👉 साउथ कोलकाता - प्लास्टिक बहिष्कार महाअभियान के अंतर्गत रैली व नुक्कड़ नाटिका का आयोजन
👉 विजयनगर, बेंगलुरु - तेयुप द्वारा सेवा कार्य
👉 पुणे - सुनो वक्त की पुकार करें प्लास्टिक से इंकार कार्यक्रम
👉 पूर्वांचल कोलकाता - प्लास्टिक बहिष्कार महाअभियान के तहत कार्यक्रम
👉 राजाराजेश्वरी नगर, बेंगलुरु - प्लास्टिक बहिष्कार महाअभियान के तहत कपड़े के थैलों का वितरण
👉 फरीदाबाद - सप्तदिवसीय प्लास्टिक बहिष्कार महाअभियान के अंतर्गत विभिन्न कार्यक्रम
👉 हिसार - सप्तदिवसीय प्लास्टिक बहिष्कार महाअभियान के अंतर्गत विभिन्न कार्यक्रम
👉 फरीदाबाद - जैन संस्कार विधि से नूतन गृह प्रवेश
प्रस्तुति -🌻 *संघ संवाद* 🌻
👉 विजयनगर, बेंगलुरु - तेयुप द्वारा सेवा कार्य
👉 पुणे - सुनो वक्त की पुकार करें प्लास्टिक से इंकार कार्यक्रम
👉 पूर्वांचल कोलकाता - प्लास्टिक बहिष्कार महाअभियान के तहत कार्यक्रम
👉 राजाराजेश्वरी नगर, बेंगलुरु - प्लास्टिक बहिष्कार महाअभियान के तहत कपड़े के थैलों का वितरण
👉 फरीदाबाद - सप्तदिवसीय प्लास्टिक बहिष्कार महाअभियान के अंतर्गत विभिन्न कार्यक्रम
👉 हिसार - सप्तदिवसीय प्लास्टिक बहिष्कार महाअभियान के अंतर्गत विभिन्न कार्यक्रम
👉 फरीदाबाद - जैन संस्कार विधि से नूतन गृह प्रवेश
प्रस्तुति -🌻 *संघ संवाद* 🌻
🙏🌸*⃣🌸🙏🌸*⃣🌸🙏🌸*⃣
'सम्बोधि' का संक्षेप रूप है— सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र। यही आत्मा है। जो आत्मा में अवस्थित है, वह इस त्रिवेणी में स्थित है और जो त्रिवेणी की साधना में संलग्न है, वह आत्मा में संलग्न है। हम भी सम्बोधि पाने का मार्ग प्रशस्त करें आचार्यश्री महाप्रज्ञ की आत्मा को अपने स्वरूप में अवस्थित कराने वाली कृति 'सम्बोधि' के माध्यम से...
🔰 *सम्बोधि* 🔰
📜 *श्रृंखला -- 58* 📜
*अध्याय~~5*
*॥मोक्ष-साधन-मीमांसा॥*
💠 *मेघः प्राह*
*29. पुद्गलान् आत्मनो भिन्नान्, जानन्नप्येषु रज्यति।*
*किमत्र कारणं स्वामिन्! दृष्टिं मे निर्मलां कुरु।।*
स्वामिन्! आत्मा से पुद्गल भिन्न हैं, यह जानते हुए भी मनुष्य पुद्गलों में आसक्त होता है। इसका क्या कारण है? आप मेरी दृष्टि को निर्मल बनाएं।
💠 *भगवान् प्राह*
*30. अवैराग्यञ्च मोहश्च, नात्र भेदोऽस्ति कश्चन।*
*विषयाग्रहणं तस्मात्, ततश्चेन्द्रियवर्तनम्।।*
*31. मनसश्चापलं तस्मात्, संकल्पाः प्रचुरास्ततः।*
*प्राबल्यं तत इच्छाया, विषयासेवनं ततः।।*
*32. वासनायास्ततो दार्ढ्यं, ततो मोहप्रवर्तनम्।*
*मोहव्यूहे प्रविष्टानां, मुक्तिर्भवति दुर्लभा।।*
*(त्रभिर्विशेषकम्)*
भगवान् ने कहा— जो अवैराग्य है, वही मोह है। इनमें कोई भेद नहीं है। मोह से विषयों का ग्रहण होता है और उससे इंद्रियों की प्रवृत्ति होती है। इंद्रियों की प्रवृत्ति से मन चपल बनता है और मन की चपलता से अनेक संकल्प उत्पन्न होते हैं। संकल्पों से इच्छा प्रबल होती है और प्रबल इच्छा से विषयों का सेवन होता है। विषयों के सेवन से वासना दृढ़ होती है और दृढ़ वासना से मोह बढ़ता है। मोह के चकव्यूह्र में प्रवेश करने वालों के लिए मुक्ति दुर्लभ हो जाती है।
*33. अवैराग्यञ्च सर्वेषां, भोगानां मूलमिष्यते।*
*वैरागयं नाम सर्वेषां, योगानां मूलमिष्यते।।*
सब भोगों का मूल है अवैराग्य और सब योगों का मूल है वैराग्य।
*34. विषयाणां परित्यागो, वैराग्येणाशु जायते।*
*अग्रहश्च भवेत्तस्माद्, इन्द्रियाणां शमस्ततः।।*
*35. मनःस्थैर्यं ततस्तस्माद्, विकाराणां परिक्षयः।*
*क्षीणेषु च विकारेषु, नष्टा भवति वासना।।*
*(युग्मम्)*
विषयों का त्याग वैराग्य से ही होता है। जो विषयों का त्याग कर देता है, उसके विषयों का ग्रहण नहीं होता और उनका ग्रहण न होने पर इंद्रियां शांत हो जाती हैं।
इन्द्रियों की शांति से मन स्थिर बनता है और मन की स्थिरता से विकार क्षीण होते हैं। विकारों के क्षीण होने पर वासना नष्ट हो जाती है।
*परम प्रकाशित कब...? वितरागता की भावना की फलश्रुति... आत्मोपलब्धि की प्रक्रिया...* जानेंगे... समझेंगे... प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली श्रृंखला में... क्रमशः...
प्रस्तुति- 🌻 *संघ संवाद* 🌻
'सम्बोधि' का संक्षेप रूप है— सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र। यही आत्मा है। जो आत्मा में अवस्थित है, वह इस त्रिवेणी में स्थित है और जो त्रिवेणी की साधना में संलग्न है, वह आत्मा में संलग्न है। हम भी सम्बोधि पाने का मार्ग प्रशस्त करें आचार्यश्री महाप्रज्ञ की आत्मा को अपने स्वरूप में अवस्थित कराने वाली कृति 'सम्बोधि' के माध्यम से...
🔰 *सम्बोधि* 🔰
📜 *श्रृंखला -- 58* 📜
*अध्याय~~5*
*॥मोक्ष-साधन-मीमांसा॥*
💠 *मेघः प्राह*
*29. पुद्गलान् आत्मनो भिन्नान्, जानन्नप्येषु रज्यति।*
*किमत्र कारणं स्वामिन्! दृष्टिं मे निर्मलां कुरु।।*
स्वामिन्! आत्मा से पुद्गल भिन्न हैं, यह जानते हुए भी मनुष्य पुद्गलों में आसक्त होता है। इसका क्या कारण है? आप मेरी दृष्टि को निर्मल बनाएं।
💠 *भगवान् प्राह*
*30. अवैराग्यञ्च मोहश्च, नात्र भेदोऽस्ति कश्चन।*
*विषयाग्रहणं तस्मात्, ततश्चेन्द्रियवर्तनम्।।*
*31. मनसश्चापलं तस्मात्, संकल्पाः प्रचुरास्ततः।*
*प्राबल्यं तत इच्छाया, विषयासेवनं ततः।।*
*32. वासनायास्ततो दार्ढ्यं, ततो मोहप्रवर्तनम्।*
*मोहव्यूहे प्रविष्टानां, मुक्तिर्भवति दुर्लभा।।*
*(त्रभिर्विशेषकम्)*
भगवान् ने कहा— जो अवैराग्य है, वही मोह है। इनमें कोई भेद नहीं है। मोह से विषयों का ग्रहण होता है और उससे इंद्रियों की प्रवृत्ति होती है। इंद्रियों की प्रवृत्ति से मन चपल बनता है और मन की चपलता से अनेक संकल्प उत्पन्न होते हैं। संकल्पों से इच्छा प्रबल होती है और प्रबल इच्छा से विषयों का सेवन होता है। विषयों के सेवन से वासना दृढ़ होती है और दृढ़ वासना से मोह बढ़ता है। मोह के चकव्यूह्र में प्रवेश करने वालों के लिए मुक्ति दुर्लभ हो जाती है।
*33. अवैराग्यञ्च सर्वेषां, भोगानां मूलमिष्यते।*
*वैरागयं नाम सर्वेषां, योगानां मूलमिष्यते।।*
सब भोगों का मूल है अवैराग्य और सब योगों का मूल है वैराग्य।
*34. विषयाणां परित्यागो, वैराग्येणाशु जायते।*
*अग्रहश्च भवेत्तस्माद्, इन्द्रियाणां शमस्ततः।।*
*35. मनःस्थैर्यं ततस्तस्माद्, विकाराणां परिक्षयः।*
*क्षीणेषु च विकारेषु, नष्टा भवति वासना।।*
*(युग्मम्)*
विषयों का त्याग वैराग्य से ही होता है। जो विषयों का त्याग कर देता है, उसके विषयों का ग्रहण नहीं होता और उनका ग्रहण न होने पर इंद्रियां शांत हो जाती हैं।
इन्द्रियों की शांति से मन स्थिर बनता है और मन की स्थिरता से विकार क्षीण होते हैं। विकारों के क्षीण होने पर वासना नष्ट हो जाती है।
*परम प्रकाशित कब...? वितरागता की भावना की फलश्रुति... आत्मोपलब्धि की प्रक्रिया...* जानेंगे... समझेंगे... प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली श्रृंखला में... क्रमशः...
प्रस्तुति- 🌻 *संघ संवाद* 🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 155* 📜
*आचार्यश्री भीखणजी*
*जीवन के विविध पहलू*
*17. विनोदी स्वभाव*
*ढंढण से कम नहीं*
विक्रम संवत् 1859 के शेषकाल में स्वामीजी देवगढ़ पधारे। स्वामीजी सहित 14 साधु और 24 साध्वियां, कुल 38 'ठाणे' थे। कुछ दिन पश्चात् स्थानकवासी संप्रदाय के 3 साधु भी वहां आ गए। एक दिन गोचरी के समय मार्ग में वे स्वामीजी से मिले और खीझ भरी निराशा के स्वर में कहने लगे— 'भीखणजी! हम तीन साधुओं को भी पूरा आहार नहीं मिल पा रहा है, तब आप लोगों को— इतने साधु-साध्वियों को आहार कैसे मिलता होगा?'
स्वामीजी ने उनकी निराशा को अपने विनोद से हल्का बनाते हुए कहा— 'आप लोग ढंढण मुनि से कोई कम थोड़े ही हैं? द्वारिका में सहस्रों साधु-साध्वियों को आहार मिलता था, परंतु अकेले ढंढण मुनि के ही ऐसा कर्मोदय था कि उन्हें नहीं मिल पाता था।'
स्वामीजी के मुख से विनोद में ही सही, ढंढण मुनि से अपनी तुलना सुनकर वे कृतार्थ हो गए। आहार उनको पूरा न भी मिला होगा, पर स्वामीजी ने उनकी झोली प्रसन्नता से पूरी भर दी थी।
*एक अक्षर का अंतर*
एक व्यक्ति ने स्वामीजी से पूछा— 'आपमें और अमुक संप्रदाय वालों में कितना अंतर है?'
स्वामीजी अधिक विवरण में जाना नहीं चाहते थे, अतः बोले— 'मात्र एक अक्षर का ही अंतर है।'
वह व्यक्ति आश्चर्यचकित होकर कहने लगा— 'मैंने तो समझ रखा था कि कोई बहुत बड़ा अंतर होगा। तभी तो वे लोग प्रत्येक स्थान पर आपका तीव्र विरोध तथा खुली निंदा करते हैं।'
स्वामीजी ने अपने भाव को थोड़ा-सा स्पष्ट करते हुए कहा— 'साधु बनकर भी यदि कोई साधुता के नियम न पाले, तो वह असाधु कहलाता है। साधु और असाधु में एक अक्षर का ही तो अंतर होता है।'
*आबू गये या नहीं?*
पुर में छाजूजी खाभिया स्वामीजी के पास आए। वे मूर्तिपूजक आम्नाय के थे। तीर्थ क्षेत्रों का माहात्म्य बतलाते हुए उन्होंने स्वामीजी को एक गीतिका सुनाई। उसके एक पद्य में कहा गया था—
*आबू गढ़ तीर्थ नहीं जुहार्यो,*
*तिण अहल जमारो हार्यो।*
स्वामीजी ने पूछा— 'तुम कभी आबू गढ़ गए या नहीं?'
छाजूजी बोले— 'मुझे अभी तक यह सौभाग्य नहीं मिला है।'
स्वामीजी ने कहा— 'तब तो आज तक का तुम्हारा जीवन निरर्थक ही गया।'
छाजूजी अपनी निरुत्तरता की खीझ मिटाते हुए बोले— 'आपने तो मेरी बात मेरे ही गले में डाल दी।'
*स्वामी भीखणजी के विनोदी स्वभाव की कुछ झलकियां...* पढ़ेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 155* 📜
*आचार्यश्री भीखणजी*
*जीवन के विविध पहलू*
*17. विनोदी स्वभाव*
*ढंढण से कम नहीं*
विक्रम संवत् 1859 के शेषकाल में स्वामीजी देवगढ़ पधारे। स्वामीजी सहित 14 साधु और 24 साध्वियां, कुल 38 'ठाणे' थे। कुछ दिन पश्चात् स्थानकवासी संप्रदाय के 3 साधु भी वहां आ गए। एक दिन गोचरी के समय मार्ग में वे स्वामीजी से मिले और खीझ भरी निराशा के स्वर में कहने लगे— 'भीखणजी! हम तीन साधुओं को भी पूरा आहार नहीं मिल पा रहा है, तब आप लोगों को— इतने साधु-साध्वियों को आहार कैसे मिलता होगा?'
स्वामीजी ने उनकी निराशा को अपने विनोद से हल्का बनाते हुए कहा— 'आप लोग ढंढण मुनि से कोई कम थोड़े ही हैं? द्वारिका में सहस्रों साधु-साध्वियों को आहार मिलता था, परंतु अकेले ढंढण मुनि के ही ऐसा कर्मोदय था कि उन्हें नहीं मिल पाता था।'
स्वामीजी के मुख से विनोद में ही सही, ढंढण मुनि से अपनी तुलना सुनकर वे कृतार्थ हो गए। आहार उनको पूरा न भी मिला होगा, पर स्वामीजी ने उनकी झोली प्रसन्नता से पूरी भर दी थी।
*एक अक्षर का अंतर*
एक व्यक्ति ने स्वामीजी से पूछा— 'आपमें और अमुक संप्रदाय वालों में कितना अंतर है?'
स्वामीजी अधिक विवरण में जाना नहीं चाहते थे, अतः बोले— 'मात्र एक अक्षर का ही अंतर है।'
वह व्यक्ति आश्चर्यचकित होकर कहने लगा— 'मैंने तो समझ रखा था कि कोई बहुत बड़ा अंतर होगा। तभी तो वे लोग प्रत्येक स्थान पर आपका तीव्र विरोध तथा खुली निंदा करते हैं।'
स्वामीजी ने अपने भाव को थोड़ा-सा स्पष्ट करते हुए कहा— 'साधु बनकर भी यदि कोई साधुता के नियम न पाले, तो वह असाधु कहलाता है। साधु और असाधु में एक अक्षर का ही तो अंतर होता है।'
*आबू गये या नहीं?*
पुर में छाजूजी खाभिया स्वामीजी के पास आए। वे मूर्तिपूजक आम्नाय के थे। तीर्थ क्षेत्रों का माहात्म्य बतलाते हुए उन्होंने स्वामीजी को एक गीतिका सुनाई। उसके एक पद्य में कहा गया था—
*आबू गढ़ तीर्थ नहीं जुहार्यो,*
*तिण अहल जमारो हार्यो।*
स्वामीजी ने पूछा— 'तुम कभी आबू गढ़ गए या नहीं?'
छाजूजी बोले— 'मुझे अभी तक यह सौभाग्य नहीं मिला है।'
स्वामीजी ने कहा— 'तब तो आज तक का तुम्हारा जीवन निरर्थक ही गया।'
छाजूजी अपनी निरुत्तरता की खीझ मिटाते हुए बोले— 'आपने तो मेरी बात मेरे ही गले में डाल दी।'
*स्वामी भीखणजी के विनोदी स्वभाव की कुछ झलकियां...* पढ़ेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙
📝 *श्रृंखला -- 547* 📝
*अमृतपुरुष आचार्य श्री तुलसी*
अणुव्रत प्रवर्तक, भारतज्योति, युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी तेरापंथ धर्मसंघ के नवमें पद पर आसीन थे। वे जैन परंपरा के यशस्वी, मनस्वी, वर्चस्वी, तेजस्वी आचार्य थे। संयम के महासूर्य थे। ज्ञान के हिमालय थे। पारदर्शी प्रज्ञा के पारावार थे।
युग नायक, युगपुरुष आचार्य श्री तुलसी का करिश्माई व्यक्तित्व विलक्षण था। उनकी सोच विलक्षण थी। उनकी कार्यशैली विलक्षण थी। उनका कर्तृत्व कमाल का था। निराला था उनके निखरती नेतृत्व का नैपुण्य। निराली थी उनकी सद्यः सटीक निर्णायक शक्ति। गजब की थी उनकी दिमागी स्फुरणा और मिजाज की मस्ती।
कोई भी व्यक्ति जन्म से महान नहीं होता और न कोई एक दिन में महानता की भूमिका पर पहुंच पाता। व्यक्ति का कर्म ही उसको महान बनाता है।
पूज्यप्रवर आचार्य श्री तुलसी अनूठे कर्मशील थे। वे समत्व साधना के शिखर साधक, शौर्य के शलाका पुरुष एवं पुरुषार्थ व पराक्रम के पर्याय थे।
उनकी दिव्य चेतना ने मानव जाति को नव-निर्माण के नए-नए उन्मेष दिए। नई सोच दी, नया चिंतन दिया, नई समझ दी। आगे बढ़ने के लिए सही मंजिल दी।
आचार्य श्री तुलसी मानव की स्वच्छ, प्रशस्त छवि को उकेरने वाले कुशल चितेरे थे। उन्होंने मानवता के कैनवस पर जनोद्धार की सतरंगी रेखाएं खींची एवं नैतिक मूल्यों के इंद्रधनुष रचे। वे असांप्रदायिक धर्म के व्याख्याकार थे। उन्होंने ग्रंथ व पंथ की संकीर्ण दीवारों के घेरे में कैद धर्म और अध्यात्म को जन-जीवन में प्रतिष्ठित कर एक अपूर्व कीर्तिमान स्थापित किया।
प्रगति के उर्ध्वारोही पायदान ऊपर कदम धरते हुए वे युग पुरुष की भूमिका तक पहुंचे। विकास के अनेक स्तरों को पार कर वे सामान्य से असामान्य साधारण से असाधारण बन गए।
उत्क्रांत चेतना के धनी आचार्य श्री तुलसी मानव नहीं महामानव थे। इंसानियत के देवता और बीसवीं सदी के अलौकिक आलोक स्तंभ थे।
*गुरु-परम्परा*
आचार्य श्री तुलसी के दीक्षा-गुरु तेरापंथ धर्मसंघ के अष्टमाचार्य 'कालूगणी' थे। उनके जीवन का बहुमुखी विकास आचार्य कालूगणी के संरक्षण में हुआ। आचार्य कालूगणी से पूर्व गुरु-परंपरा के आदीस्रोत तेरापंथ धर्मसंघ के प्रवर्तक आचार्य भिक्षु थे।
*जन्म एवं परिवार*
आचार्य श्री तुलसी का जन्म वीर निर्वाण 2441 (विक्रम संवत् 1971, ईस्वी सन् 20 अक्टूबर 1914) कार्तिक शुक्ला द्वितीया को राजस्थानांतर्गत लाडनूं के खटेड़ वंश में हुआ। पितामह का नाम राजरूपजी, पिताश्री का नाम झूमरमलजी एवं माता का नाम वदनांजी था। झूमरमलजी की नौ संतानों में ज्येष्ठ श्री मोहनलालजी थे। अपने नौ भाई-बहनों में आपका (तुलसी) क्रम आठवां था।
*अमृतपुरुष आचार्य श्री तुलसी के जीवन-वृत्त* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙
📝 *श्रृंखला -- 547* 📝
*अमृतपुरुष आचार्य श्री तुलसी*
अणुव्रत प्रवर्तक, भारतज्योति, युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी तेरापंथ धर्मसंघ के नवमें पद पर आसीन थे। वे जैन परंपरा के यशस्वी, मनस्वी, वर्चस्वी, तेजस्वी आचार्य थे। संयम के महासूर्य थे। ज्ञान के हिमालय थे। पारदर्शी प्रज्ञा के पारावार थे।
युग नायक, युगपुरुष आचार्य श्री तुलसी का करिश्माई व्यक्तित्व विलक्षण था। उनकी सोच विलक्षण थी। उनकी कार्यशैली विलक्षण थी। उनका कर्तृत्व कमाल का था। निराला था उनके निखरती नेतृत्व का नैपुण्य। निराली थी उनकी सद्यः सटीक निर्णायक शक्ति। गजब की थी उनकी दिमागी स्फुरणा और मिजाज की मस्ती।
कोई भी व्यक्ति जन्म से महान नहीं होता और न कोई एक दिन में महानता की भूमिका पर पहुंच पाता। व्यक्ति का कर्म ही उसको महान बनाता है।
पूज्यप्रवर आचार्य श्री तुलसी अनूठे कर्मशील थे। वे समत्व साधना के शिखर साधक, शौर्य के शलाका पुरुष एवं पुरुषार्थ व पराक्रम के पर्याय थे।
उनकी दिव्य चेतना ने मानव जाति को नव-निर्माण के नए-नए उन्मेष दिए। नई सोच दी, नया चिंतन दिया, नई समझ दी। आगे बढ़ने के लिए सही मंजिल दी।
आचार्य श्री तुलसी मानव की स्वच्छ, प्रशस्त छवि को उकेरने वाले कुशल चितेरे थे। उन्होंने मानवता के कैनवस पर जनोद्धार की सतरंगी रेखाएं खींची एवं नैतिक मूल्यों के इंद्रधनुष रचे। वे असांप्रदायिक धर्म के व्याख्याकार थे। उन्होंने ग्रंथ व पंथ की संकीर्ण दीवारों के घेरे में कैद धर्म और अध्यात्म को जन-जीवन में प्रतिष्ठित कर एक अपूर्व कीर्तिमान स्थापित किया।
प्रगति के उर्ध्वारोही पायदान ऊपर कदम धरते हुए वे युग पुरुष की भूमिका तक पहुंचे। विकास के अनेक स्तरों को पार कर वे सामान्य से असामान्य साधारण से असाधारण बन गए।
उत्क्रांत चेतना के धनी आचार्य श्री तुलसी मानव नहीं महामानव थे। इंसानियत के देवता और बीसवीं सदी के अलौकिक आलोक स्तंभ थे।
*गुरु-परम्परा*
आचार्य श्री तुलसी के दीक्षा-गुरु तेरापंथ धर्मसंघ के अष्टमाचार्य 'कालूगणी' थे। उनके जीवन का बहुमुखी विकास आचार्य कालूगणी के संरक्षण में हुआ। आचार्य कालूगणी से पूर्व गुरु-परंपरा के आदीस्रोत तेरापंथ धर्मसंघ के प्रवर्तक आचार्य भिक्षु थे।
*जन्म एवं परिवार*
आचार्य श्री तुलसी का जन्म वीर निर्वाण 2441 (विक्रम संवत् 1971, ईस्वी सन् 20 अक्टूबर 1914) कार्तिक शुक्ला द्वितीया को राजस्थानांतर्गत लाडनूं के खटेड़ वंश में हुआ। पितामह का नाम राजरूपजी, पिताश्री का नाम झूमरमलजी एवं माता का नाम वदनांजी था। झूमरमलजी की नौ संतानों में ज्येष्ठ श्री मोहनलालजी थे। अपने नौ भाई-बहनों में आपका (तुलसी) क्रम आठवां था।
*अमृतपुरुष आचार्य श्री तुलसी के जीवन-वृत्त* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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🧘♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘♂
🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन
👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला २७९* - *आभामंडल ७*
एक *प्रेक्षाध्यान शिविर में भागलेकर देखें*
आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*
प्रकाशक
*Preksha Foundation*
Helpline No. 8233344482
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🌻 *संघ संवाद* 🌻
🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन
👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला २७९* - *आभामंडल ७*
एक *प्रेक्षाध्यान शिविर में भागलेकर देखें*
आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*
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