Updated on 25.09.2019 20:39
🙏🌸*⃣🌸🙏🌸*⃣🌸🙏🌸*⃣'सम्बोधि' का संक्षेप रूप है— सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र। यही आत्मा है। जो आत्मा में अवस्थित है, वह इस त्रिवेणी में स्थित है और जो त्रिवेणी की साधना में संलग्न है, वह आत्मा में संलग्न है। हम भी सम्बोधि पाने का मार्ग प्रशस्त करें आचार्यश्री महाप्रज्ञ की आत्मा को अपने स्वरूप में अवस्थित कराने वाली कृति 'सम्बोधि' के माध्यम से...
🔰 *सम्बोधि* 🔰
📜 *श्रृंखला -- 48* 📜
*अध्याय~~4*
*॥सहजानंद-मीमांसा॥*
*॥आमुख॥*
सुख मनुष्य का प्रथम या चरम लक्ष्य है। वह जो कुछ करता है, उसके अग्र और पृष्ठ में सुख का चित्र अंकित रहता है। इंद्रियों को मनोज्ञ विषय मिलते हैं, सुख का संवेदन होता है। मन भी अपने मनोज्ञ विषयों को पाकर सुख की अनुभूति करता है। अमनोज्ञ का योग मिलते ही सुख-दुःख में बदल जाता है। उस दुःखानुभूति के क्षण में एक नई प्रेरणा जागती है— क्या सुख क्षणिक ही है? क्या सुख के बाद दुःख का आना उतना ही जरूरी है, जितना दिन के बाद रात का आना? क्या सुख स्थाई भी हो सकता है? क्या ऐसे भूखंड की कल्पना की जा सकती है, जहां केवल दिन हो, रात न हो? इस खोज में मानवीय चेतना आगे बढ़ी और उसे इस सत्य का साक्षात्कार हुआ कि अतींद्रिय चेतना के स्तर पर सहज और निरपेक्ष सुख उपलब्ध है। वह स्थाई है, शाश्वत है। प्रस्तुत अध्याय में क्षणिक और शाश्वत— दो सुखानुभूतियों के बीच भेद-रेखा खींचने का एक विनम्र प्रयत्न है।
💠 *मेघः प्राह*
*1. सुखानां नाम सर्वेषां, शरीरं साधनं प्रभो!*
*विद्यते तन्न निर्वाणे, तत्रानन्दः कथं स्फुरेत्।।*
मेघ बोला— प्रभो! सब सुखों का साधन है शरीर। निर्वाण में वह नहीं रहता, फिर आनंद की अनुभूति कैसे होगी?
*2. मानसानाञ्च भावानां, प्रकाशो वचसा भवेत्।*
*अवाचां कथमानन्दः, प्रोल्लसेद् ब्रूहि देव! मे।।*
मन के भावों का प्रकाशन वाणी के द्वारा होता है। जहां वाणी न हो, वहां आनंद कैसे विकसित होगा? देव! आप बताएं।
*3. चिन्तनेन नवीनानां, कल्पनानां समुद्भवः।*
*सदा चिन्तनशून्यानां, परितृप्तिः कथं भवेत्।।*
चिंतन से नई-नई कल्पनाएं उद्भूत होेती हैं। जो सदा चिंतन से शून्य हैं, उन्हें परितृप्ति कैसे मिलेगी?
*4. इन्द्रियाणि प्रवृत्तानि, जनयन्ति मनःप्रियम्।।*
*इन्द्रियेण विहीनानां, अनुभूतिसुखं कथम्?*
इंद्रियां जब अपने विषय में प्रवृत्त होती हैं, तब वे मानसिक प्रियता उत्पन्न करती हैं। जो इंद्रियों से विहीन हैं, उन्हें अनुभवजन्य सुख कैसे मिलेगा?
*5. साधनेन विहीनेस्मिन्, पथि प्रेरयसि प्रजाः।*
*किमत्र कारणं ब्रूहि, देव! जिज्ञासुरस्म्यहम्।।*
यह पथ साधन-विहीन है, जहां मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्ति को रोकने का यत्न किया जाता है। आप उस पथ पर लोगों को चलने की प्रेरणा देते हैं। इस प्रेरणा का कारण क्या है? देव! मैं यह जानना चाहता हूं।
*कायिक, वाचिक और मानसिक सुख यथार्थ नहीं... चेतना का आनंद यथार्थ और उसकी प्राप्ति का उपाय... आत्म साक्षात्कार कब...? अतींद्रियज्ञान कब...? एक वर्ष के संयमी जीवन की महान फलश्रुति... सबाध और निर्बाध सुख...* के बारे में जानेंगे... आगे के श्लोकों में... हमारी अगली श्रृंखला में... क्रमशः...
प्रस्तुति- 🌻 *संघ संवाद* 🌻
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Updated on 25.09.2019 20:39
🌼🍁🌼🍁🍁🍁🍁🌼🍁🌼जैन धर्म के आदि तीर्थंकर *भगवान् ऋषभ की स्तुति* के रूप में श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में समान रूप से मान्य *भक्तामर स्तोत्र,* जिसका सैकड़ों-हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन श्रद्धा के साथ पाठ करते हैं और विघ्न बाधाओं का निवारण करते हैं। इस महनीय विषय पर परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की जैन जगत में सर्वमान्य विशिष्ट कृति
🙏 *भक्तामर ~ अंतस्तल का स्पर्श* 🙏
📖 *श्रृंखला -- 135* 📖
*भक्तामर स्तोत्र व अर्थ*
*17. नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः,*
*स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति।*
*नाम्भोधरोदरनिरुद्धमहाप्रभावः,*
*सूर्यातिशायिमहिमासि मुनीन्द्र! लोके॥*
हे मुनीन्द्र! लोक में तुम सूर्य से भी अतिशय महिमा वाले हो। सूर्य उगता है और अस्त हो जाता है। तुम्हारा ज्ञान-सूर्य कभी अस्त नहीं होता। सूर्य राहु का ग्रास बनता है, तुम्हारा ज्ञान-सूर्य राहु से ग्रसित नहीं होता। सूर्य सीमित क्षेत्र को प्रकाशित करता है, तुम्हारा ज्ञान-सूर्य तत्काल एक साथ तीन लोकों को प्रकाशित करता है। सूर्य बादलों की ओट में छिप जाता है, तुम्हारे ज्ञान-सूर्य का महान् प्रभाव कभी आच्छन्न नहीं होता।
*18. नित्योदयं दलितमोहमहान्धकारं*
*गम्यं न राहुवदनस्य न वारिदानाम्।*
*विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्पकान्ति*
*विद्योतयज्जगदपूर्वशशांकबिम्बम्।।*
चंद्रमा केवल रात में उदित होता है, तुम्हारा मुख-चंद्र नित्य उदित रहता है। चंद्रमा अंधकार को दूर करता है, तुम्हारा मुख-चंद्र मोह रूपी अंधकार को दूर करता है। चंद्रमा को राहु ग्रास लेता है, तुम्हारा मुख-चंद्र राहु से ग्रसित नहीं होता। चंद्रमा बादलों से आच्छादित हो जाता है, तुम्हारा मुख-चंद्र बादलों से आच्छादित नहीं होता। चंद्रमा सीमित क्षेत्र को प्रकाशित करता है, तुम्हारा मुख-चंद्र पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है। इसलिए तुम्हारा मुख-चंद्र अद्भुत है, अत्यधिक कांति वाला है।
*19. किं शर्वरिषु शशिनाह्नि विवस्वता वा,*
*युस्मन्मुखेन्दुदलितेषु तमस्सु नाथ!*
*निष्पन्नशालिवनशालिनि जीवलोके,*
*कार्यं कियज्जलधरैर् जलभारनम्रैः॥*
हे नाथ! तुम्हारा मुख-चंद्र अंधकार को नष्ट करता है, फिर रात्रि में चंद्रमा, दिन में सूर्य से क्या प्रयोजन? इस जीव जगत् में जब खेतों में धान्य पक चुका है, फिर जल के भार से झुके हुए मेघों से क्या प्रयोजन?
*20. ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं,*
*नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु।*
*तेजः स्फुरन् मणिषु याति यथा महत्त्वं,*
*नैवं तु काचशकले किरणाकुलेऽपि॥*
प्रभु! ज्ञान तुम्हारा आश्रय प्राप्त कर जैसे उद्भासित होता है, वैसे हरि, हर आदि नायकों में नहीं। मणियों में स्फूरित होते हुए तेज का जैसा महत्त्व होता है, वैसा सूर्य की किरणों से चमकते हुए कांच के टुकड़ों में नहीं।
*भगवान् ऋषभ को संत लोग किन-किन रूपों में प्रवाद करते हैं... देखते हैं...* जानेंगे और समझेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति -- 🌻 संघ संवाद 🌻
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Updated on 25.09.2019 20:39
🌹🌿🌹🌿🌹🌿🌹🌿🌹🌿🌹शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 147* 📜
*आचार्यश्री भीखणजी*
*जीवन के विविध पहलू*
*15. पात्रानुसार उत्तर*
*भाजन देखकर*
स्वामीजी प्रत्युत्पन्नमति वाले व्यक्ति थे। प्रत्येक प्रश्न का उत्तर जैसे उनके पास तैयार रहता था। एक ही प्रसंग को अनेक प्रकार से समझाने का उनमें विचित्र सामर्थ्य था। वे उत्तर प्रायः समय और व्यक्ति को देखकर देते थे। पाव किलो के भजन में पांच किलो और पांच किलो के भाजन में पाव किलो पकाने की वृत्ति उन्हें पसंद नहीं थी। यह भी कहा जा सकता है कि वे उतना ही वैचारिक भोजन परोसने के पक्षधर थे, जिससे भोक्ता को न भूखा रहना पड़े और न अजीर्ण का ही सामना करना पड़े। वास्तव में पात्रानुसार उत्तर देने में वे बड़े निपुण थे।
*जितना गुड़, उतना मीठा*
विक्रम संवत् 1845 का चातुर्मास स्वामीजी ने पीपाड़ में किया। वहां एक गैबीरामजी चारण जाति के भक्त रहा करते थे। उनके वहां प्रतिदिन भजन-कीर्तन होता तथा समागत भक्तों को लापसी खिलाई जाती थी। स्वामीजी के विरोधियों ने भिड़ाने की दृष्टि से उनको कहा— 'तुम प्रतिदिन भक्तों को लापसी खिलाते हो, उसमें भीखणजी पाप कहते हैं। इस विषय में उनसे पूछ कर तो देखो।'
गैबीरामजी उनकी बातों में आ गए। उन्होंने अपना घोटा उठाया और पैरों में घुंघरुओं को धमकाते हुए स्वामीजी के पास आए। उन्होंने पूछा— 'भीखण बाबा! मैं भक्तों को लापसी खिलाता हूं, इससे मुझे क्या फल होता है?'
स्वामीजी तत्काल समझ गए कि भिड़ाने की दृष्टि से किसी विरोधी ने इनको बहकाया है। व्रत-अव्रत तथा संयम-असंयम आदि जैन तत्त्वों और मान्यताओं को उन्हें तत्काल समझा पाना संभव नहीं था, अतः स्वामीजी ने प्रसंग को जरा घुमाव देते हुए कहा— 'लापसी में जितना गुड़ डालते हो, वह उतनी ही मीठी होती है। उसका मीठापन जैसे गुड़ की मात्रा पर निर्भर है, वैसे ही शुभाशुभ फल भी भावना पर निर्भर है। तुम्हारी भावना जितनी अधिक विशुद्ध होगी, उतना ही अधिक शुभ फल होगा।'
स्वामीजी के उत्तर से वे बहुत प्रसन्न हुए। नाचते हुए बाजार में गए और उन लोगों से बोले— 'भीखण बाबा ने बहुत अच्छा उत्तर दिया है।'
विरोधी लोग चकित होकर सोचने लगे कि भीखणजी ने क्षणभर में ही इनको कैसे समझा दिया? क्या उन्होंने पहले से ही घड़ा-घड़ाया उत्तर तैयार कर रखा था?
*स्वामी भीखणजी की कालवादी साधुओं के अनुयायी मेघजी भाट के साथ चर्चा के एक प्रसंग...* के बारे में जानेंगे... समझेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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Updated on 25.09.2019 20:39
⛲❄⛲❄⛲❄⛲⛩
आचार्य तुलसी महाप्रज्ञ
चेतना सेवा केन्द्र,
कुम्बलगुड़ु,
बेंगलुरु,
⛳
महाश्रमण चरणों मे
📮
: दिनांक:
25 सितम्बर 2019
🎯
: प्रस्तुति:
🌻 *संघ संवाद* 🌻
⛲❄⛲❄⛲❄⛲
🧘♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘♂
🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन
👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला २६६* - *ध्यान के प्रकार ३*
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आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*
प्रकाशक
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Helpline No. 8233344482
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👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला २६५* - *ध्यान के प्रकार २*
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