06.07.2019 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 08.07.2019
Updated: 08.07.2019

News in Hindi

📖📖📖📖📖📖📖📖📖📖📖
*आत्मानुभूति की ओर ले जाने वाला मार्ग*...?

*प्रस्तुत है...*

'धर्मचक्रवती', 'युगप्रधान', *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी की लोकप्रिय कृति..*

*"सम्बोधि"*
*में●*

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*मीडिया एवं प्रचार प्रसार विभाग*
🌐 *जैन विश्व भारती* 🌐
प्रसारक:
🌻 *संघ संवाद* 🌻
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👉 चूरू - आचार्य महाप्रज्ञा जन्म शताब्दी वर्ष शुभारंभ कार्यक्रम
👉 चूरू - स्वागत समारोह
👉 शिलांग - अभातेमम अध्यक्षा व महामंत्री द्वारा संगठन यात्रा
👉 पीलीबंगा - आचार्य महाप्रज्ञ जन्म शताब्दी वर्ष कार्यक्रम
👉 बारडोली - जैन संस्कार विधि से गृह प्रवेश
👉 जयपुर, शहर - "स्वस्थ परिवार स्वस्थ समाज" सेमिनार का आयोजन

प्रस्तुति - *🌻संघ संवाद* 🌻

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जैन धर्म के आदि तीर्थंकर *भगवान् ऋषभ की स्तुति* के रूप में श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में समान रूप से मान्य *भक्तामर स्तोत्र,* जिसका सैकड़ों-हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन श्रद्धा के साथ पाठ करते हैं और विघ्न बाधाओं का निवारण करते हैं। इस महनीय विषय पर परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की जैन जगत में सर्वमान्य विशिष्ट कृति

🙏 *भक्तामर ~ अंतस्तल का स्पर्श* 🙏

📖 *श्रृंखला -- 73* 📖

*पुरातन अभिधा: आधुनिक संदर्भ*

गतांक से आगे...

वैदिक परंपरा में एक पौराणिक परंपरा है, जिसे माइथोलॉजी कहते हैं। इस परंपरा में तीन देव माने गए हैं— ब्रह्मा, विष्णु और महेश (शंकर)। आचार्य मानतुंग ने ऋषभ को शंकर शब्द से संबोधित करते हुए कहा— आप शंकर हैं। इसका हेतु बतलाते हुए उन्होंने कहा— आप तीन लोक के लिए कल्याणकारी हैं, इसलिए शंकर हैं। ऋषभ की शंकर के रूप में स्तुति कर रहे हैं, किंतु इस स्तुति में भी एक ध्वनि है। संस्कृत साहित्य में ध्वनिकाव्य और व्यंगकाव्य का महत्त्व माना जाता है। जहां अभिधा और लक्षणा से कोई अर्थ नहीं होता, वहां व्यंजना से अर्थ व्यक्त होता है। एक वह काव्य है, जिसमें व्यंजनों में, शब्दों में कुछ नहीं है। शब्द कुछ कह रहे हैं, ध्वनि कुछ ही निकल रही है अर्थ कुछ दूसरा ही ध्वनित हो रहा है। आजकल समाचार पत्रों में व्यंग आते हैं। उनके शब्दों में कुछ नहीं होता, किंतु उनसे जो ध्वनि निकलती है, वह व्यक्ति के हृदय को छू लेती है। कुशल व्यक्ति ऐसे शब्दों का प्रयोग करता है कि अपनी बात भी कह देता है और कहीं फंसता भी नहीं है।

एक युवा विद्वान् जा रहा था। एक युवा स्त्री ने उसे देखा। उसका मन चंचल और कामुक बन गया। सोचा कैसे अपने मन की बात कहूं? उसने उस विद्वान् को संबोधित करते हुए कहा—

*रे पान्थ! पुस्तकधर! क्षणमत्र तिष्ठ,*
*वैद्योसि वा गणितशास्त्रविशारदोऽसि।*
*केनौषेधेन मम पश्यति भर्तुरम्बा,*
*किं वा गमिश्यति पतिः सुचिरप्रवासी?*

'राही! तुम्हारे पास पुस्तकें हैं। तुम यह बताओ— तुम वैद्य हो अथवा गणितशास्त्री। यदि वैद्य हो तो यह बताओ कि मेरी सास अंधी है। वह किस औषधि से ठीक हो सकती है? यदि तुम ज्योतिषी हो तो यह बताओ चिरकाल से प्रवासी मेरा पति कब लौटेगा?'

इन शब्दों का अर्थ करें तो कुछ नहीं समझ में आएगा, किंतु इन शब्दों से जो ध्वनि निकलती है, उसमें पथिक को आमंत्रण है। वह ध्वनि यह है— राही! मेरी सास अंधी है और मेरा पति परदेश गया हुआ है। मैं घर में अकेली हूं। तुम मेरे घर पर आ सकते हो, ठहर सकते हो।

ध्वनिकाव्य बहुत महत्त्वपूर्ण माना गया है। आचार्य मानतुंग ऋषभ की बुद्ध और शंकर के रूप में स्तुति कर रहे हैं, यह स्पष्ट है। किंतु स्तुति में प्रयुक्त शब्दों से जो ध्वनि निकल रही है, वह अस्पष्ट है। वह ध्वनि यह है— जिन्होंने क्षणिकवाद का प्रवर्तन किया है, मैं उन्हें बुद्ध मानने को तैयार नहीं हूं। वस्तुतः बुद्ध आप हैं। जिन्होंने परिणामी-नित्यवाद का प्रवर्तन किया है। शिव-शंकर वह होता है, जो कल्याण करने वाला होता है। पौराणिक मान्यता है कि शिव का कार्य है सृष्टि का संहार। मानतुंग कहते हैं, जो सृष्टि का संहार करने वाला है, उस शंकर को शंकर मानने के लिए मैं तैयार नहीं हूं। मैं तो आपको ही शंकर मानता हूं, क्योंकि आप कभी संहार नहीं करते, निरंतर कल्याण ही कल्याण करते हैं।

*आचार्य मानतुंग द्वारा भगवान् ऋषभ के लिए प्रयुक्त किए गए अन्य संबोधनों* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः

प्रस्तुति -- 🌻 संघ संवाद 🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।

🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞

📜 *श्रृंखला -- 85* 📜

*आचार्यश्री भीखणजी*

*जीवन-संग्राम*

*घी सहित घाट*

प्रारंभिक वर्षों में तो स्वामीजी को आहार संबंधी अनेक कठिनाइयां रही ही थीं, अंतिम वर्षों तक अभी गोचरी में उन्हें कहीं-कहीं अनेक कटु अनुभव हो जाया करते थे। विक्रम संवत् 1856 (श्रावणादि 1855) के आषाढ़ मास में स्वामीजी नाथद्वारा पधारे। उनके साथ काफी साधु तथा साध्वियां थीं। एक दिन साध्वी अजबूजी (जयाचार्य की संसारपक्षीया बुआ) किसी के घर में गोचरी के लिए गईं। वहां उन्हें घी दिया गया। दूसरे घर में गईं, तो वहां एक बहिन ने 'घाट' लेने को कहा। अजबूजी ने घी वाले पात्र में ही 'घाट' भी ले ली। अभी पात्र झोली में रखा भी नहीं गया था कि बहिन ने पूछा— 'आप कौन-से टोले की हैं?'

अजबूजी ने कहा— 'हम तो स्वामी भीखणजी के टोले की हैं।' यह सुनते ही उस बहिन ने गुस्से में आकर कहा— अरे रंडियो! तुम पिछली बार भी भूल ही भूल में मेरे घर से आहार ले गई थी। इस बार फिर आ गई। दे दो मेरी 'घाट' वापस।' उसने आव देखा न ताव पात्र को झट उठाकर घृत और 'घाट' को वापस अपने पात्र में उड़ेल लिया।

उसकी पड़ोसी ने एक व्रजवासनी बहिन ने उससे कहा— 'कीकी! यह क्या कर रही हो? संन्यासी को दिया हुआ भी क्या कभी कोई वापस लेता है?'

कीकी ने उसका उत्तर देते हुए कहा— 'यह भोजन में कुत्तों को डाल दूंगी, किंतु इन्हें नहीं दूंगी।'

अजबूजी ने आकर स्वामीजी को जब यह घटना सुनाई तो उन्होंने कहा— 'इस कलिकाल में जो ना हो जाए, वही कम है। आज तक ऐसी घटनाएं तो अनेक हो गई हैं कि कोई न दे, इंकार कर दे अथवा जानबूझकर अशुद्ध होने का बहाना कर दे, किंतु दिया हुआ वापस लेने की घटना तो यही सुनने में आई है।'

उस व्रजवासिनी बहिन के द्वारा उपर्युक्त घटना का जब लोगों को पता लगा, तो वे कीकी के पति को चिढ़ाने लगे कि वाह साहब! दुकान पर तो तुम कमाई करते हो और घर पर तुम्हारी पत्नी। वह बेचारा इस व्यंग से बड़ा लज्जित होता, पर कर क्या सकता था?

*क्या कीकी को कभी अपने किए पर पश्चात्ताप हुआ...?* जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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जैन धर्म के आदि तीर्थंकर *भगवान् ऋषभ की स्तुति* के रूप में श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में समान रूप से मान्य *भक्तामर स्तोत्र,* जिसका सैकड़ों-हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन श्रद्धा के साथ पाठ करते हैं और विघ्न बाधाओं का निवारण करते हैं। इस महनीय विषय पर परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की जैन जगत में सर्वमान्य विशिष्ट कृति

🙏 *भक्तामर ~ अंतस्तल का स्पर्श* 🙏

📖 *श्रृंखला -- 72* 📖

*पुरातन अभिधा: आधुनिक संदर्भ*

गतांक से आगे...

किस शब्द का किस अर्थ में प्रयोग किया जा रहा है?

मुनि ने ब्राह्मणों से कहा— 'मैं यज्ञ करता हूं।'
पूछा गया— 'कौन-सा यज्ञ?'
'जो ऋषियों के द्वारा प्रशस्त है।'
'तुम्हारी ज्योति— अग्नि कौन-सी है?'
'तप ज्योति है।'
'तुम्हारा ज्योति-स्थान कौन-सा है?'
'जीव ज्योति-स्थान है।'
'घी डालने की करछियां कौन-सी हैं?'
'मन, वचन और काया की सद्प्रवृत्ति घी डालने की करछियां हैं।'
'अग्नि जलाने के कण्डे कौन-से हैं?'
'शरीर अग्नि जलाने के कण्डे हैं।'
'ईंधन कौन-सा है?'
'कर्म ईंधन है।'
'शांतिपाठ कौन-सा है?'
'संयम की प्रवृत्ति शांतिपाठ है।'

भगवान् महावीर ने इस अहिंसक होम में ज्योति, ज्योतिस्थान, ईंधन, शांतिपाठ आदि शब्दों को स्वीकार किया है। शब्द वही रहता है, किंतु अर्थ बदल जाता है, तात्पर्य बदल जाता है। आचार्य मानतुंग ने भी इसी परंपरा का अनुसरण किया। मानतुंग ने कहा— आप बुद्ध हैं, इसका हेतु क्या है? समझदार आदमी कोई बात कहता है, तो वह सहेतुक होनी चाहिए, अहेतुक नहीं। जिसके पीछे स्पष्ट हेतु एवं तर्क होता है, वही अर्थ हृदयंगम हो सकता है। हेतु यह है— विबुध के द्वारा अर्चित बुद्धिबोध के कारण आप बुद्ध हैं। विबुधार्चित का अर्थ देवों के द्वारा अर्चित भी हो सकता है, विद्वानों और गणधरों द्वारा अर्चित भी हो सकता है। प्रस्तुत संदर्भ में गणधर का अर्थ इष्ट है। महान् गणधरों के द्वारा अर्चित है आपकी बुद्धि का बोध– प्रकाश। बुद्धि का होना एक बात है और बुद्धि का प्रकाश होना दूसरी बात है। आगम के मर्म को जानने वाला यह जानता है कि ज्ञान और उपयोग— दो हैं। ज्ञान अलग है और उपयोग अलग है। एक साधु को हजारों श्लोक कंठस्थ हैं। अभिधान चिंतामणि नाममाला कंठस्थ है, दशवैकालिक कंठस्थ है। प्रश्न होता है— क्या वास्तव में याद है? वे स्मृतिप्रकोष्ठ में संचित हैं किंतु उपयोग में नहीं है। तब याद आएंगे, जब हम उपयोग लगाएंगे। दशवैकालिक का पहला पद्य कौनसा है? यह उपयोग लगाएंगे तब पहला पद्य याद आएगा। हमने पढ़ा है, ज्ञान भी है, किंतु उपयोग के बिना वह कोई काम नहीं आता। जब बुद्धि का बोध यानी प्रकाश हो गया तो उपयोग लाने की जरूरत नहीं होती। जहां केवल ज्ञान है, वहां अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग है। छद्मस्थ और केवली में यही तो अंतर है। छद्मस्त का ज्ञान उपयोग सापेक्ष होता है और केवली का ज्ञान उपयोग निरपेक्ष। प्रतिक्षण ज्ञानोपयोग चलता रहता है। कंप्यूटर की तरह इनपुट और आउटपुट की जरूरत नहीं होती। वह निरंतर जागृत रहता है। मानतुंग के कथन का आशय यही है— आपमें बुद्धि का बोध सदा प्रगट रहता है, इसलिए आप बुद्ध हैं। वस्तुतः बुद्ध केवली को ही मानना चाहिए। जिसमें बुद्धि का प्रकाश निरंतर रहता है, ज्ञान का सूर्य कभी अस्त नहीं होता, कभी कोई बादल आड़े नहीं आता, वही बुद्ध होता है। मानतुंग ने अपनी मेधा से बुद्ध शब्द को नए रूप में प्रस्तुत कर भगवान् ऋषभ की स्तुति की है। प्रचलित शब्द के नए अर्थ की खोज का यह एक निदर्शन है।

*आचार्य मानतुंग ने भगवान् ऋषभ को संबोधित करने के लिए जिन शब्दों का प्रयोग किया... उनका हेतु क्या है...?* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः

प्रस्तुति -- 🌻 संघ संवाद 🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।

🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞

📜 *श्रृंखला -- 84* 📜

*आचार्यश्री भीखणजी*

*जीवन-संग्राम*

*रोटी पर दण्ड*

संसार की प्रत्येक क्रांतिकारी पुरुष को अज्ञ जनता के अंध प्रकोप का भजन होना पड़ा है। स्वामीजी ही फिर उसके अपवाद कैसे हो सकते थे? विरोधी लोगों ने उनके विपरीत इतने प्रकार की भ्रांतियां फैलाई के लोगों में विद्वेषाग्नि जल उठी। गांव-गांव में कहीं व्यक्तिगत, कहीं सामूहिक प्रतिबंध लगाए जाने लगे कि जिससे उन्हें भिक्षाचरी में आहार-पानी तक मिलना बंद हो जाए। एक बार बीलाड़ा में स्वामीजी पधारे। पता लगते ही समाज के प्रमुखों ने प्रतिबंध लगा दिया— 'जो भीखणजी को रोटी देगा, उसे प्रत्येक रोटी पर ग्यारह सामायिक दण्ड की दी जाएगी।'

एक दिन एक घर में स्वामीजी गोचरी पधारे। आहार-पानी की पूछताछ करने पर बहिन ने कहा— 'तुम्हें रोटी दे दूं तो स्थानक में सामायिक कर रही मेरी ननद की सामायिक गल जाए।' इस प्रकार के अनेक भ्रम फैलाकर विरोधियों ने उन्हें पराजित करना चाहा, परंतु वे सदा अपराजित ही रहे।

*तीन गोचरी*

लोगों ने संभवतः यह समझा था कि ऐसे प्रतिबंध लगा देने तथा भ्रांतियां फैला देने पर आहार-पानी की प्राप्ति कठिन हो जाएगी, तब वे शीघ्र ही अन्यत्र चले जाएंगे, परंतु स्वामीजी ने वैसा नहीं किया। उनकी प्रतिक्रिया भिन्न रही। उन्होंने सोचा— 'संपर्क के अभाव में लोग द्वेष करते हैं। यदि संपर्क में आएंगे तो विचारों को समझेंगे। तब द्वेष-भाव में स्वतः ही न्यूनता आ जाएगी।' उन्होंने संतो को बुलाकर कहा— 'अब तो यहां पूरा मासकल्प ही रहने का विचार है।'

संतों ने कहा— 'आहार-पानी की इतनी न्यूनता में पूरा महीना कैसे निकाला जा सकेगा?'

स्वामीजी बोले— 'गोचरी के लिए जैन-अजैन सभी घरों में जाओ। सामुदायिकता के भाव को और अधिक व्यापक बनाओ। केवल महाजनों पर ही आधारित मत रहो। इतने पर भी आहार-पानी की न्यूनता रहे, तो अपनी कष्ट-सहिष्णुता को और प्रखर बनाओ।'

स्वामीजी के उक्त कथन को संतों ने शिरोधार्य किया। दूसरे ही दिन से उन्होंने विभिन्न वर्गों में गोचरी जाना प्रारंभ कर दिया। एक गोचरी गांव से बाहर की ओर बसने वाली खाती, कुम्हार, जाट आदि जातियों की कराई जाने लगी, तो दूसरी सेवगों के बास की और तीसरी महाजनों की।

पूरा या अधूरा, जितना और जैसा भी आहार उन्हें मिला, उसी में संतोष करके वे वहां पूर्ण मास तक रहे। आहार की समस्या को उन्होंने अपने पर कभी छाने नहीं दिया।

*स्वामी भीखणजी को हुई आहार संबंधी कठिनाइयों के कुछ प्रसंगों...* के बारे में जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

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👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला १८५* - *चित्त शुद्धि और श्वास प्रेक्षा ८*

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