11.04.2019 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 12.04.2019
Updated: 12.04.2019

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👉 प्रेरणा पाथेय:- आचार्य श्री महाश्रमणजी
वीडियो - 11 अप्रैल 2019

प्रस्तुति ~ अमृतवाणी
सम्प्रसारक 🌻 *संघ संवाद* 🌻

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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।

🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞

📜 *श्रृंखला -- 17* 📜

*उद्भवकालीन स्थितियां*

*सामाजिक स्थिति*

विक्रम की उन्नीसवीं सदी के प्रारंभकाल का समाज प्रायः अज्ञान और रूढ़ियों में जकड़ा हुआ था। परंपराओं के प्रकाश में जहां अपने गंतव्य-मार्ग पर आगे बढ़ा जा सकता है, वहां उन्हीं परंपराओं को लोगों ने अपने पैरों की बेड़ियां बना लिया था। नवीनता के जीवित बालक से भी कहीं अधिक प्रिय और आकर्षक उन्हें पुरातनता का शव लगा करता था। पुरातनता की तरह नवीनता में भी कुछ आदेय तथा नवीनता की तरह पुरातनता में भी कुछ हेय हो सकता है, यह तथ्य बहुत कठिनता से ही स्वीकार्य हो पाता था।

उस युग में समाज का नियंत्रण राज्य से कहीं अधिक पंचों के हाथ में था। उनका दबदबा प्रायः सभी व्यक्तियों पर आतंक की तरह छाया रहता था। वे लोग छोटी-छोटी बातों पर अनेक परिवारों को समाज से बहिष्कृत कर दिया करते थे। उनका कार्य मानो इतने में ही सीमित रह गया था कि वे अपने ही समाज के कुछ व्यक्तियों को अपमानित, पीड़ित व बहिष्कृत करते रहें, ताकि अवशिष्ट व्यक्ति उनकी इच्छा के विपरीत चलने का साहस न कर पाएं। जाति-बहिष्कृत व्यक्ति या तो अत्यंत दयनीय जीवन जीने को बाध्य हो जाते थे या फिर अपने गुट को प्रबल बनाकर अपनी एक अलग इकाई बना लिया करते थे। इस क्रम से जातियों और उपजातियों की उत्पत्ति को तो प्रश्रय मिलता ही था, साथ ही पारस्परिक घृणा तथा सामाजिक भेदभाव की घातक वृत्ति भी प्रबलता पाती रहती थी।

संचार-साधनों की प्रायः सर्वत्र ही कमी थी। पहाड़ी भूमि होने के कारण मेवाड़ में वह और भी अधिक मात्रा में थी। अपने राज्य की सीमाओं को लांघकर बाहर जाने वाले व्यक्तियों की संख्या में अधिकांश भाग सीमांत-निवासियों का ही हुआ करता था। वाणिज्य की स्थिति उन्नत नहीं थी। अधिकांश वणिग्-जन आस-पास के गांवों में फेरी देकर या कहीं छोटी मोटी दुकान चलाकर ही अपने परिवार का भरण-पोषण करने को बाध्य थे। पर्वतों के कारण कृषि-योग्य भूमि की बहुलता नहीं थी। यत्र-तत्र बिखरे हुए छोटे-छोटे खेतों की भूमि ही धान्य उत्पत्ति की साधन थी।

विद्यार्जन की प्रवृत्ति प्रायः नहीं के समान ही थी। समाज का एक अंग नारी-समाज तो अज्ञान के अंधकार में आकण्ठ ही डूबा हुआ था। उसके लिए विद्यार्जन की कोई आवश्यकता ही नहीं समझी जाती थी। 'एक घर में दो कलमें नहीं चल सकतीं'— ऐसी कहावतें स्त्री-शिक्षा-विषयक तत्कालीन जन-मानस की भावना को स्पष्ट कर देती हैं। पुरुष-समाज में भी अध्ययन की अधिक अच्छी स्थिति नहीं थी। वणिग्-जनों के अतिरिक्त अक्षर-ज्ञान प्राप्त करने वाले व्यक्ति कम ही हुआ करते थे। वणिग्-जाति का संबंध व्यापार से प्रायः कम या अधिक रहा ही है, अतः उसमें अक्षर-ज्ञान कर लेने तथा कुछ पहाड़े आदि याद कर लेने की प्रवृत्ति थी। साधारण व्यापार चला लेने तथा बही-खाता लिख लेने से अधिक ज्ञान प्राप्त करने वाला व्यक्ति तो कोई अपवादस्वरूप ही मिलता था। ब्रह्मण आदि जिन जातियों में विद्याध्ययन की परंपरा रही थी, उनमें भी विद्याध्ययन से कहीं अधिक विद्याभिमान व्याप्त हो गया था। राज्य अथवा समाज की ओर से ज्ञान-वृत्ति की कोई समुचित व्यवस्था नहीं थी।

संत-समागम की प्रवृत्ति उस समय प्रायः सभी व्यक्तियों में थी। संतवाणी को कंठस्थ कर उससे तत्त्वज्ञान की पिपासा शांत करने की पद्धति भी चालू थी। एक के पास से दूसरा व्यक्ति तत्त्वज्ञान कंठस्थ करता और वह क्रम आगे से आगे चलता रहता था। कुछ व्यक्ति उस ज्ञान को लिख भी लेते थे। उससे दूसरे व्यक्तियों को कंठस्थ करने में सुविधा हो जाती थी। तत्त्वज्ञान को कंठस्थ करने की यह पद्धति स्त्री-समाज में भी थी। अक्षर-ज्ञान न होने पर भी वे संतवाणी के सैकड़ों पद्य कंठस्थ कर लिया करती थीं। इस प्रकार से ज्ञानार्जन करने वाले पुरुषों या स्त्रियों की संख्या स्वल्प ही हुआ करती थी। जनता का अधिक भाग तो अज्ञान में रहने को ही बाध्य था।

*तेरापंथ की उद्भवकालीन राजस्थान की धार्मिक स्थिति* के बारे में जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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जैन धर्म के आदि तीर्थंकर *भगवान् ऋषभ की स्तुति* के रूप में श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में समान रूप से मान्य *भक्तामर स्तोत्र,* जिसका सैकड़ों-हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन श्रद्धा के साथ पाठ करते हैं और विघ्न बाधाओं का निवारण करते हैं। इस महनीय विषय पर परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की जैन जगत में सर्वमान्य विशिष्ट कृति

🙏 *भक्तामर ~ अंतस्तल का स्पर्श* 🙏

📖 *श्रृंखला -- 5* 📖

*स्तुति का संकल्प*

गतांक से आगे...

प्रश्न है प्रणाम किसको किया? प्रणाम उन चरणों को किया जो युग के आदि में आलंबन बने। युग के मध्य में आलंबन बने, यह आश्चर्य की बात नहीं है। युग की आदि में आलंबन बनना आश्चर्य की बात है। वह युग जो आदम युग था, यौगलिकों का युग था। उस युग में कल्पवृक्ष के द्वारा जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति होती थी। भोजन वृक्षों से मिलता था, कपड़े वृक्षों से मिलते थे। कभी-कभी संगीत सुनने की मन में आती तो वृक्षों के पत्तों का मुरमुर सुन लिया जाता था। जीवन की सब आवश्यकताएं वृक्षों के द्वारा पूर्ण होती थीं। उस युग की आदि में भगवान् ऋषभ आलंबन बने। उन्होंने समाज का निर्माण किया, उसका विकास किया, लोगों को अनेक कलाएं सिखलाईं— कृषिकला, शिल्पकला, सुरक्षा, व्यवसाय, लिपिकला आदि। उन्होंने राजनीति का प्रवर्तन किया। उन्होंने राज्य और समाज की व्यवस्था की।

समाज, राज्य और अर्थ— इन सबकी व्यवस्था कर फिर एक नए मार्ग का मार्गदर्शन किया। उन्होंने कहा— 'ये प्राथमिक आवश्यकताएं हैं, जीवन के लिए आवश्यक हैं, किंतु यदि जीवन भर इनमें उलझे रहे तो ये व्यवस्थाएं भी तुम्हें खाने लग जाएंगी।' बहुत लोग इस सच्चाई को भुलाकर चलते हैं, जो प्रथम वय में करने की आवश्यकता है, उसे जीवन भर तक चलाते हैं। एक संस्कृत कवि ने ठीक कहा—

*प्रथमे नार्जिता विद्या, द्वितीये नार्जितं धनम्।*
*तृतीये नार्जितो धर्मः, तस्य जन्म निरर्थकम्।।*

सौ वर्ष की आयु मान ली गई। जिसने पहले पच्चीस वर्षों में विद्या का अर्जन नहीं किया, दूसरे पच्चीस वर्षों में धन का अर्जन नहीं किया और तृतीय अवस्था में धर्म का अर्जन नहीं किया, उसका जन्म निरर्थक है। बुढ़ापे में न विद्या का अर्जन होता है, न धन और धर्म का अर्जन होता है। जीवन के तीन कालखंड बतला दिए— प्रथम कालखंड में विद्या का अर्जन, द्वितीय कालखंड में धन का अर्जन, तीसरे कालखंड में धर्म की आराधना और समाधि के साथ मरण की तैयारी। जीवन का कितना सुंदर दर्शन दिया गया है इस श्लोक में! भगवान् ऋषभ ने स्वयं ऐसा जीवन जीया। जब तीसरा कालखंड आया तब घर को छोड़ा, राज्य को छोड़ा, विनीता नगरी को छोड़ा और आत्म-साधना में लग गए। उस युग में कोई आत्मा-साधना का नाम ही नहीं जानता था।

भारतीय संस्कृति में आत्मविद्या के पहले प्रवर्तक हैं— ऋषभ। इस तथ्य को केवल जैन आचार्य ही नहीं मानते, भागवत में भी इसी सच्चाई की अभिव्यक्ति हुई है। भागवत में भगवान् ऋषभ और उनके पुत्रों का वर्णन करते हुए बताया गया है— *'आत्मविद्याविशारदाः—'* ऋषभ के पुत्र आत्मविद्या में विशारद थे। यह मानने में कोई कठिनाई और अतिशयोक्ति नहीं है। प्रत्येक इतिहासविद् इसे स्वीकार करेगा— आत्मविद्या का पहला दर्शन भगवान् आदिनाथ ने दिया। युग की आदि, धर्म की आदि, आत्म-साधना की आदि, समाज की आदि, केवलज्ञान की आदि— इन सबमें ऋषभ आद्य बने। आचार्य मानतुंग ने इतना गंभीर पद्य लिख दिया— उस पादयुग्म को प्रणाम जो युग की आदि में आलंबन बने, सबका सहारा बना।

यह भव का चक्र है, समस्याओं का चक्र है। समस्या के सागर में डूबते हुए लोगों को एक सहारा दिया, आलंबन दिया और आलंबन दे कर सबको उठाया।

मानतुंग ने ऐसे पवित्र चरणों को नमस्कार किया, जिनकी तीन विशेषताएं हैं—

⭕ वे उद्योत करने वाले हैं।
⭕ वे आलंबन देने वाले हैं।
⭕ वे पाप का नाश करने वाले हैं।

*आचार्य मानतुंग ने भक्तामर के दूसरे श्लोक में क्या संकल्प किया...?* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः

प्रस्तुति -- 🌻 संघ संवाद 🌻
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🧘‍♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘‍♂

🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन

👉 *मैं मनुष्य हूँ: श्रंखला ५*

एक *प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लेकर देखें*
आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*

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🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन

👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला १०१* - *अनासक्त चेतना और प्रेक्षाध्यान ४*

एक *प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लेकर देखें*
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