Updated on 16.03.2020 08:08
🧘♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘♂🙏 #आचार्य श्री #महाप्रज्ञ जी द्वारा प्रदत मौलिक #प्रवचन
👉 *क्या #विचारों के #प्रवाह को #कम किया जा सकता है: भाग - ३*
एक #प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लेकर देखें
आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*
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Updated on 16.03.2020 08:08
🧘♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘♂🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन
👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला ४३९* ~ *श्वसन और स्वास्थ्य - ११*
एक *प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लेकर देखें*
आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*
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👉 पाली - अंतरराष्ट्रीय वुमन ऑन व्हील्स रैली का भव्य आयोजन👉 विजयनगर- बेंगलुरु~ जैन संस्कार विधि के बढ़ते चरण
👉 बारडोली ~ तिलक होली कार्यक्रम
👉 रायपुर - जैन संस्कार विधि के बढ़ते चरण
👉 सोलापुर ~ तेरापंथ महिला मंडल द्वारा WOW रैली का आयोजन
👉 राऊरकेला-अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर कार्यक्रम
👉 रायगंज - अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर रैली का आयोजन
प्रस्तुति: 🌻 *संघ संवाद* 🌻
Updated on 16.03.2020 08:08
🪔🪔🪔🪔🙏🌸🙏🪔🪔🪔🪔जैन परंपरा में सृजित प्रभावक स्तोत्रों एवं स्तुति-काव्यों में से एक है *भगवान पार्श्वनाथ* की स्तुति में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचित *कल्याण मंदिर स्तोत्र*। जो जैन धर्म की दोनों धाराओं— दिगंबर और श्वेतांबर में श्रद्धेय है। *कल्याण मंदिर स्तोत्र* पर प्रदत्त आचार्यश्री महाप्रज्ञ के प्रवचनों से प्रतिपादित अनुभूत तथ्यों व भक्त से भगवान बनने के रहस्य सूत्रों का दिशासूचक यंत्र है... आचार्यश्री महाप्रज्ञ की कृति...
🔱 *कल्याण मंदिर - अंतस्तल का स्पर्श* 🔱
🕉️ *श्रृंखला ~ 29* 🕉️
*8. प्रभु रहे हृदय में*
गतांक से आगे...
*अणुप्पेहाए णं भंते! जीवे किं जणयह?*
*अणुप्पेहाएणं आउयवज्जाओ सत्तकम्मप्पगडीओ धणियबंधणबद्धाओ सिढिलबंधणबद्धाओ पकरेइ, दीहकालट्ठिइयाओ हस्सकालट्ठिइयाओ पकरेइ, तिव्वाणुभावाओ मंदाणुभावाओ पकरेइ, बहुपएसग्गाओ अप्पपएसग्गाओ पकरेइ। आउयं च णं कंमं सिय बंधइ, सिय नो बंधइ। असायावेयणिज्जं च णं कम्मं नो भुज्जो भुज्जो उवचिणाइ। अणाइयं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकंतारं खिप्पामेव वीइवयइ।*
पूछा गया— भंते! अनुप्रेक्षा से जीव क्या प्राप्त करता है?
अनुप्रेक्षा से जीव आयुष्य-कर्म को छोडकर शेष सात कर्मों की गाढ-बंधन से बंधी हुई प्रकृतियों को शिथिल-बंधन वाली कर देता है, उनकी दीर्घकालीन स्थिति को अल्पकालीन कर देता है, उनके तीव्र अनुभाव को मंद कर देता है। उनके बहु-प्रदेशाग्र को अल्पप्रदेशाग्र में बदल देता है। आयुष्य-कर्म का बंध कदाचित् करता है, कदाचित् नहीं भी करता। असातवेदनीय कर्म का बार-बार उपचय नहीं करता और अनादि-अनन्त लम्बे-मार्ग वाली तथा चतुर्गति रूप चार अन्तों वाली संसार अटवी को तुरंत ही पार कर जाता है।
यह एक सुन्दर प्रक्रिया है। पहले शिथिल करो, फिर उसको समाप्त करो। सीधा समाप्त करना चाहोगे तो वह समाप्त नहीं होगा। एक अच्छी प्रक्रिया का आचार्य ने निर्देश किया है— प्रभो! जब आप मेरे हृदय में प्रतिष्ठित हैं तो फिर मुझे और क्या करने की जरूरत है? बस, आपके हृदय में आते ही बंधन अपने आप ढीले होने शुरू हो गए।
कवि दृष्टान्त या उपमा के द्वारा अपनी बात का समर्थन करते हैं कि जो मैं कह रहा हूं वह कोरी कामना नहीं है।
कवि कहते हैं— चन्दन की सुगंध से सांप आकृष्ट होते हैं। वे चन्दन के पेड़ पर लिपट जाते हैं, उनका बंधन हो जाता है। किन्तु वन का मोर यदि मध्यभाग में आ जाए तो उसे देखते ही सांप के बंधन अपने आप ढीले पड़ जाते हैं। वे वहां से पलायन कर देते हैं।
प्रभो! जब मोर को देखकर नागराज अपने बंधन को छोड़ कर पलायन कर जाता है तो फिर मेरे कर्मों के तीव्र बंधन आपके हृदय में विराजमान होने पर अपने आप ढीले क्यों नहीं होंगे? क्या मुझे कुछ करने की जरूरत रहेगी?
एक पूरी कर्मशास्त्रीय प्रक्रिया है और ध्यान की प्रक्रिया भी है। किसी व्यक्ति को समस्या से मुक्त होना है, बंधन से मुक्त होना है तो वह बंधन को व्यापक अर्थ में समझने का प्रयत्न करे। जितनी समस्याएं, उलझनें, बाधाएं, विघ्न हैं— वे सारे बंधन हैं। एक आदमी समस्याओं से मुक्त होना चाहता है, वह किसी इष्ट का जप शुरू करता है किन्तु जब तक उसको हृदय में प्रतिष्ठित नहीं करता, पूरा काम नहीं होता।
*इष्ट को हृदय में प्रतिष्ठित करने की प्रक्रिया...* के बारे में जानेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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Updated on 16.03.2020 08:08
🌹🌿🌹🌿🌹🌿🌹🌿🌹🌿🌹शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 272* 📜
*श्री जयाचार्य*
*युवाचार्य-पद पर*
*अप्रकट नियुक्ति*
जयाचार्य के जीवन के प्रत्येक पहलू के साथ प्रायः कुछ-न-कुछ नवीनता जुड़ी हुई दिखाई देती है। शायद प्रकृति ने उनके साथ किसी गुप्त रहस्य के तार संयुक्त कर रखे थे। अन्य कार्यों के साथ-साथ उनका युवाचार्य-पद भी इसका अपवाद नहीं रहा। ऋषिराय ने न जाने कौनसी आन्तरिक प्रेरणा से प्रेरित होकर उनको युवाचार्य-पद तब दिया, जब वे वहां से बहुत दूर थे। कुछ अरसे तक उसे प्रकट भी नहीं किया गया। वह सब इस प्रकार क्यों किया गया, यह अपने-आप में आज भी एक गवेषणा का विषय प्रतीत होता है।
मुनि जीतमलजी ने विक्रम सम्वत् 1893 का चतुर्मास बीकानेर में करने के पश्चात् शेषकाल का अधिकांश समय थली में ही व्यतीत किया। उसके पश्चात् विक्रम सम्वत् 1894 का चतुर्मास करने के लिए वे आषाढ़ में पाली पहुंचे। उन्हीं दिनों ऋषिराय मेवाड़ में विहार करते हुए चतुर्मास करने के लिए आषाढ़ के महीने में नाथद्वारा पधारे। वहां उन्होंने एक पत्र लिखकर अपने उत्तराधिकारी के रूप में मुनि जीतमलजी को नियुक्त किया। वह पत्र मुनि सरूपचन्दजी को देते हुए उन्होंने कहा कि अभी इसे प्रकट मत करना। चतुर्मास के पश्चात् जब जीतमल से मिलेंगे, तभी प्रकट करने का विचार है।
*पत्र-प्रेषण*
पाली-चतुर्मास में मुनि जीतमलजी आदि पांच संत थे। चतुर्मास की समाप्ति पर विहार करके वे खेरवा आये। उनके साथ के तपस्वी मुनि रामसुखजी चतुर्मास-काल में की गई लम्बी तपस्या के कारण विहार के लिए पूरे समर्थ नहीं हो पाये थे, अतः उन्हें तथा एक अन्य मुनि को उनकी सेवा में वहीं छोड़कर मुनि जीतमलजी ने 'बड़ी फलोदी' की तरफ विहार कर दिया। वहां से गुरु-दर्शनार्थ मेवाड़ की ओर विहार करते हुए वे 'खीचन' पहुंचे। उधर से ऋषिराय के द्वारा भेजे गये दो साधु भी वहां पहुंच गये। सन्तों ने वन्दन, सुख-पृच्छा आदि के पश्चात् कुछ मौखिक समाचार कहे और फिर स्वयं ऋषिराय द्वारा लिखे गये दो पत्र उनको समर्पित किये। उनमें से एक पत्र बड़ा था और खुला हुआ था। उसमें सुख-साता के समाचार थे तथा उन्हें शीघ्रतापूर्वक पहुंचने के लिए लिखा गया था। दूसरा पत्र छोटा था और बंद था। उसे मुनि जीतमलजी के सिवाय अन्य सन्तों को खोलने व पढ़ने की मनाही थी। वह युवाचार्य-पद की नियुक्ति का पत्र था। मुनि जीतमलजी ने उसे खोलकर पढ़ा तो उनकी आकृति पर एक साथ ही कुछ गम्भीरता छा गई। वे उसे हाथ में लिए हुए कुछ देर तक निःस्पंद-से होकर यों निहारते रहे, मानो उसे दुबारा पढ़ रहे हों। पत्र के पीछे की ओर कुछ भी नहीं लिखा था, फिर भी उन्होंने उसे उलट कर यों देखा मानो जो लिखा हुआ था, वह पर्याप्त न हो और वे कुछ अधिक विस्तार से जानना चाह रहे हों। ऋषिराय के अक्षरों को पहचानते हुए भी उन्हें इतने ध्यान से देखते रहे मानो वे प्रत्येक अक्षर के अन्तःगमों को हृदयंगम कर रहे हों। चिन्तन और मनन की मुद्रा में वे ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो उस पत्र की अलिखित भूमिका का अवगाहन कर रहे हों तथा दूरस्थ आचार्यश्री के मानसिक संकल्पों के साथ तादात्म्य स्थापित करते हुए उन्हें आत्मसात् करने का प्रयास कर रहे हों। वे भावी की आकृति पर कुछ पढ़ रहे थे और पास में खड़े सन्त उनकी आकृति पर कुछ पढ़ लेने का प्रयत्न कर रहे थे।
*मुनि जीतमलजी ने पत्र पढ़ने के बाद क्या निश्चय किया...? युवाचार्य-पद के लिए उनके नाम की घोषणा कब हुई...?* जानेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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