Updated on 24.09.2019 21:06
🙏🌸*⃣🌸🙏🌸*⃣🌸🙏🌸*⃣'सम्बोधि' का संक्षेप रूप है— सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र। यही आत्मा है। जो आत्मा में अवस्थित है, वह इस त्रिवेणी में स्थित है और जो त्रिवेणी की साधना में संलग्न है, वह आत्मा में संलग्न है। हम भी सम्बोधि पाने का मार्ग प्रशस्त करें आचार्यश्री महाप्रज्ञ की आत्मा को अपने स्वरूप में अवस्थित कराने वाली कृति 'सम्बोधि' के माध्यम से...
🔰 *सम्बोधि* 🔰
📜 *श्रृंखला -- 47* 📜
*अध्याय~~3*
*॥आत्मकर्तृत्ववाद॥*
💠 *भगवान् प्राह*
*51. शरीरं जायते बद्धजीवाद् वीर्यं ततः स्फुरेत्।*
*ततो योगो हि योगाच्च, प्रमादो नाम जायते।।*
कर्म-बद्ध जीव के शरीर होता है। शरीर में वीर्य स्फुरित होता है। वीर्य से योग— मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति होती है और योग से प्रमाद उत्पन्न होता है।
*52. प्रमादेन च योगेन, जीवोऽसौ बध्यते पुनः।*
*बद्धकर्मोदयेनैव, सुखं दुःखञ्च लभ्यते।।*
प्रमाद और योग से जीव पुनः कर्म से आबद्ध होता है और बंधे हुए कर्मों के उदय से ही वह सुख-दुःख पाता है।
*53. अनुभवन् स्वकर्माणि, जायते प्रियते जनः।*
*प्राधान्यं नेच्छितानां यत्, कृतं प्रधानमिष्यते।।*
प्राणी अपने कर्मों का भोग करता हुआ जन्मता है, मरता है। कर्म-सिद्धांत के अनुसार इच्छा की प्रधानता नहीं है, किन्तु कृत की प्रधानता है अर्थात् मनुष्य जो चाहता है, वही नहीं होता, किन्तु उसे उसका फल भी भुगतना पड़ता है, जो उसने पहले किया है।
*54. सुखानामपि दुःखानां, क्षयाय प्रयतो भव।*
*लप्स्यसे तेन निर्द्वन्द्वं, महानन्दमनुत्तरम्।।*
मेघ! तू सुख और दुःख को क्षीण करने के लिए प्रयत्न कर। तू सब द्वंद्वों से मुक्त, सबसे प्रधान, महान आनंद— मोक्ष को प्राप्त होगा।
*55. मननं जल्पनं नास्ति, कर्म किञ्चिन्न विद्यते।*
*विरज्यमानोऽकर्मात्मा, भवितुं प्रयतो भव।।*
मोक्ष में मन, वाणी और कर्म नहीं होते— न मनन किया जाता है, न भाषण किया जाता है और न किंचित मात्र प्रवृत्ति की जाती है। वहां आत्मा 'अकर्मा' होती है। मेघ! तू विरक्त होकर 'अकर्मात्मा' बनने का प्रयत्न कर।
*इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे*
*आत्मकर्तृत्ववादनामा तृतीयोऽध्यायः।*
*क्षणिक और शाश्वत— दो सुखानुभूतियों के बीच के भेद रेखा को जानने का प्रयास करेंगे... सम्बोधि के चतुर्थ अध्याय सहजानंद-मीमांसा...* के श्लोकों में... हमारी अगली श्रृंखला में... क्रमशः...
प्रस्तुति- 🌻 *संघ संवाद* 🌻
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Updated on 24.09.2019 21:06
🌼🍁🌼🍁🍁🍁🍁🌼🍁🌼जैन धर्म के आदि तीर्थंकर *भगवान् ऋषभ की स्तुति* के रूप में श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में समान रूप से मान्य *भक्तामर स्तोत्र,* जिसका सैकड़ों-हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन श्रद्धा के साथ पाठ करते हैं और विघ्न बाधाओं का निवारण करते हैं। इस महनीय विषय पर परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की जैन जगत में सर्वमान्य विशिष्ट कृति
🙏 *भक्तामर ~ अंतस्तल का स्पर्श* 🙏
📖 *श्रृंखला -- 134* 📖
*भक्तामर स्तोत्र व अर्थ*
*13. वक्त्रं क्व ते सुरनरोरगनेत्रहारि,*
*निःशेषनिर्जितजगत्त्रितयोपमानम्,*
*बिम्बं कलङ्कमलिनं क्व निशाकरस्य,*
*यद् वासरे भवति पाण्डुपलाशकल्पम्॥*
कहां देव, मनुष्य और नागकुमारों के नेत्रों का हरण करने वाला तुम्हारा मुख, जिसकी तुलना करने के लिए जगत् में कोई उपमा नहीं है और कहां चंद्रमा का कलंक कैसे मलिन बिंब, जो दिन में ढाक के पीले पत्ते जैसा हो जाता है।
*14. सम्पूर्णमण्डलशशांककलाकलाप-*
*शुभ्राः गुणास्त्रिभुवनं तव लंघयन्ति।*
*ये संश्रितास्त्रिजगदीश्वरनाथमेकं,*
*कस्तान् निवारयति संचरतो यथेष्टम्॥*
हे तीन जगत् के ईश्वर! पूर्णिमा के चंद्रमा की कलाओं के समूह के समान उज्जवल गुण तीनों लोक में व्याप्त हो रहे हैं। जिन गुणों ने विश्व के एकमात्र त्राता का आश्रय लिया है, उन्हें स्वतंत्रतापूर्वक भ्रमण करते हुए कौन रोक सकता है?
*15. चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभि-*
*र्नीतं मनागपि मनो न विकारमार्गम्।*
*कल्पान्तकालमरुता चलिताचलेन,*
*किं मंदराद्रिशिखरं चलितं कदाचित्॥*
यदि देवांगनाओं ने तुम्हारे मन को विकार युक्त नहीं बनाया तो इसमें क्या आश्चर्य है? पर्वत को प्रक्रम्पित करने वाले प्रलयकाल के पवन से क्या मेरु पर्वत का शिखर कभी प्रक्रम्पित होता है?
*16. निर्धूमवर्तिरपवर्जिततैलपूरः,*
*कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटीकरोषि।*
*गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां,*
*दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ! जगत्प्रकाशः॥*
हे नाथ! तुम जगत् को प्रकाशित करने वाले अलौकिक दीप हो। दीप तेल और बाती से जलता है और उस से धुआं निकलता है। इस अलौकिक दीपक को न बाती की जरूरत है, न तैल की। वह निर्धूम है।
दीप सीमित क्षेत्र को प्रकाशित करता है। तुम इस परिपूर्ण जगत् को प्रकाशित करते हो।
दीप को हवा का एक झोंका भी बुझा देता है। इस अलौकिक दीप को पर्वत को प्रकम्पित कर देने वाला प्रलयवात भी नहीं बुझा सकता।
*भगवान् ऋषभ के अतिशयों...* के बारे में जानेंगे और समझेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति -- 🌻 संघ संवाद 🌻
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Updated on 24.09.2019 21:06
🌹🌿🌹🌿🌹🌿🌹🌿🌹🌿🌹शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 146* 📜
*आचार्यश्री भीखणजी*
*जीवन के विविध पहलू*
*14. जैसे को तैसा*
*दो अधिक सही*
मुनि कुशलोजी और मुनि तिलोकजी स्थानकवासी संप्रदाय के अपने टोले से पृथक् होकर स्वयं को सर्वाधिक दृढ़ आचारी जतलाने के लिए इस प्रकार की प्ररूपणा करने लगे— साधु को केवल तीसरे प्रहर में ही गोचरी करनी चाहिए, गांव में नहीं रहना चाहिए, मिठाई आदि सरस तथा घृत आदि गरिष्ठ पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए आदि।
एक बार किसी गांव में स्वामीजी पधारे तो पाया कि उक्त दोनों मुनि वहां प्रथम प्रहर में गोचरी कर रहे थे। स्वामीजी कब चूकने वाले थे? तत्काल उनसे पूछ लिया— 'तुम लोग तो केवल तीसरे प्रहर में गोचरी करने की प्ररूपणा करते हो, फिर यह प्रथम प्रहर में गोचरी कैसे हो रही है?'
कुशलोजी ने तमकते हुए कहा— 'कौन कर रहा है गोचरी? हम तो धोवन-पानी की गवेषणा कर रहे हैं।'
स्वामीजी ने कहा— 'पानी कौन-सा आहार से बाहर है? वह भी चतुर्विध आहार के अंतर्गत आता है। पानी यदि प्रथम प्रहर में ले सकते हैं, तो रोटी लेने में क्या अड़चन है?'
कुशलोजी इसका कोई उत्तर नहीं दे सके तब बौखलाते हुए बोले— 'तुम तेरापंथियों दान और दया को समाप्त कर दिया है, अतः हम तुम्हें सारे संसार में बदनाम कर देंगे।'
स्वामीजी मुस्कुराए और कहने लगे— 'कोई बात नहीं। मुझे यह धमकी और भी बहुत व्यक्ति देते रहते हैं। लोगों का कथन है कि मुनि-वेश में रहने वाले दो हजार व्यक्ति मेरे विरोधी हैं। यदि पूरे हैं, तो दो अधिक हुए सही। यदि दो कम हैं, तो चलो, आज पूरे हो गए। गाड़ी में छाज का कौन-सा भार होता है?'
*पांच रुपये की आज्ञा*
पाली के बाबेचा परिवार के कुछ व्यक्तियों ने स्थानीय ब्राह्मणों को स्वामीजी के विरुद्ध खड़ा करने की दृष्टि से कहा— 'तुम लोगों को दान देने की इच्छा तो थी, परंतु भीखणजी कहते हैं कि इनको दान देने में पाप होता है, इसलिए अब देने से मन हट गया है।'
ब्राह्मण बहुत क्रुद्ध हुए वे एकत्रित होकर तत्काल स्वामीजी के पास आए और कहने लगे— 'आप हमें दान देने में पाप कहते हैं, अतः बाबेचा परिवार के लोगों ने हमें दान देना बंद कर दिया है। यह कार्य आपने उपयुक्त नहीं किया। हमारी तो जीविका ही मारी गई।'
स्वामीजी ने कहा— 'मैंने बाबेचों को तुम्हें देने से कभी निषेध नहीं किया है। वे लोग यदि तुम्हें पांच रुपये भी दें, तो मुझे निषेध करने का त्याग है।'
ब्राह्मण भागते हुए बाबेचों के पास आए और बोले— 'स्वामीजी ने पांच रुपये देने की आज्ञा प्रदान की है। लाइए दीजिए।'
देना किसको था। वे तो केवल उन्हें स्वामीजी से भिड़ाना चाहते थे। परंतु स्वामीजी ने ऐसा उत्तर दिया के उलटे लेने के देने पड़ गए।
*स्वामी भीखणजी पात्रानुसार उत्तर देने में बड़े निपुण थे... कुछ प्रसंगों के माध्यम से...* जानेंगे... समझेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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Updated on 24.09.2019 21:06
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👉 ओरंगाबाद - कनेक्शन विथ सक्सेस कार्यशाला का आयोजन
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👉 लिम्बायत, सूरत - ज्ञानशाला प्रशिक्षक प्रशिक्षण परीक्षा का आयोजन
👉 कटक - तेरापंथ टास्क फोर्स का गठन
👉 शाहीबाग,अहमदाबाद - मुमुक्षु मंगलभावना समारोह
प्रस्तुति - 🌻 *संघ संवाद* 🌻
Updated on 24.09.2019 21:06
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आचार्य तुलसी महाप्रज्ञ
चेतना सेवा केन्द्र,
कुम्बलगुड़ु,
बेंगलुरु,
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महाश्रमण चरणों मे
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: दिनांक:
24 सितम्बर 2019
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: प्रस्तुति:
🌻 *संघ संवाद* 🌻
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