। एक चार मंजिला मकान। उसके तलघर में आचार्य मानतुंग को कैद कर दिया। सभी दरवाजे बंद कर दिए, ताले लगा दिए। हाथों में हथकड़ियां, पैरों में बेड़ियां तथा पूरे शरीर को लोहे की सांकलों से जकड़ दिया। उस स्थिति में मंत्रविद् मानतुंग ने इस स्तोत्र की रचना की।

भक्तमर स्तोत्र मंत्रगर्भित स्तोत्र है। इसमें मंत्रों के अक्षरों की ऐसी संयोजना की गई है कि स्तोत्र-जाप से सारा काम अपने आप हो जाता है। उत्तरवर्ती आचार्यों ने भक्तामर के कई कल्प तैयार किए। भक्तामर के हर श्लोक की विधि, हर श्लोक का मंत्र, हर श्लोक का तंत्र– इन सबकी रचना की। भक्तामर के साथ अनेक मंत्रों का विकास किया तथा उनको साधने का उपाय और उनके लाभ का विस्तार से वर्णन किया।

*भक्तामर के श्लोकों की मीमांसा* करेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः

प्रस्तुति -- 🌻 संघ संवाद 🌻
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जैन धर्म के आदि तीर्थंकर
*भगवान् ऋषभ की स्तुति*
के रूप में
श्वेतांबर और दिगंबर
दोनों परंपराओं में
समान रूप से मान्य
*भक्तामर स्तोत्र*
जिसका
सैकड़ों-हजारों श्रद्धालु
प्रतिदिन श्रद्धा के साथ
पाठ करते हैं और
विघ्न बाधाओं का निवारण
करते हैं।
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जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ
के दसवें अधिशास्ता
परमपूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञ
के जन्म-शताब्दी वर्ष के
उपलक्ष्य में हम श्रद्धासहित
आज से
प्रस्तुत करने जा रहे हैं,
इस महनीय विषय पर
उनकी जैन जगत में
सर्वमान्य विशिष्ट कृति
*"भक्तामर"*
*अंतस्तल का स्पर्श*

प्रस्तुति: 🌻 *संघ संवाद* 🌻
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🧘‍♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘‍♂

🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन

👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला ९६* - *कार्य कौशल और प्रेक्षाध्यान १३*

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आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*

प्रकाशक
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Helpline No. 8233344482

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