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प्रस्तुति: *🌻 संघ संवाद 🌻*
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👉 प्रेरणा पाथेय:- आचार्य श्री महाश्रमणजी
वीडियो - 8 अप्रैल 2019
प्रस्तुति ~ अमृतवाणी
सम्प्रसारक 🌻 *संघ संवाद* 🌻
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जैन धर्म के आदि तीर्थंकर *भगवान् ऋषभ की स्तुति* के रूप में श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में समान रूप से मान्य *भक्तामर स्तोत्र,* जिसका सैकड़ों-हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन श्रद्धा के साथ पाठ करते हैं और विघ्न बाधाओं का निवारण करते हैं। इस महनीय विषय पर परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की जैन जगत में सर्वमान्य विशिष्ट कृति
🙏 *भक्तामर ~ अंतस्तल का स्पर्श* 🙏
📖 *श्रृंखला -- 2* 📖
*स्तुति का संकल्प*
गतांक से आगे...
निःसंदेह भक्तामर एक शक्तिशाली स्तोत्र है। जैन परंपरा में हजारों-हजारों साधु-साध्वियां, श्रावक-श्राविकाएं इसका प्रतिदिन पाठ करते हैं। उस भक्तामर स्तोत्र के बारे में हमें कुछ चर्चा करनी है। वह एक दिन की चर्चा नहीं है। यह लंबे समय तक चलेगी। हम शुरूआत करते हैं दो श्लोकों की मीमांसा से—
*भक्तामरप्रणतमौलिमणिप्रभाणा-*
*मुद्योतकं दलितपापतमोवितानम्।*
*सम्यक् प्रणम्य जिनपादयुगं युगादा-*
*वालम्बनं भवजले पततां जनानाम्।।*
*यः संस्तुतः सकलवाङ्मयतत्त्वबोधा-*
*दुद्भूतबुद्धिपटुभिः सुरलोकनाथैः।*
*स्तोत्रैर्जगत्त्रितयचित्तहरैरुदारैः,*
*स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम्।।*
भक्तामर के प्रथम श्लोक में भगवान् ऋषभ के चरणों में प्रणिपात है और दूसरी श्लोक में भगवान् ऋषभ की स्तुति करने का संकल्प है। ये दो बातें हैं, दो प्रतिपाद्य हैं। प्रथम श्लोक में प्रणिपात किया गया है भगवान् ऋषभ के चरणों में। प्रश्न होगा— चरणों में प्रणिपात क्यों? हमारे शरीर में उत्तमांग है— मस्तिष्क। जो मस्तिष्क उत्तम अंग है, उसको प्रणाम नहीं किया गया। पैर निम्न हैं, नीचे रहने वाले हैं, धरती पर चलने वाले हैं, धरती को छूने वाले हैं, उनको प्रणाम किया गया। ऐसा क्यों? होना चाहिए मस्तिष्क को प्रणाम और किया गया है पैरों को। यह भारतीय चिंतन की एक बहुत बड़ी विशेषता है। प्रणाम उसको है, जो धरती के साथ चलता है और धरती को छूता है। नमस्कार उसको किया जाता है, जो मूल है। हम लोग पत्तों को देखते हैं, फूल और फल को देखते हैं, किंतु जड़ को भुला देते हैं। यदि जड़ न हो तो पत्ते, फल और फूल कहां होंगे? वृक्ष की शोभा जड़ ही है।
पैर हमारे जीवन का आधार है इसीलिए उसे प्रणाम किया गया है। जो आधार को छोड़कर ऊपर को प्रणाम करता है, चरणों को छोड़कर उत्तमांग को प्रणाम करता है, नींव को छोड़कर केवल ध्वजा को नमस्कार करता है, वह शायद सच्चाई को भुला देता है। आधार है पैर। आधार है नींव। आधार है जड़। वह सारे वृक्ष को सिंचन देती है। पत्तों को सींचो, फूल को सींचो, पौधा सूख जाएगा। जब तक जड़ का सिंचन नहीं होगा, कुछ भी नहीं होगा। पैर हमारा आधार है। पूरे शरीर की जड़ है हमारे पैर। जिन लोगों ने एक्यूप्रेशर का सिद्धांत समझा है, वे जानते हैं कि हमारी पैर में कितनी ताकत है। आंख कहां है? केवल वही आंख नहीं है, जिससे हम देखते हैं। हमारी पैर में भी आंख है। कान, थायराइड ग्लैंड, पिट्यूटरी ग्लैंड— ये सब हमारे पैर में भी हैं, मस्तिष्क के सारे केंद्र हमारे पैर में भी हैं। हार्ट, लीवर, प्लीहा आदि शरीर का ऐसा कौनसा अवयव है, जो हमारी पैर में नहीं है? शरीर का हर अवयव हमारे पैर में है। पैर इतना शक्तिशाली है कि वह पूरे शरीर का प्रतिनिधित्व करता है।
*चरणों में प्रणिपात की अन्य और भी वजहों* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः
प्रस्तुति -- 🌻 संघ संवाद 🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 14* 📜
*ऐतिहासिक काल*
*दिगम्बर तेरापंथ*
गतांक से आगे...
भट्टारकों के शैथिल्य की प्रतिक्रिया हुई। धर्म-ग्रंथों के अभ्यासी विद्वान् व्यक्ति उन लोगों को अनादर की दृष्टि से देखने लगे। उनकी ओर से उदासीन होकर वे कुन्दकुन्द, अमृतचन्द्र, सोमप्रभ आदि के अध्यात्म-ग्रंथों का अभ्यास करने लगे, अतः 'अध्यात्मी' कहलाने लगे। सत्रहवीं शताब्दी में पंडित बनारसीदासजी द्वारा उस परंपरा को विशेष बल मिला। तब से अध्यात्म-विद्वानों की वह परंपरा 'वाराणसीय' या 'बनारसीमत' के नाम से प्रसिद्ध हुई, किंतु आगे चलकर उसका नाम 'तेरापंथ' हो गया। उसके साथ ही भट्टारकों का प्राचीन मार्ग 'बीसपंथ' कहलाने लगा।
श्वेताम्बर और दिगम्बर, इन दोनों ही परंपराओं में 'तेरापंथ' का यह नामसाम्य एक विचित्र संयोग की ही बात कही जा सकती है। श्वेताम्बर तेरापंथ के नामकरण का तो एक सुनिश्चित इतिहास है, किंतु दिगम्बर तेरापंथ का नाम कब हुआ और क्यों हुआ, यह अभी तक अज्ञात ही है। दिगम्बर आम्नाय के सुप्रसिद्ध विद्वान् पंडित नाथूराम 'प्रेमी' का अनुमान है कि श्वेताम्बर तेरापंथ के उदय के पश्चात् ही दिगम्बर परंपरा में यह नाम प्रयुक्त होने लगा है। वे लिखते हैं— 'बहुत संभव है कि ढूंढकों (स्थानकवासियों) में से निकले हुए तेरापंथियों के जैसा निंदित बतलाने के लिए वे लोग, जो भट्टारकों को अपना गुरु मानते थे तथा इनसे द्वेष रखते थे, इसके अनुगामियों को तेरापंथी कहने लगे हों और धीरे-धीरे उनका दिया हुआ यह कच्चा 'टाइटल' पक्का हो गया हो, साथ ही वे स्वयं इनसे बड़े बीसपंथी कहलाने लगे हों। यह अनुमान इसलिए भी ठीक जान पड़ता है कि इधर के लगभग डेढ़ सौ वर्ष के ही साहित्य में तेरहपंथ के उल्लेख मिलते हैं, पहले के नहीं।
*अन्तिम सम्प्रदाय*
जैन धर्म में तेरापंथ को अन्तिम सम्प्रदाय कहा जा सकता है। इसके प्रवर्तक स्वामी भीखणजी ने इसकी संगठना में अत्यंत दूरदर्शिता से काम लिया। आचार-विशुद्धि के साथ-साथ उन्होंने संघ की एकता पर विशेष रूप से बल दिया। उन्होंने संघ की नियमावली में इस प्रकार की व्यवस्था की कि संघ का हर सदस्य परस्पर समानता का अनुभव कर सके, पक्षपात-रहित न्याय प्राप्त कर सके, आवश्यकता पर पूर्णरूपेण सेवा प्राप्त कर सके और सबसे प्रमुख बात यह है कि संयम के अनुकूल वातावरण प्राप्त कर सके।
तेरापंथ का आज तक का इतिहास इसका साक्षी है कि उसके सदस्यों की एकता किन्ही सामयिक स्वार्थों के खंडों को जोड़कर नहीं बनाई गई है, अपितु आत्मार्थिता की भावना के शैल-शिखर से अखण्ड रूप में तराशी गई है। यह इसी प्रकार से अखण्ड रह सके, इसके लिए सावधानी बरतने में संघ के प्रत्येक सदस्य का समान उत्तरदायित्व है।
*तेरापंथ की उद्भवकालीन विभिन्न स्थितियों* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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