16.04.2019 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 21.04.2019
Updated: 22.04.2019

News in Hindi

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Source: © Facebook

👉 प्रेरणा पाथेय:- आचार्य श्री महाश्रमणजी
वीडियो - 16 अप्रैल 2019

प्रस्तुति ~ अमृतवाणी
सम्प्रसारक 🌻 *संघ संवाद* 🌻

https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=2228446457372677&id=1605385093012153
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।

🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞

📜 *श्रृंखला -- 21* 📜

*उद्भवकालीन स्थितियां*

*भविष्य के लिए*

तेरापंथ के रूप में होने वाले इस धर्मक्रांति के मूल में आचार-शिथिलता से लेकर ग्रह-प्रभाव तक के अनेक दृश्य तथा अदृश्य कारणों का सामवायिक प्रभाव कहा जा सकता है, परंतु उसकी सफलता तभी संभव हुई, जबकि सत्य-निष्ठ और धर्म-प्राण आचार्य भीखणजी जैसे महत्तम व्यक्ति का उसे नेतृत्व प्राप्त हुआ। क्रांत-द्रष्टा आचार्य भीखणजी विघटन और संगटन की सीमाओं के मर्मज्ञ थे। वे जानते थे कि क्रांति की सफलता विघटन में नहीं, किंतु विघटन के पश्चात् किए जाने वाले संगटन में होती है। विधीयमान संघटन की निर्दोषता ही क्रांति की निर्दोषता सिद्ध करती है। श्रमण संघ को अपनी पूर्वकालीन दुर्बलताओं और उनके प्रतिफलों का इतिहास फिर कभी दोहराना न पड़े, इसलिए उन्होंने एक सबल, निर्दोष और क्रियाशील संगठन के नींव रखी। 'तेरापंथ' नाम उन्हीं विशेषताओं की सम्मिलित क्षमता का प्रतीक है।

स्वामीजी की संगठन-क्षमता की सुदृढ़ नींव पर तेरापंथ का भवन निर्मित हुआ। भवन की विशुद्धता के लिए जिस प्रकार बारी-जालियों से लेकर नालियों तक की सुनियोजित व्यवस्था आवश्यक होती है, उसी प्रकार संगठन की विशुद्धि के लिए भी गुण-स्वीकार और दोष-परिहार की संयोजना आवश्यक होती है। स्वामीजी ने उसके लिए मर्यादाओं का निर्माण किया। मर्यादाओं द्वारा संगठन के सदस्यों के कर्तव्य-अकर्तव्य की सीमाएं निर्धारित की गईं।हितकर स्थितियों के संरक्षण और विकास तथा अहितकर स्थितियों के परिष्कार और निरसन की व्यवस्था भी की गई। मर्यादाओं का उल्लंघन न होने पाए, इसलिए प्रत्येक सदस्य के मन में मर्यादा के प्रति बहुमान जागरित किया गया। मर्यादाएं रूढ़ि बनकर कालांतर में कहीं वातावरण में घुटन पैदा न कर दें, इसलिए वैधानिक स्तर पर विचार-प्रेरित उत्क्रांति का द्वार खुला रखा गया। अनियोजित परिवर्तन जितना हानिकर होता है, सुनियोजित परिवर्तन उतना ही लाभकर होता है। तेरापंथ उसका उदाहरण बनकर क्रमशः उन्नति के पथ पर अग्रसर हुआ।

*तेरापंथ के साफल्य और स्थायित्व के विषय में जनमानस के संशय व स्वामी भीखणजी द्वारा दिए गए मार्गदर्शन* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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Sangh Samvad
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।

🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞

📜 *श्रृंखला -- 21* 📜

*उद्भवकालीन स्थितियां*

*भविष्य के लिए*

तेरापंथ के रूप में होने वाले इस धर्मक्रांति के मूल में आचार-शिथिलता से लेकर ग्रह-प्रभाव तक के अनेक दृश्य तथा अदृश्य कारणों का सामवायिक प्रभाव कहा जा सकता है, परंतु उसकी सफलता तभी संभव हुई, जबकि सत्य-निष्ठ और धर्म-प्राण आचार्य भीखणजी जैसे महत्तम व्यक्ति का उसे नेतृत्व प्राप्त हुआ। क्रांत-द्रष्टा आचार्य भीखणजी विघटन और संगटन की सीमाओं के मर्मज्ञ थे। वे जानते थे कि क्रांति की सफलता विघटन में नहीं, किंतु विघटन के पश्चात् किए जाने वाले संगटन में होती है। विधीयमान संघटन की निर्दोषता ही क्रांति की निर्दोषता सिद्ध करती है। श्रमण संघ को अपनी पूर्वकालीन दुर्बलताओं और उनके प्रतिफलों का इतिहास फिर कभी दोहराना न पड़े, इसलिए उन्होंने एक सबल, निर्दोष और क्रियाशील संगठन के नींव रखी। 'तेरापंथ' नाम उन्हीं विशेषताओं की सम्मिलित क्षमता का प्रतीक है।

स्वामीजी की संगठन-क्षमता की सुदृढ़ नींव पर तेरापंथ का भवन निर्मित हुआ। भवन की विशुद्धता के लिए जिस प्रकार बारी-जालियों से लेकर नालियों तक की सुनियोजित व्यवस्था आवश्यक होती है, उसी प्रकार संगठन की विशुद्धि के लिए भी गुण-स्वीकार और दोष-परिहार की संयोजना आवश्यक होती है। स्वामीजी ने उसके लिए मर्यादाओं का निर्माण किया। मर्यादाओं द्वारा संगठन के सदस्यों के कर्तव्य-अकर्तव्य की सीमाएं निर्धारित की गईं।हितकर स्थितियों के संरक्षण और विकास तथा अहितकर स्थितियों के परिष्कार और निरसन की व्यवस्था भी की गई। मर्यादाओं का उल्लंघन न होने पाए, इसलिए प्रत्येक सदस्य के मन में मर्यादा के प्रति बहुमान जागरित किया गया। मर्यादाएं रूढ़ि बनकर कालांतर में कहीं वातावरण में घुटन पैदा न कर दें, इसलिए वैधानिक स्तर पर विचार-प्रेरित उत्क्रांति का द्वार खुला रखा गया। अनियोजित परिवर्तन जितना हानिकर होता है, सुनियोजित परिवर्तन उतना ही लाभकर होता है। तेरापंथ उसका उदाहरण बनकर क्रमशः उन्नति के पथ पर अग्रसर हुआ।

*तेरापंथ के साफल्य और स्थायित्व के विषय में जनमानस के संशय व स्वामी भीखणजी द्वारा दिए गए मार्गदर्शन* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।

🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞

📜 *श्रृंखला -- 21* 📜

*उद्भवकालीन स्थितियां*

*भविष्य के लिए*

तेरापंथ के रूप में होने वाले इस धर्मक्रांति के मूल में आचार-शिथिलता से लेकर ग्रह-प्रभाव तक के अनेक दृश्य तथा अदृश्य कारणों का सामवायिक प्रभाव कहा जा सकता है, परंतु उसकी सफलता तभी संभव हुई, जबकि सत्य-निष्ठ और धर्म-प्राण आचार्य भीखणजी जैसे महत्तम व्यक्ति का उसे नेतृत्व प्राप्त हुआ। क्रांत-द्रष्टा आचार्य भीखणजी विघटन और संगटन की सीमाओं के मर्मज्ञ थे। वे जानते थे कि क्रांति की सफलता विघटन में नहीं, किंतु विघटन के पश्चात् किए जाने वाले संगटन में होती है। विधीयमान संघटन की निर्दोषता ही क्रांति की निर्दोषता सिद्ध करती है। श्रमण संघ को अपनी पूर्वकालीन दुर्बलताओं और उनके प्रतिफलों का इतिहास फिर कभी दोहराना न पड़े, इसलिए उन्होंने एक सबल, निर्दोष और क्रियाशील संगठन के नींव रखी। 'तेरापंथ' नाम उन्हीं विशेषताओं की सम्मिलित क्षमता का प्रतीक है।

स्वामीजी की संगठन-क्षमता की सुदृढ़ नींव पर तेरापंथ का भवन निर्मित हुआ। भवन की विशुद्धता के लिए जिस प्रकार बारी-जालियों से लेकर नालियों तक की सुनियोजित व्यवस्था आवश्यक होती है, उसी प्रकार संगठन की विशुद्धि के लिए भी गुण-स्वीकार और दोष-परिहार की संयोजना आवश्यक होती है। स्वामीजी ने उसके लिए मर्यादाओं का निर्माण किया। मर्यादाओं द्वारा संगठन के सदस्यों के कर्तव्य-अकर्तव्य की सीमाएं निर्धारित की गईं।हितकर स्थितियों के संरक्षण और विकास तथा अहितकर स्थितियों के परिष्कार और निरसन की व्यवस्था भी की गई। मर्यादाओं का उल्लंघन न होने पाए, इसलिए प्रत्येक सदस्य के मन में मर्यादा के प्रति बहुमान जागरित किया गया। मर्यादाएं रूढ़ि बनकर कालांतर में कहीं वातावरण में घुटन पैदा न कर दें, इसलिए वैधानिक स्तर पर विचार-प्रेरित उत्क्रांति का द्वार खुला रखा गया। अनियोजित परिवर्तन जितना हानिकर होता है, सुनियोजित परिवर्तन उतना ही लाभकर होता है। तेरापंथ उसका उदाहरण बनकर क्रमशः उन्नति के पथ पर अग्रसर हुआ।

*तेरापंथ के साफल्य और स्थायित्व के विषय में जनमानस के संशय व स्वामी भीखणजी द्वारा दिए गए मार्गदर्शन* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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जैन धर्म के आदि तीर्थंकर *भगवान् ऋषभ की स्तुति* के रूप में श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में समान रूप से मान्य *भक्तामर स्तोत्र,* जिसका सैकड़ों-हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन श्रद्धा के साथ पाठ करते हैं और विघ्न बाधाओं का निवारण करते हैं। इस महनीय विषय पर परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की जैन जगत में सर्वमान्य विशिष्ट कृति

🙏 *भक्तामर ~ अंतस्तल का स्पर्श* 🙏

📖 *श्रृंखला -- 9* 📖

*अंतर्द्वंद्व का विलय*

गतांक से आगे...

मानतुंग इस विकल्प के संदर्भ में कहते हैं— भंते! बुद्धि की अल्पता मेरे लिए खेद का विषय नहीं है, क्योंकि मैं आपके समक्ष स्वयं को बालक के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूं। बालक वह काम कर सकता है, जो बड़ा आदमी कभी नहीं कर सकता। बालक वह काम कर सकता है, जो एक समझदार कभी नहीं कर सकता। आचार्य इसी भाषा में सोच रहे हैं— मेरा यह स्तुति का उपक्रम उस बालक जैसा है, जो जल में चंद्रमा के बिम्ब को देखकर उसे पकड़ने की चेष्टा करता है। बाल-सुलभ इस चेष्टा पर कोई नहीं हंसता। इसी प्रकार मेरी चेष्टा को उसी रूप में लिया जाए।

आज के आदमी की प्रवृत्ति ही कुछ ऐसी हो गई है कि वह बिंब को नहीं, प्रतिबिंब को पकड़ना चाहता है। भगवान् महावीर ने इसीलिए मूलस्पर्शी वृत्ति पर बल दिया। पत्तों तक पहुंचने वाली वृत्ति पत्तों पर ही अटक जाती है। वह मूल तक नहीं पहुंचती, बिंब तक नहीं पहुंचती, प्रतिबिंब पर ही अटक जाती है। बच्चा प्रतिबिंब पर अटक जाता है, क्योंकि वह भोला है, सरल है। इस संदर्भ में जो सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, वह यह है— बच्चा समर्पण करना जानता है। बौद्धिक आदमी में समर्पण की वृत्ति कम होती है। मानतुंग ने स्वयं को बाल रूप में प्रस्तुत कर प्रभु के चरणों में पूर्ण समर्पण कर दिया। उन्होंने कहा— 'मैंने सोचा नहीं, विचारा नहीं, अपनी बुद्धि को तोला नहीं और आप की भक्ति करने का संकल्प कर लिया। मैं आपके प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हूं। अब आप ही पार लगाएं।

मैंने (ग्रंथकार आचार्य श्री महाप्रज्ञ) अनेक प्रकार के बलों का उल्लेख किया है किंतु उन सबसे जो बड़ा बल है, वह है समर्पण का बल। जिसने समर्पण कर दिया, उसने दिव्य-शक्ति के साथ जो भेद था, उसे तोड़ दिया, उसके साथ तादात्म्य स्थापित कर लिया। वैदिक साहित्य में भक्ति के अनेक प्रकार बतलाए गए हैं— सालोक्य, सामीप्य, सायुज्य, सार्ष्टि आदि। सामीप्य का अर्थ है— अपने भगवान के साथ, इष्ट और आराध्य के साथ सन्निकटता स्थापित कर लेना। सायुज्य का तात्पर्य है— इष्ट के साथ अभेद स्थापित कर लेना, दो न रहना। महर्षि पतंजलि ने इसे समापत्ति कहा है। जब दूध और चीनी में तादात्म्य स्थापित हो जाता है, तब दूध और चीनी अलग-अलग नहीं रहते। जब एकता स्थापित होती है, शक्ति का स्रोत फूट जाता है। जब तक भेद-रेखा रहती है, भेद-प्रणिधान रहता है, तब तक शक्ति पर प्रश्नचिन्ह बना रहता है। जब अभेद-प्रणिधान हो जाता है, तब शक्ति अपने आप जाग जाती है। इस अभेद-प्रणिधान के द्वारा साधकों ने अनेक विस्मयकारी कार्य संपादित किए हैं।

*सरलता की शक्ति के बारे में विस्तार से* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः

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🧘‍♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘‍♂

🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन

👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला १०६* - *अनासक्त चेतना और प्रेक्षाध्यान ९*

एक *प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लेकर देखें*
आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*

प्रकाशक
*Preksha Foundation*
Helpline No. 8233344482

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