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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 219* 📜
*आचार्यश्री भारमलजी*
*महाराणा के दो पत्र*
*केसरजी भंडारी का निश्चय*
विद्वेषियों ने इस विषम स्थिति में भी तेरापंथ के विरुद्ध अपना प्रयास चालू रखा। उन्हें अपनी सफलता की पूरी-पूरी संभावना थी। पर उन सबकी आशाओं पर एक व्यक्ति ने अचानक ही तुषारापात कर दिया। वे थे केसरजी भंडारी। वे महाराणा के पूर्ण विश्वस्त व्यक्तियों में से थे। 'ड्योढ़ी' (अंतःपुर) के कार्याधिकारी होने के कारण उन्हें महाराणा का सान्निध्य सहज प्राप्त था। वे कुछ ही वर्ष पूर्व श्रावक शोभजी के संपर्क से तेरापंथी बने थे। श्रद्धा-आचार सम्बन्धी स्वामीजी के मन्तव्यों को उन्होंने पूरी तरह से समझ लिया था। इतना होने पर भी वे तब तक एक गुप्त श्रावक ही थे। प्रकट में आना चाहते भी नहीं थे। क्योंकि तेरापंथी बनने वालों को कभी-कभी उस समय कठोर सामाजिक-बहिष्कार का सामना करना पड़ता था। वे उस बखेड़े से बचना चाहते थे।
जब आचार्य भारमलजी को उदयपुर से निकलवाया गया, तब भंडारीजी को वह बात खटकी तो बहुत, फिर भी ज्यों-त्यों मन मारकर चुप रह गये। पर जब मेवाड़ से भी निकलवा देने की योजनाएं उनके सामने आईं तो वे एकदम से अपने-आप में संभल गये। उन्हें लगा कि अब गुप्त रहने में कोई लाभ नहीं है। प्रकट रूप में आने से चाहे कितनी भी कठिनाइयां क्यों न आयें, पर संघ की सेवा के लिए ऐसा करना ही होगा। उन्होंने निश्चय किया कि महाराणा से मिलकर उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत किया जाये। विरोधियों ने जो गलत बातें कहकर उन्हें भ्रान्त कर दिया है, उसका निराकरण प्रत्यक्ष मिलकर ही किया जा सकता है।
*यह क्या सूझा है?*
भंडारीजी को महाराणा अपने घर के आदमी की ही तरह समझा करते थे। अन्तःपुर में भी उनका आना-जाना खुला था। वहां की सुरक्षा एवं व्यवस्था का पूरा दायित्व उन्हीं का था। महाराणा से मिलने का अवसर उन्हें अधिक खोजने की आवश्यकता नहीं पड़ी। एकान्त अवसर देखकर वे मिले और सारी स्थिति स्पष्ट करते हुए बोले— 'जो साधु चींटी को भी नहीं सताते, उनको सताकर आप क्या लाभ उठायेंगे? नगर से तो आपने उनको निकलवा ही दिया, पर मैंने सुना है कि मेवाड़ से भी निकालने का विचार किया जा रहा है। आपको यह क्या सूझा है? आपकी आज्ञा होगी तो वे देश छोड़कर भी चले जाएंगे, पर आप इस बात की गांठ बांध लें कि जिस राज्य में संतजनों को सताया जाता है, प्रकृति उसे कभी क्षमा नहीं करती। संतों को नगर से निकलवा देने के पश्चात् जो अप्रिय घटनाएं घटी हैं वे प्रकृति के रोष का ही परिणाम है। अब देश से निकाल कर उस विपत्ति को और बढ़ावा देना, मेरी समझ में तो अच्छा नहीं होगा।'
*भ्रान्ति-निवारण*
महाराणा ने जो भ्रान्तिपूर्ण बातें सुन रखी थीं उन्हीं के आधार पर कहा— 'केसर! तू शायद जानता नहीं। हमने जिनको निकलवाया है, वे अपने नगर में रहने योग्य थे ही नहीं। उनके यहां रहने से दुष्काल की सम्भावना थी। सुना है कि वे वर्षा को रोक देते हैं। दया और दान के भी वे विरोधी हैं। ऐसे संतों को यहां रहने देकर मैं सारी प्रजा को दुःखी कैसे होने देता?'
केसरजी ने महाराणा की भ्रान्ति का निराकरण करते हुए बतलाया कि विराधी व्यक्ति द्वेष-बुद्धि से ही उन पर ये आरोप लगाते हैं, पर आप जैसे व्यक्तियों के लिए किसी के विरुद्ध कोई बात सुनकर यों विश्वास, कर लेना उपयुक्त नहीं है। दुष्काल पड़ने तथा वर्षा को रोकने की बातें केवल भ्रान्तियां हैं। आप इन बातों के सत्य या असत्य होने के विषय में खोज करते तो मेरा विश्वास है कि किसी दूसरे ही निष्कर्ष पर पहुंचते। दया और दान के विषय में भी तेरापंथ की मान्यता को स्पष्ट करते हुए उन्होंने बताया कि वे आध्यात्मिक और लौकिक पक्ष को पृथक्-पृथक् समझने की बात कहते हैं। दया और दान के विरोधी नहीं, किन्तु उन्हें विभिन्न भूमिकाओं से समझना आवश्यक बतलाते हैं। उनकी मान्यता का तात्पर्य यह नहीं है कि दया और दान संसार से उठ जाने चाहिए, किन्तु यह है कि कहीं-कहीं दया और दान की जड़ में मोह भी काम करता है, अतः उस स्थिति में दया और दान का स्वरूप आध्यात्मिक न रहकर लौकिक हो जाता है। दोनों की अपने-अपने स्थानों में उपयोगिता है, पर एक-दूसरे के स्थान पर वे निरुपयोगी हो जाते हैं। संतों का कथन है कि उन दोनों के विषय में सम्यग् ज्ञान होना आवश्यक है।
इन बातों के साथ ही उन्होंने तेरापंथ के उद्भव तथा उसके प्रति होने वाले विरोध आदि की बातें भी महाराणा के सामने रखीं और बतलाया कि इस विषय में अन्य व्यक्तियों ने आपको जो-कुछ बतलाया है वह एकपक्षीय है। आप राजा हैं, अतः आपको दूसरे पक्ष की बातें भी जान लेनी आवश्यक हैं, ताकि किसी के साथ अन्याय न हो।
*क्या तेरापंथ के प्रति महाराणा के रुख में परिवर्तन हुआ...?* जानेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 219* 📜
*आचार्यश्री भारमलजी*
*महाराणा के दो पत्र*
*केसरजी भंडारी का निश्चय*
विद्वेषियों ने इस विषम स्थिति में भी तेरापंथ के विरुद्ध अपना प्रयास चालू रखा। उन्हें अपनी सफलता की पूरी-पूरी संभावना थी। पर उन सबकी आशाओं पर एक व्यक्ति ने अचानक ही तुषारापात कर दिया। वे थे केसरजी भंडारी। वे महाराणा के पूर्ण विश्वस्त व्यक्तियों में से थे। 'ड्योढ़ी' (अंतःपुर) के कार्याधिकारी होने के कारण उन्हें महाराणा का सान्निध्य सहज प्राप्त था। वे कुछ ही वर्ष पूर्व श्रावक शोभजी के संपर्क से तेरापंथी बने थे। श्रद्धा-आचार सम्बन्धी स्वामीजी के मन्तव्यों को उन्होंने पूरी तरह से समझ लिया था। इतना होने पर भी वे तब तक एक गुप्त श्रावक ही थे। प्रकट में आना चाहते भी नहीं थे। क्योंकि तेरापंथी बनने वालों को कभी-कभी उस समय कठोर सामाजिक-बहिष्कार का सामना करना पड़ता था। वे उस बखेड़े से बचना चाहते थे।
जब आचार्य भारमलजी को उदयपुर से निकलवाया गया, तब भंडारीजी को वह बात खटकी तो बहुत, फिर भी ज्यों-त्यों मन मारकर चुप रह गये। पर जब मेवाड़ से भी निकलवा देने की योजनाएं उनके सामने आईं तो वे एकदम से अपने-आप में संभल गये। उन्हें लगा कि अब गुप्त रहने में कोई लाभ नहीं है। प्रकट रूप में आने से चाहे कितनी भी कठिनाइयां क्यों न आयें, पर संघ की सेवा के लिए ऐसा करना ही होगा। उन्होंने निश्चय किया कि महाराणा से मिलकर उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत किया जाये। विरोधियों ने जो गलत बातें कहकर उन्हें भ्रान्त कर दिया है, उसका निराकरण प्रत्यक्ष मिलकर ही किया जा सकता है।
*यह क्या सूझा है?*
भंडारीजी को महाराणा अपने घर के आदमी की ही तरह समझा करते थे। अन्तःपुर में भी उनका आना-जाना खुला था। वहां की सुरक्षा एवं व्यवस्था का पूरा दायित्व उन्हीं का था। महाराणा से मिलने का अवसर उन्हें अधिक खोजने की आवश्यकता नहीं पड़ी। एकान्त अवसर देखकर वे मिले और सारी स्थिति स्पष्ट करते हुए बोले— 'जो साधु चींटी को भी नहीं सताते, उनको सताकर आप क्या लाभ उठायेंगे? नगर से तो आपने उनको निकलवा ही दिया, पर मैंने सुना है कि मेवाड़ से भी निकालने का विचार किया जा रहा है। आपको यह क्या सूझा है? आपकी आज्ञा होगी तो वे देश छोड़कर भी चले जाएंगे, पर आप इस बात की गांठ बांध लें कि जिस राज्य में संतजनों को सताया जाता है, प्रकृति उसे कभी क्षमा नहीं करती। संतों को नगर से निकलवा देने के पश्चात् जो अप्रिय घटनाएं घटी हैं वे प्रकृति के रोष का ही परिणाम है। अब देश से निकाल कर उस विपत्ति को और बढ़ावा देना, मेरी समझ में तो अच्छा नहीं होगा।'
*भ्रान्ति-निवारण*
महाराणा ने जो भ्रान्तिपूर्ण बातें सुन रखी थीं उन्हीं के आधार पर कहा— 'केसर! तू शायद जानता नहीं। हमने जिनको निकलवाया है, वे अपने नगर में रहने योग्य थे ही नहीं। उनके यहां रहने से दुष्काल की सम्भावना थी। सुना है कि वे वर्षा को रोक देते हैं। दया और दान के भी वे विरोधी हैं। ऐसे संतों को यहां रहने देकर मैं सारी प्रजा को दुःखी कैसे होने देता?'
केसरजी ने महाराणा की भ्रान्ति का निराकरण करते हुए बतलाया कि विराधी व्यक्ति द्वेष-बुद्धि से ही उन पर ये आरोप लगाते हैं, पर आप जैसे व्यक्तियों के लिए किसी के विरुद्ध कोई बात सुनकर यों विश्वास, कर लेना उपयुक्त नहीं है। दुष्काल पड़ने तथा वर्षा को रोकने की बातें केवल भ्रान्तियां हैं। आप इन बातों के सत्य या असत्य होने के विषय में खोज करते तो मेरा विश्वास है कि किसी दूसरे ही निष्कर्ष पर पहुंचते। दया और दान के विषय में भी तेरापंथ की मान्यता को स्पष्ट करते हुए उन्होंने बताया कि वे आध्यात्मिक और लौकिक पक्ष को पृथक्-पृथक् समझने की बात कहते हैं। दया और दान के विरोधी नहीं, किन्तु उन्हें विभिन्न भूमिकाओं से समझना आवश्यक बतलाते हैं। उनकी मान्यता का तात्पर्य यह नहीं है कि दया और दान संसार से उठ जाने चाहिए, किन्तु यह है कि कहीं-कहीं दया और दान की जड़ में मोह भी काम करता है, अतः उस स्थिति में दया और दान का स्वरूप आध्यात्मिक न रहकर लौकिक हो जाता है। दोनों की अपने-अपने स्थानों में उपयोगिता है, पर एक-दूसरे के स्थान पर वे निरुपयोगी हो जाते हैं। संतों का कथन है कि उन दोनों के विषय में सम्यग् ज्ञान होना आवश्यक है।
इन बातों के साथ ही उन्होंने तेरापंथ के उद्भव तथा उसके प्रति होने वाले विरोध आदि की बातें भी महाराणा के सामने रखीं और बतलाया कि इस विषय में अन्य व्यक्तियों ने आपको जो-कुछ बतलाया है वह एकपक्षीय है। आप राजा हैं, अतः आपको दूसरे पक्ष की बातें भी जान लेनी आवश्यक हैं, ताकि किसी के साथ अन्याय न हो।
*क्या तेरापंथ के प्रति महाराणा के रुख में परिवर्तन हुआ...?* जानेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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*प्रेरणा पाथेय:-आचार्य श्री महाश्रमणजी - 30 December 2019, का वीडियो-प्रस्तुति~अमृतवाणी*
*संप्रसारक: 🌻संघ संवाद*🌻
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नववर्ष का वृहद मंगलपाठ बेल्लारी (कर्नाटक) में..
https://www.facebook.com/SanghSamvad/
卐🌼🔺🕉अर्हम् 🕉 🔺🌼卐
🌸 *परम पूज्य आचार्यश्री महाश्रमणजी की अहिंसा यात्रा* 🌸
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*(संभावित कार्यक्रम)*
*30 दिसंबर 2019, सोमवार*
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*प्रातःकालीन प्रवास स्थल*
Z.P. High School
D.Hirehal, Andhra Pradesh 515865, India
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*लोकेशन जानने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करे।*
https://maps.app.goo.gl/keeRfLLsZbrNeUB36
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*(संभावित यात्रा- 15.5 k.m)*
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*प्रस्तुति 🌻संघ संवाद*🌻
卐🌼🔺🕉अर्हम् 🕉 🔺🌼卐
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*प्रस्तुति 🌻संघ संवाद*🌻
🧘♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘♂
🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन
👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला ३६२* - *आहार और स्वास्थ्य ९*
एक *प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लेकर देखें*
आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*
प्रकाशक
*Preksha Foundation*
Helpline No. 8233344482
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