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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 28* 📜
*आचार्यश्री भीखणजी*
*गृही-जीवन*
*सुधारवादी*
स्वामीजी सत्य-सेवी थे, इसलिए जन-साधारण को भटका देने वाले दम्भों और प्राचीनता का संबल पाकर चलने वाली रूढ़ियों से उनका आरंभ से ही विरोध रहा। समय-समय पर उन्होंने उस विरोध को प्रकट किया और समाज को सजग करने का प्रयास भी। यद्यपि वे प्रयास कोई व्यवस्थित समाज-सुधार के निमित्त नहीं किए गए थे, फिर भी उनके रूप में हम स्वामीजी के जीवन में सुधारवादिता के उन बीजों को देख सकते हैं जो आगे चलकर विकसित हुए थे। दम्भों और रूढ़ियों के प्रति उनके दृष्टिकोण को स्पष्ट करने वाली अनेक घटनाएं हैं।
*दम्भ का विरोध*
एक बार कंटालिया में किसी के घर में चोरी हो गई। पास के ही बोरनदी ग्राम में एक अंधा कुम्हार रहता था। वह कहा करता था कि उसके मुंह से देवता बोला करते हैं। लोगों को उसकी बात पर विश्वास भी था, अतः चोर का पता लगाने के लिए उसे बुलाया गया। दम्भी कुम्हार दिन में भीखणजी के पास आया और इधर-उधर की बातें करने के पश्चात् चोरी का प्रसंग छेड़ते हुए पूछने लगा— 'आपका संदेश किस पर है?'
भीखणजी उसकी ठग-विद्या को झट से ताड़ गए। वे बोले— 'मेरा संदेह है तो मजने पर है।'
रात को जब चोरी वाले घर पर लोग एकत्रित हुए और कुम्हार को रहस्योद्घाटन के लिए कहा गया, तो उसने अपने पूर्व निश्चित लहजे में बोलते हुए कहा— डाल दे रे, डाल दे, गहने डाल दे।' परंतु इस तरह कहने से कौन गहने डालता? लोगों ने चोर का नाम बताने के लिए प्रार्थना की।
कुम्हार ने कड़कते हुए कहा— 'चोर 'मजना' है, उसी ने गहने चुराए हैं।'
पास में बैठे फकीर ने कहा— 'क्या मूर्खता की बात करते हो? 'मजना' क्या गहने चुराएगा? वह तो मेरे बकरे का नाम है।' यह सुनकर सभी लोग हंस पड़े।
अवसर देखकर भीखणजी ने दिन में कुम्हार के साथ हुई बातचीत सुनाई और कहा— 'तुम लोगों की बुद्धि कहां गई है, जो आंखों वाले से चुराए गए माल का पता इस अंधे आदमी से लगवाना चाहते हो?' इस प्रकार कुम्हार की पोल खोलकर उन्होंने सारे गांव को उसके दम्भ से बचा लिया।
*ओ कुण कालो जी काबरो*
जमाई जब ससुराल जाता है, तब उसे गालियां गाई जाती हैं। राजस्थान में आमतौर से यह रूढ़ि प्रचलित है। एक बार जब भीखणजी ससुराल गए और वहां भोजन करने बैठे, तो स्त्रियां गालियां गाने लगीं— 'ओ कुण कालो जी काबरो...।' भीखणजी को वह रूढ़ि बहुत बुरी लगी। अपने लंगड़े साले की ओर संकेत करते हुए उन्होंने स्त्रियों से कहा— 'अंधे, लूले तथा लंगड़े को तो आप अच्छा बताती हैं और अच्छे को बुरा। मैं इसे पसंद नहीं करता।' ऐसा कहकर भोजन को बीच में ही छोड़कर वे खड़े हो गए। उनके इस विरोध का तत्काल प्रभाव हुआ और आगे सदा के लिए गालियां बंद हो गईं।
*तेरापंथ के आद्य प्रणेता आचार्यश्री भीखणजी द्वारा अन्य अनेक कुप्रथाओं के विरोध, धार्मिक जिज्ञासा व उत्कट विराग* के बारे में विस्तार से जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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जैन धर्म के आदि तीर्थंकर *भगवान् ऋषभ की स्तुति* के रूप में श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में समान रूप से मान्य *भक्तामर स्तोत्र,* जिसका सैकड़ों-हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन श्रद्धा के साथ पाठ करते हैं और विघ्न बाधाओं का निवारण करते हैं। इस महनीय विषय पर परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की जैन जगत में सर्वमान्य विशिष्ट कृति
🙏 *भक्तामर ~ अंतस्तल का स्पर्श* 🙏
📖 *श्रृंखला -- 16* 📖
*बुद्धि और संवेग का समन्वय*
गतांक से आगे...
मृत्यु का समय निकट था। महाकवि भारवि ने पुत्र से कहा— 'मैं तुम्हें एक संपदा दे कर जा रहा हूं।' पुत्र ने पूछा— 'वह संपदा क्या है? कहां है?' भारवी ने एक श्लोक लिख कर देते हुए पुत्र से कहा— 'जब भी किसी प्रकार की आर्थिक समस्या या अन्य कोई आपदा आए तो तुम इस श्लोक को एक लाख रुपये में बेच देना।' उस युग में नगर में हाटें लगती थीं। परंपरा थी– हाट में दिनभर की बिक्री के बाद जो भी वस्तु दुकानदार के पास बच जाती उसे राज्य के द्वारा खरीद लिया जाता। भारवि की मृत्यु के बाद पुत्र आर्थिक कठिनाई से घिर गया। विपत्ति के उन क्षणों में उसने अपने पिता के द्वारा दिए गए उस श्लोक को बेचने का निश्चय किया। पिता के निर्देश के अनुसार उस श्लोक को लेकर वह बाजार में गया। उसे एक स्थान पर टांग दिया। लोग आते हैं, उस श्लोक को देखते हैं। भारवि-पुत्र श्लोक का मूल्य बताता है, एक लाख मुद्राएं। एक श्लोक के लिए एक लाख मुद्राएं कौन दे? लोग आते हैं, देखते हैं और मूल्य सुनकर चले जाते हैं। उसे लेने वाला कोई नहीं मिला। संध्या का समय। राजा के द्वारा परंपरानुसार बची हुई वस्तु के रूप में वह श्लोक एक लाख मुद्राओं में खरीद लिया गया। राजा ने उसे फ्रेम में मंढाया। मंढाकर श्लोक को अपने शयनकक्ष में लगाया। कालांतर में राजा कार्यवश परदेस गया। सुदूर देश की यात्रा में बहुत लंबा समय लग गया। जिस समय वह अचानक लौटा, रात गहरा रही थी। राजा ने कौतूहल से खिड़की के रास्ते में झांककर शयनकक्ष का निरीक्षण किया। मद्धिम प्रकाश में वह यह देखकर अवाक् रह गया— रानी एक युवक के साथ सो रही थी। यह देखते ही राजा क्रोध से भर गया। वह भीतर गया। दोनों को मारने के लिए उसने म्यान से तलवार निकाल ली। जैसे ही तलवार से वार करने के लिए बढ़ा, उसकी निगाह दीवार पर टंगे हुए श्लोक पर पड़ी— 'सहसा विदधीत न क्रियाम्।' राजा संस्कृत का पंडित था। श्लोक पढ़ते ही तलवार के साथ उठा हाथ झुक गया। उसने रानी को आवाज दी। रानी जगी। उसने भावविह्वल होकर पति का स्वागत किया। राजा के मन में अभी भी शल्य चुभ रहा था। आवेश में बोला— 'यह साथ में कौन है?' रानी बोली— 'इसे भी पहचान नहीं पा रहे हैं? यह आपकी ही पुत्री वसुमती है। आज इसने नाट्यगृह में राजा का वेश बनाकर अभिनय किया था। रात्रि में विलंब से आई और उसी वेश में मेरे साथ सो गई।' रानी ने पुत्री को जगाया। पुत्री हड़बड़ा कर उठी और पिता के चरणों में प्रणाम किया। राजा पुरुष वेश में अपनी पुत्री को देख अवाक् रह गया। बड़े गदगद् स्वर में बोला— 'इस श्लोक को एक लाख में खरीदकर मैंने सोचा था कि कौड़ी की चीज की लाख मुद्राएं दे दीं, किंतु आज लगता है इसके लिए एक करोड़ मुद्राएं भी कम हैं। एक भयंकर त्रासदी से इस श्लोक ने मुझे बचा लिया।'
बहुत जरूरी है कि बुद्धि की सीमा को समझा जाए और संवेग की सीमा को भी समझा जाए। आचार्य मानतुंग ने इनकी सीमा को समझा और वे आश्वस्त हो गए। भक्ति या श्रद्धा स्तुति नहीं कर सकती। स्तुति करना बुद्धि का काम है। बुद्धि और भक्ति में समझौता हो गया। संवेग ने बुद्धि की सीमा को समझ लिया और बुद्धि ने संवेग की सीमा को समझ लिया। बुद्धि जहां कमजोर पड़ रही थी, संवेग ने उसे उभार दिया और संवेग जहां काम नहीं कर पा रहा था, वहाँ बुद्धि ने काम करना शुरू कर दिया। संवेग और बुद्धि के प्रारंभिक द्वंद्व को पार कर आचार्य मानतुंग भगवान् ऋषभ की स्तुति में तन्मय बन गए।
*आचार्य मानतुंग ने स्तुति के महत्त्व को किस प्रकार प्रकट किया है...?* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः
प्रस्तुति -- 🌻 संघ संवाद 🌻
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🧘♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘♂
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👉 *मैं कुछ होना चाहता हूँ: श्रंखला ३*
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👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला ११५* - *आत्मसाक्षात्कार और प्रेक्षाध्यान ५*
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