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👉 *जैन विश्व भारती द्वारा निर्मीयमान अंतरराष्ट्रीय आवासीय विद्यालय के संदर्भ में महत्वपूर्ण निर्णय*
*प्रचारक 🌻संघ संवाद*🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 29* 📜
*आचार्यश्री भीखणजी*
*गृही-जीवन*
*गाली गाने की कुप्रथा*
स्वामीजी अपने आचार्य-काल में भी गाली गाने की कुप्रथा का विरोध करते रहे। उन्होंने उक्त प्रथा को स्त्री-जाति की लज्जाशीलता के बिल्कुल विपरीत बतलाया। उनकी दृष्टि में यह प्रथा स्त्री-जाति की वैचारिक नग्नता है, जो कि शारीरिक नग्नता से भी अधिक भयंकर होती है। उन्होंने कहा है—
*आ तो नारी लाज करै घणी,*
*न दिखावै मुख न आंख।*
*पिण गाल्यां गावण नै उसरी,*
*जाणै कपड़ा दीधा न्हाख।।*
*शीतला आदि का विरोध*
स्वामीजी शीतला, भैरूं आदि देवों की पूजा को भी एक अज्ञानमय परंपरा ही मानते थे। अनेक बार वे अपने व्याख्यानों में इनका विरोध करते। वे गृहस्थों में व्याप्त इस अज्ञानमूलक परंपरा को छुड़ा देना चाहते थे। आचार्य-काल की उनकी उस सुधारवादी भावना को गृहस्थ-काल की सुधारवादी भावना का ही एक अधिक परिष्कृत रूप कहा जा सकता है।
*धर्म-जिज्ञासा*
स्वामीजी के माता-पिता गच्छवासी (यति) संप्रदाय के अनुयायी थे, अतः उनका सर्वप्रथम धार्मिक संपर्क उन्हीं से प्रारंभ हुआ, किंतु वहां के वातावरण में उनके धर्म-जिज्ञासु अंतःकरण को तृप्ति नहीं मिल सकी। कालांतर में वे *पोतियाबंद संप्रदाय* के व्यक्तियों के पास व्याख्यान आदि सुनने के लिए जाने लगे। स्वामीजी के चाचा पेमोजी पोतियाबंद संप्रदाय में दीक्षित हुए थे। उनके कारण वहां के संपर्क में काफी गहराई तो आई, परंतु वहां भी स्वामीजी की भक्ति चिरस्थाई नहीं बन सकी। आखिर उनका संपर्क स्थानकवासी संप्रदाय की एक शाखा के आचार्य रघुनाथजी से हुआ और वे उनके अनुयायी बन गए।
विभिन्न संप्रदायों के संसर्ग में आने से उन्हें धर्म-विषयक अनेक प्रकार के विचारों से अवगत होने का अवसर मिला। उनकी तात्त्विक बुद्धि उन विभिन्नताओं के स्पर्श से और प्रखर हो उठी। उससे एक लाभ यह भी हुआ कि सांसारिक जीवन के प्रति उनकी उदासीनता उत्तरोत्तर बढ़ती गई।
*उत्कट विराग*
धर्म-साधना और भोग-साधना का साथ नहीं हो सकता। दोनों में से किसी एक को ही अपनाया जा सकता है। इस निष्कर्ष पर पहुंच कर भीखणजी ने अपने आपको धर्म-साधना के लिए ही समर्पित करने का निश्चय किया। उनकी अंतर्ध्वनि ने उन्हें बताया कि भोग-साधना में अपने को खफा देना इस अमूल्य शरीर का दुरुपयोग है। उन्होंने प्राप्त भोगों को स्वाधीनतापूर्वक छोड़कर दीक्षित होने का निर्णय किया। उनके साथ उनकी पत्नी ने भी उसी मार्ग का अवलंबन करने का विचार किया। संयम की पूर्व साधना के रूप में वे दोनों ब्रह्मचर्य का पालन करने लगे।
पूर्ण युवावस्था में ब्रह्मचर्य पालन करने का संकल्प लेकर दोनों ने अंतःकरण से उठी हुई धर्म-भावना को मूर्त रूप देना प्रारंभ कर दिया। दोनों ने अभिग्रह किया कि जब तक दीक्षा की भावना कार्य रूप में परिणत नहीं हो जाएगी, तब तक वे एकांतर उपवास किया करेंगे। उनके गृही-जीवन का वह समय उत्कट विराग-भावना के साथ व्यतीत होने लगा।
*तेरापंथ के आद्य प्रणेता आचार्यश्री भीखणजी का क्या सजोड़े दीक्षित होने का संकल्प साकार हुआ...?* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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जैन धर्म के आदि तीर्थंकर *भगवान् ऋषभ की स्तुति* के रूप में श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में समान रूप से मान्य *भक्तामर स्तोत्र,* जिसका सैकड़ों-हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन श्रद्धा के साथ पाठ करते हैं और विघ्न बाधाओं का निवारण करते हैं। इस महनीय विषय पर परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की जैन जगत में सर्वमान्य विशिष्ट कृति
🙏 *भक्तामर ~ अंतस्तल का स्पर्श* 🙏
📖 *श्रृंखला -- 17* 📖
*स्तुति का मूल्य*
आचार्य मानतुंग भगवान् ऋषभ की स्तुति करना चाहते हैं और स्तुति करने से पूर्व वे स्तुति के महत्त्व को भी प्रकट करना चाहते हैं। स्तुति का महत्त्व क्या है? यह सोचना भी आवश्यक है। जिस प्रयत्न का मूल्य होता है, मनुष्य वही प्रयत्न करता है। स्तुति का अपना मूल्य है। मानतुंग सूरि के शब्दों में यह स्तुति संचित कर्मों का विनाश करने वाली है। वे कहते हैं— हजारों-हजारों भवों से जो पाप संचित हैं, वे आपकी स्तुति करने मात्र से ही समाप्त हो जाते हैं। इतने पुराने और अनेक जन्मों से संचित पाप कैसे नष्ट हो सकते हैं? यह प्रश्न स्वाभाविक है पर इसका उत्तर अस्वाभाविक नहीं है।
भगवान् ऋषभ साम्ययोगी हैं। उन्होंने समता की साधना की है, आत्मा का साक्षात्कार किया है। साम्ययोग में वही जा सकता है जो आत्मा का साक्षात्कार कर लेता है, आत्मा की सन्निधि पा जाता है। कोई व्यक्ति आत्मा की अनुभूति किए बिना समता की साधना नहीं कर सकता। जहां बाहरी वातावरण है, परिस्थिति की अनुकूलता-प्रतिकूलता का का चक्र चलता है, वहां समता की सिद्धि हो नहीं सकती। सुख-दुःख, संयोग-वियोग आदि-आदि जो बाहरी निमित्त हैं, उनसे परे जाकर जो आत्मा और चेतना का अनुभव करता है, वही समता की साधना कर सकता है। जहां आत्मा है, वहां विषमता नहीं है। जहां आत्मा है, वहां उतार-चढ़ाव नहीं है। जहां आत्मा है, वहां कोई मलिनता नहीं है। जो आत्मा की अनुभूति या आत्मा का साक्षात्कार कर लेता है, उसके लिए समता की साधना पृथक् नहीं होती। आत्मा की अनुभूति कहें या समता की साधना– एक ही बात है।
समता की साधना का अर्थ है आत्मा की अनुभूति। भगवान् ऋषभ ने आत्म-साक्षात्कार किया, आत्मा का अनुभव किया और आत्मा का प्रतिपादन किया, समता सहज प्रकट हो गई। उनका साम्ययोग बहुत विलक्षण है। ऋषभ के साम्ययोग की जैन, जैनेतर साहित्य में व्यापक चर्चा मिलती है। उस महापुरुष की स्तुति करना, जो साम्ययोग का प्रतीक है, प्रशस्य उपक्रम है। इसलिए है कि उनकी स्तुति करने वाला भी साम्ययोग की ओर प्रस्थान करता है। स्तुति करने वाला व्यक्ति जब तक अपने आराध्य के साथ एकात्मकता और तादात्म्य स्थापित नहीं करता तब तक वह स्तुति का अधिकारी भी नहीं बनता, स्तुति से कोई विशेष लाभ भी नहीं उठा सकता। लाभ पाने के लिए आवश्यक है कि सामीप्य स्थापित करे, एकात्मकता का अनुभव करे।
*एक साम्ययोगी की स्तुति को विस्तृत रूप में* समझेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः
प्रस्तुति -- 🌻 संघ संवाद 🌻
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👉 आचार्य श्री महाप्रज्ञ जन्म शताब्दी वर्ष पर महामहिम राष्टृपति रामनाथ जी कोविन्द का शुभकामना पत्र
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🧘♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘♂
🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन
👉 *प्रगति के स्वर्ण सूत्र*: श्रंखला २*
एक *प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लेकर देखें*
आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*
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Helpline No. 8233344482
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👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला ११७* - *आत्मसाक्षात्कार और प्रेक्षाध्यान ७*
एक *प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लेकर देखें*
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