05.09.2019 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 12.09.2019
Updated: 12.09.2019
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।

🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞

📜 *श्रृंखला -- 131* 📜

*आचार्यश्री भीखणजी*

*जीवन के विविध पहलू*

*9. अध्यात्म-प्रेरक*

*व्यर्थ का आरम्भ*

स्वामीजी गृहस्थावस्था में थे, तब गुलोजी गाधिया नामक उनके एक मित्र थे। वे भी कंटालिया के ही थे। धर्म-क्रांति के पश्चात् वे स्वामीजी के भक्त हो गए। एक बार स्वामीजी कंटालिया पधारे। गुलोजी सेवा में बैठे थे। बातचीत के सिलसिले में स्वामीजी ने पूछा— 'गुला! इस वर्ष खेती की थी क्या?'

गुलोजी— 'हां गुरुदेव! कुछ की थी।'

स्वामीजी— 'उपज कैसी रही?'

गुलोजी— 'हल, निनाण और बीज आदि के लिए लगभग दस रुपये व्यय किए थे। मूंग, बाजरा, चारा आदि मिलाकर उतना-सा ही वापस आया है। लाभ कुछ भी नहीं रहा।'

स्वामीजी— 'धार्मिक कार्यों की ही तरह सांसारिक कार्यों में भी लाभ के आधार पर ही कार्य की सार्थकता मानी जाती है। इस हिसाब से तो तुम्हारा यह आरम्भ निरर्थक ही हुआ। ये रुपए घर के किसी आले में पड़े रहते, तो तुम इस व्यर्थ के आरम्भ से तो बच जाते।'

*वह बुद्धि किस काम की?*

स्वामीजी का सिरियारी में चातुर्मास था। जोधपुर-नरेश विजयसिंहजी श्रीनाथजी के दर्शनार्थ नाथद्वारा जा रहे थे। वर्षा के कारण उन्होंने उस दिन का अपना पड़ाव सिरियारी में किया। नरेश के सामंतों तथा दरबारियों को जब यह पता चला कि स्वामी भीखणजी जहां विराजमान हैं, तो वे दर्शनार्थ आए। उन लोगों ने एक ज्ञानी संत के रूप में स्वामीजी का नाम बहुत सुन रखा था, अतः सहज प्राप्त अवसर का लाभ उठाते हुए अनेक तात्त्विक तथा आध्यात्मिक प्रश्न भी पूछे।

स्वामीजी ने उन सभी प्रश्नों के उत्तर ऐसे युक्ति-युक्त दिए कि उन सबका चित्त प्रसन्न हो गया। उन्होंने कहा— 'इन प्रश्नों को अनेक विद्वानों से पूछने का अवसर मिला है, परंतु आप जैसे युक्तिसंगत उत्तर किसी ने नहीं दिए। आपकी बुद्धि तो ऐसी है कि यदि आप किसी राजा के यहां दीवान होते, तो उसके राज्य को बढ़ाकर साम्राज्य बना देते।'

स्वामीजी ने उनके कथन के उत्तर में एक दोहा सुनाया—
*बुद्धि तिणांरी जाणिये,*
*जे सेवै जिन-धर्म।*
*और बुद्धि किण काम री,*
*सो पड़िया बांधै कर्म।।*

स्वामीजी की उक्त निःस्पृह और अध्यात्म-प्रेरक वाणी सुनकर सामन्त तथा दरबारी लोग और भी अधिक प्रभावित हुए।

*किसी के मन को अध्यात्म की ओर प्रेरित करने की स्वामी भीखणजी की अद्वितीय मर्मज्ञता...* के बारे में जानेंगे... कुछ प्रसंगों के माध्यम से और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻

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'सम्बोधि' का संक्षेप रूप है— सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र। यही आत्मा है। जो आत्मा में अवस्थित है, वह इस त्रिवेणी में स्थित है और जो त्रिवेणी की साधना में संलग्न है, वह आत्मा में संलग्न है। हम भी सम्बोधि पाने का मार्ग प्रशस्त करें आचार्यश्री महाप्रज्ञ की आत्मा को अपने स्वरूप में अवस्थित कराने वाली कृति 'सम्बोधि' के माध्यम से...

🔰 *सम्बोधि* 🔰

📜 *श्रृंखला -- 30* 📜

*अध्याय~~2*

*॥सुख-दुःख मीमांसा॥*

💠 *भगवान् प्राह*

*35. इन्द्रियार्था मनोर्थाश्च, रागिणो दुःखकारणम्।*
*न ते दुःखं वितन्वन्ति, वीतरागस्य किञ्चन।।*

रागयुक्त मनुष्य के लिए इंद्रिय और मन के विषय दुःख के कारण बनते हैं, किंतु वीतराग को वे किंचित् मात्र भी दुःख नहीं दे सकते।

*36. विकारमविकारञ्च, न भोगा जनयन्त्यमी।*
*तेष्वासक्तो मनुष्यो हि, विकारमधिगच्छति।।*

ये भोग— शब्द आदि विषय विकार या अविकार उत्पन्न नहीं करते, किंतु जो मनुष्य उनमें आसक्त होता है, वह विकार को प्राप्त होता है।

*37. मोहेन प्रावृतो लोको, विकृतात्मापि शिक्षितः।*
*क्रोधं मानं तथा मायां, लोभं घृणां मुहुर्व्रजेत्।।*

जिसका ज्ञान मोह से आच्छन्न है और जिसकी आत्मा-चेतना विकृत है, वह पढ़ा-लिखा होने पर भी बार-बार क्रोध, मान, माया, लोभ और घृणा के आवेश में चला जाता है।

*38. अरतिञ्च रतिं हास्यं, भय शोकञ्च मैथुनम्।*
*स्पर्शन् भूयोऽपि मूढात्मा, भवेत् कारुण्यभाजनम्।।*

जो मूढ़ अरति, रति, हास्य, भय, शोक और मैथुन का पुनः पुनः स्पर्श करता है, वह दया का पात्र बन जाता है।

*39. प्रयोजनानि जायन्ते स्रोतसां वशवर्तिनः।*
*अनिच्छन्नपि दुःखानि, प्रार्थी तत्र निमज्जति।।*

जो इंद्रियों का वशवर्ती है, उसके सामने विभिन्न प्रकार के प्रयोजन—आवश्यकताएं और अपेक्षाएं उत्पन्न होती हैं। वह इंद्रिय-विषयों का प्रार्थी दुःख को न चाहता हुआ भी दुःख में निमग्न हो जाता है।

*40. सुखानां लब्धये भूयो, दुःखानां विलयाय च।*
*संगृह्णन् विषयान् प्राज्यान्, सुखैषी दुःखमश्नुते।।*

मनुष्य सुख पाने और दुःख से मुक्त होने के लिए प्रचुर विषयों का संग्रह करता है। वह सुख की इच्छा करता है, किंतु विषय-भोग की अति उसे दुःखी बना देती है।

*वीतराग के लिए विषय न मनोज्ञ और न अमनोज्ञ... कामासक्ति का वर्धन और समापन... वीतराग का स्वरूप और मोक्ष...* इत्यादि के बारे में पढ़ेंगे और प्रेरणा पाएंगे... आगे के श्लोकों में... हमारी अगली श्रृंखला में... क्रमशः...

प्रस्तुति- 🌻 *संघ संवाद* 🌻

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जैन धर्म के आदि तीर्थंकर *भगवान् ऋषभ की स्तुति* के रूप में श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में समान रूप से मान्य *भक्तामर स्तोत्र,* जिसका सैकड़ों-हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन श्रद्धा के साथ पाठ करते हैं और विघ्न बाधाओं का निवारण करते हैं। इस महनीय विषय पर परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की जैन जगत में सर्वमान्य विशिष्ट कृति

🙏 *भक्तामर ~ अंतस्तल का स्पर्श* 🙏

📖 *श्रृंखला -- 119* 📖

*रक्षाकवच*

गतांक से आगे...

नाविकों से श्रेष्ठी ने कहा— जहां कुल की रक्षा का प्रश्न है, वहां एक को छोड़ा जा सकता है। जहां गांव का प्रश्न है, वहां कुल को छोड़ा जा सकता है। जहां जनपद का प्रश्न है, वहां गांव को भी छोड़ा जा सकता है। किंतु जहां आत्मा की रक्षा का प्रश्न है, वहां सब कुछ त्यागा जा सकता है।

*त्यजेदेकं कुलस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्।*
*ग्रामं जनपदस्यार्थे, आत्मार्थे सकलं त्यजेत्।।*

श्रेष्ठी ने दृढ़ स्वर में कहा— यह कुल, गांव और जनपद की रक्षा का प्रश्न नहीं है, मेरी आत्मा की रक्षा का प्रश्न है। मैं अपना आत्मधर्म— अहिंसा की आराधना नहीं छोडूंगा, चाहे सब कुछ चला जाए। मुझे इस बात की चिंता नहीं है कि जहाज रहे अथवा टूट जाए। मुझे इस बात की चिंता है कि अहिंसा की आस्था श्लथ न बने।

श्रेष्ठी ध्यान में बैठ गया, स्तुति में लीन हो गया। कहा जाता है— वह देवी आई, बोली— मुझे बलि दें, अन्यथा में जहाज को नष्ट कर दूंगी। श्रेष्ठी स्तुति में अविचल बना रहा। भक्तामर के इस श्लोक *'अंभोनिधौ.....'* का अविरल जप करता रहा। वह स्तुति में तल्लीन बन गया। देवी के पैर लड़खड़ा गए। वह कांप उठी। यह क्या हुआ? श्रेष्ठी अविचल क्यों है? मुझे भय क्यों लग रहा है? देवी ने अपनी शक्ति का प्रयोग किया फिर भी श्रेष्ठी का बाल बांका नहीं हुआ। हताश और निराश देवी ने कहा— श्रेष्ठीवर! मैंने आपकी शक्ति को पहचान लिया है। मैं आप को परास्त नहीं कर सकती। मैं जा रही हूं। आप एक बार नयनों से निहारें। श्रेष्ठी के नयन धीरे-धीरे उन्मीलित हुए। देवी ने कहा— *अमोघं देवदर्शनम्*— देवता का दर्शन अमोघ होता है, वह खाली नहीं जाता। मैं तुम्हें कुछ देना चाहती हूं। तुम जो चाहो मांग लो। श्रेष्ठी ने कहा— मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। देवी ने कहा— कुछ तो मांगना ही होगा। दिन में बिजली चमकती है तो प्रायः निश्चित वर्षा आती है। रात में विद्युत बहुत चमकती है पर वर्षा आए, यह नियम नहीं है। दिन में बादल बहुत गरजते हैं, पर बरसते कम हैं। यदि रात्रि ने बादल गरजे तो प्रायः निश्चित वर्षा आती है। दिन में विद्युत का कड़कना और रात्रि में मेघ का गरजना खाली नहीं जाता— *अमोघं वासरे विद्युत, अमोघं निशि गर्जनम्*। यह देवता का दर्शन भी निष्फल नहीं होता— *अमोघं देवदर्शनम्*। देवी के आग्रह को स्वीकार कर श्रेष्ठी ने कहा— यदि तुम कुछ देना ही चाहती हो तो आज से यह बलि लेना बंद कर दो। कोई भी यात्री आए, उससे बलि की याचना मत करो। वचनबद्ध देवी ने श्रेष्ठी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

जैन श्रावक स्वयं अहिंसा में दृढ़ रहा और देवी को भी अहिंसक बना दिया। बलि को भी बंद करा दिया। स्तुति का यह प्रभाव ऋषभ के साथ तादात्म्य से संभव बना।

*ध्वनि और प्रकम्पन... भावना और स्तवन के प्रभाव...* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति -- 🌻 संघ संवाद 🌻

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👉 सरदारशहर- संघ प्रभावक संथारा परिसम्पन्न

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आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*

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🧘‍♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘‍♂

🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन

👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला २४६* - *चित्त शुद्धि और लेश्या ध्यान १५*

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संदेशों से कभी आपका, दिल हो दुखाया।
कभी कमी हो, कभी अति हो, कभी भुलाया
रहा सदा मन में, विचार में गुरु का साया।
फिर भी रहा कोई दोष, समय पर न पंहुचाया
हाथ जोड़कर, प्रणत भाव से क्षमा याचना
जुड़ के रहना आगे भी यही भावना

Sources

SS
Sangh Samvad
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