Updated on 18.03.2020 08:16
🧘♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘♂🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन
👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला ४४३* ~ *प्राण ऊर्जा का संवर्धन - ४*
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आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*
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Updated on 18.03.2020 08:16
👉 दलखोला ~ महिला मंडल द्वारा सेवा कार्य👉 राजराजेश्वरी नगर ~ बेंगलुरू- तेयुप द्वारा सेवा कार्य
👉 कोयम्बतूर - अभातेयुप की संगठन यात्रा
👉 विजयनगरम - स्वस्थ परिवार मेरा परिवार मेरा संसार कार्यशाला आयोजित
प्रस्तुति: 🌻 *संघ संवाद* 🌻
Updated on 17.03.2020 11:22
👉 *प्रेरणा पाथेय:-आचार्य श्री महाश्रमणजी - 17 MARCH 2020, का वीडियो-प्रस्तुति~अमृतवाणी**संप्रसारक: 🌻संघ संवाद*🌻
Updated on 17.03.2020 11:22
🪔🪔🪔🪔🙏🌸🙏🪔🪔🪔🪔जैन परंपरा में सृजित प्रभावक स्तोत्रों एवं स्तुति-काव्यों में से एक है *भगवान पार्श्वनाथ* की स्तुति में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचित *कल्याण मंदिर स्तोत्र*। जो जैन धर्म की दोनों धाराओं— दिगंबर और श्वेतांबर में श्रद्धेय है। *कल्याण मंदिर स्तोत्र* पर प्रदत्त आचार्यश्री महाप्रज्ञ के प्रवचनों से प्रतिपादित अनुभूत तथ्यों व भक्त से भगवान बनने के रहस्य सूत्रों का दिशासूचक यंत्र है... आचार्यश्री महाप्रज्ञ की कृति...
🔱 *कल्याण मंदिर - अंतस्तल का स्पर्श* 🔱
🕉️ *श्रृंखला ~ 32* 🕉️
*9. मूल्य दर्शन का*
गतांक से आगे...
भारत में सत्संगति के विषय में बहुत लिखा गया है। सत्संगति का मतलब क्या है? ऐसे पुरुषों की संगति करो, जिनकी लेश्या शुद्ध है, जिनका भाव शुद्ध है, जिनका आभामंडल शुद्ध है। उनके पास जाओ, तुम्हारे भाव भी अच्छे बन जाएंगे। बुरे लोगों की संगति में जाओगे तो तुम्हारे भाव भी बुरे हो जाएंगे। कोई आदमी शराब पीकर किसी के पास जाकर बैठता है तो उस पर भी असर हो जाता है। आजकल यह कहा जाता है कि कोई बीड़ी, सिगरेट पीता है, धुआं छोड़ता है, उसके पास मत बैठो। बीड़ी-सिगरेट पीने से फेफड़े रुग्ण हो जाते हैं। धुआं पास में जाएगा तो सिगरेट न पीने वाले पर भी उसका असर हो जाएगा।
सभी धर्म-दर्शनों में सत्संगति का महत्त्व बताया गया है। इसका तात्पर्य समझें। जिसका आभामंडल अच्छा है, पवित्र है, उस आदमी के पास बैठने से आभामंडल अच्छा होगा, व्यवहार बदल जाएगा। बुरे प्रकंपनों के संपर्क से अच्छा आदमी भी बुरा बनना शुरू हो जाता है।
आचार्य ने एक रहस्यपूर्ण बात कह दी— प्रभो! आपके दर्शन से, आपको देखने मात्र से ही आदमी उपद्रवों से मुक्त हो जाते हैं।
हर व्यक्ति के जीवन में उपद्रव आते हैं। कभी ग्रहों का उपद्रव, कभी प्रकृति का उपद्रव, कभी भूकंप का उपद्रव। एक भूकंप भूमि के नीचे से आता है, उपद्रव करता है और कुछ विकिरण ऊपर से आते हैं, उपद्रव करते हैं। मध्यलोक में जहां हम रहते हैं, इतने कीटाणु भरे हैं कि वे उपद्रव करते रहते हैं। एक आदमी दूसरे आदमी के सामने उपद्रव करता है, पशु भी उपद्रव करता है। इतना ही नहीं, सूक्ष्म जीवों का जगत् जितना उपद्रव करता है, स्थूल आदमी उतना नहीं कर सकता।
हमारे शरीर के भीतर भी सूक्ष्म जीव हैं— बैक्टीरिया, वे बहुत उपद्रव कर रहे हैं। बीमारी का एक कारण है— बैक्टीरिया का बढ़ जाना। डॉक्टर भण्डारी ने बताया— आदमी ऐन्टिबायोटिक दवा लेता है किन्तु वह काम नहीं करती। वे कीटाणु अपने ऊपर एक खोल बना लेते हैं, सुरक्षा कवच बना लेते हैं। जब तक उस ऐन्टिबायोटिक का असर रहता है वे उस खोल में चले जाते हैं। जब असर मिट जाता है, बाहर आकर पुनः उपद्रव करने लग जाते हैं। सूक्ष्म जीव सबसे अधिक समस्याएं पैदा कर रहे हैं।
उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया— *'सुहमा सव्वलोयम्मि लोगदेसे य बायरा'* सूक्ष्म जीव पूरे लोक में व्याप्त हैं। बादर तो बहुत थोड़े हिस्से में हैं। जो जीव निश्चय दृष्टि से सूक्ष्म हैं वे हमें सताते नहीं हैं, किन्तु जो स्थूल जगत् में सूक्ष्म बन गए हैं उनका प्रवेश सर्वत्र है। उनके प्रवेश में कहीं बाधा नहीं आती। वे चाहे जहां शरीर में घुस जाते हैं फिर सताते रहते हैं, उपद्रव करते रहते हैं।
उपद्रव से इस दुनिया में कोई नहीं बन सकता। कोई यह दावा करे कि मैं उपद्रव से मुक्त रहूंगा तो यह उसकी भ्रांति है। पर आदमी ने उपाय खोजे हैं। उपद्रव से मुक्त होने का एक उपाय है— दर्शन। परमात्मा का दर्शन करते रहो, पवित्र आत्मा का दर्शन करते रहो, तुम उपद्रवों से मुक्त रह सकोगे। मन में प्रश्न पैदा हुआ— दर्शन कैसे करें? वे स्वयं सामने नहीं हैं, उनका तो फोटो भी सामने नहीं है, फिर कैसे करें? समाधान की भाषा में कहा गया— प्रभु को हृदय में स्थापित कर लो, एक मानसिक चित्र बना लो। मानसिक चित्र बनाकर उसे देखते रहो।
प्रस्तुत श्लोक का अर्थ साधना की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। हर व्यक्ति को सोचना चाहिए कि मैं ज्यादा दर्शन किसका करूं? व्यक्ति बाह्य जगत् में जीता है, सबको देखता है। कभी-कभी मन में आता है— प्रतिक्रमण का समय है, लोग हमारे दर्शन करने आ रहे हैं। दर्शन तो आत्मा का करना चाहिए पर दर्शन किसका होता है? अगर प्रतिक्रमण करें, ध्यान में रहें और वंदना स्वीकार न करें तो लोग कहेंगे— हम तो गए, वंदना स्वीकार ही नहीं की, समस्या पैदा हो जाएगी। दर्शन होना चाहिए किसी का और होता है किसी का। यह व्यवहार है, व्यवहार में बहुत कुछ करना पड़ता है। वस्तुतः दर्शन अपने भीतर चलता रहे, बाह्य जगत् को देखते हुए भी अंतःदर्शन में स्थिरता को बनाए रखे। बाहर को देखे बिना काम नहीं चलता, देखना पड़ता है। पता नहीं कितनी दृष्टियों से किन-किन को देखना पड़ता है, अलग-अलग दृष्टियों से भिन्न-भिन्न व्यक्तियों को देखते हैं। अगर दर्शन शुद्ध नहीं हो तो अनेक विकृतियां भी पैदा हो सकती हैं।
*आत्मदर्शन के महत्व को...* समझेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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Updated on 17.03.2020 11:22
🌹🌿🌹🌿🌹🌿🌹🌿🌹🌿🌹शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 275* 📜
*श्री जयाचार्य*
*युवाचार्य-पद पर*
*तपस्वी गुलाबजी का बखेड़ा*
गतांक से आगे...
पुर में पधार कर ऋषिराय बाजार में विराजे। वे जिन दुकानों में ठहरे थे, उनके पास वाली दुकान में ही मुनि गुलाबजी ठहरे हुए थे। वहां युवाचार्यश्री ने परिषद् के सामने मुनि गुलाबजी की शंकाओं का समाधान किया। लगभग दो वर्ष पूर्व भी उनके ऐसी शंकाएं पड़ी थी। उस समय उनके इकतालीस शंकाएं थीं। उनका निराकरण भी जयाचार्य ने ही किया था। उन शंकाओं की निवृत्ति पर उन्होंने एक लिखित प्रतिज्ञा की थी। उसके अनुसार उन्हें किसी भी साधु-साध्वी की निन्दा करने का त्याग था। युवाचार्यश्री ने लिखित प्रतिज्ञा वाला वह पत्र भी जनता को दिखलाया।
तपस्वी गुलाबजी यह सब अन्दर बैठे सुन रहे थे। वे बाहर आए और कहने लगे— 'स्वामीजी की सब बातें मुझे स्वीकार हैं, किन्तु जो लोग पहले तो नियमों का पालन कठोरता से करते थे, पर अब ढीले पड़ गये, उनकी बात कैसे मानी जाए?'
युवाचार्यश्री ने कहा— 'दो वर्ष पहले जो पत्र लिखकर दिया था, उसमें आपने संघ को पूर्णतः विशुद्ध स्वीकार किया है। उस समय तक यदि हम ठीक थे तो उसके पश्चात् कौनसी ढिलाई आ गई? आपने साधु-साध्वियों की निन्दा करने का त्याग किया था। कम-से-कम अपने उस नियम का तो ध्यान रखते।'
मुनि गुलाबजी ने कहा— 'मेरा त्याग भंग हुआ है, उसका मुझे दण्ड ही तो आयेगा, सिर थोड़े ही कटेगा? पर बात तो जैसी होगी वही कही जाएगी।' इस प्रकार बोलते हुए वे युवाचार्यश्री के उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही वापस अन्दर चले गये।
दूसरे दिन सायंकाल में युवाचार्यश्री को अकेला देखकर मुनि गुलाबजी कहने लगे— 'मैं तो गले तक भरा हुआ हूं, पर किससे कहूं? कोई मेरी बात सुनने वाला भी नहीं है।'
युवाचार्यश्री ने उनके मानसिक उभाड़ को शांत करने के लिये उपयुक्त समय समझकर सायंकालीन प्रतिक्रमण के पश्चात् ऋषिराय से वहां जाने की आज्ञा ली। वे 'नेवों' के नीचे से वहां पधारे और तपस्वी गुलाबजी से बोले— 'आप कहते थे कि मेरी बात सुनने वाला कोई नहीं है। कहिए, मैं आपकी बातें सुनने के लिए आया हूं।'
मुनि गुलाबजी ने तब लगभग दो घंटे तक अनाप-शनाप बातें कहकर अपने मन की भड़ास निकाली। उन्होंने अनेक मुनियों की नामपूर्वक कटु आलोचना करते हुए कहा— 'ये सब ढोंगी हैं। किसी में भी विराग-भावना नहीं है। मैं इन सबकी दुर्बलताओं को अच्छी तरह से जानता हूं। केवल आपका कोई दुर्बल पक्ष मेरे हाथ नहीं लगा। कह नहीं सकता, आप में विराग की बहुलता है या छलना की?'
युवाचार्यश्री केवल एक श्रोता के रूप में ध्यान देकर ऊंची-नीची सब बातें शान्तिपूर्वक सुनते रहे। जब वे सब-कुछ कह चुके तब उन्होंने मिठास से एक-एक आलोचना का उत्तर देना प्रारम्भ किया। उनकी मुख्य शंकाओं का भी उन्होंने धैर्यपूर्वक समाधान किया। मुनि गुलाबजी को यह स्वप्न में भी विश्वास नहीं था कि उनकी बातों को कोई इतनी शान्ति से सुन लेगा और उत्तर भी देगा। वे तो अपने प्रश्नों को ऐसा मान बैठे थे कि मानो उनका कोई उत्तर हो ही नहीं सकता। परन्तु अब उन उत्तरों के सामने उन्हें लगने लगा कि वे वस्तुतः कोई गहराई लिए हुए नहीं थे।
युवाचार्य ने तीसरे दिन मुनि गुलाबजी के साथी तपस्वी मुनि उदयचन्दजी को भी सारी बातें समझाईं। उनके भी वे ध्यान में बैठ गयीं। अब वे स्वयं ही मुनि गुलाबजी की बातों का उत्तर देने लगे। मुनि गुलाबजी जब अपने साथी को भी निरुत्तर नहीं कर सके तब उन्हें अपनी बातों की साधारणता का अच्छी तरह से भान हो गया। वे युवाचार्यश्री से बोले— 'अब मेरे मन में कोई शंका नहीं है, अतः संघ की निन्दा आदि करने में जो दोष लगा है, उसका दण्ड देकर मुझे आराधक बना दें।'
युवाचार्यश्री ने कहा— 'प्रायश्चित्त के विषय में कम या अधिक देने का भ्रम हो सकता है, अतः अच्छा हो कि जिस पर आपका अधिक-से-अधिक विश्वास हो उस व्यक्ति को आप स्वयं ही प्रायश्चित्त देने के लिये चुन लें। इसके लिए मैं ऋषिराय से स्वीकृति दिलाने का प्रयास करूंगा।'
मनि गुलाबजी ने कहा— 'आप पर मेरा पूर्ण विश्वास है, अतः आप जो भी दण्ड देंगे वह मुझे स्वीकार होगा।'
युवाचार्यश्री ने तब उनको पूर्णतः सरलमना होकर ऋषिराय से प्रायश्चित्त मांगने का परामर्श दिया। इस पर तीनों ही सन्त युवाचार्यश्री के साथ ऋषिराय के पास आ गये और विधिपूर्वक वंदन करके जनता के सामने ही प्रायश्चित्त की याचना करने लगे। लोगों को इस पर बड़ा ही आश्चर्य हुआ। किसी को यह विश्वास नहीं था कि अब उन्हें समझाया जा सकेगा। कुछ गृहस्थ उनके पक्षधर बनकर संघ की निंदा करने लगे थे, उनकी स्थिति अत्यन्त हास्यास्पद हो गई, जब ऋषिराय ने दण्ड देकर वापस गण में ले लिया।
उक्त गड़बड़ में यदि प्रारम्भ से ही दृढ़ता से काम नहीं लिया जाता और मुनि गुलाबजी की शर्ते मान ली जाती तो सम्भव है, बात का अन्त संघ के लिये इतना अनुकूल नहीं निकल पाता, जितना उस क्रम से निकला। युवाचार्यश्री ने अपनी प्रशासनिक सूझ-बूझ से उस सारे बखेड़े को बहुत ही सरलता से सुलझा लिया।
*युवाचार्य जय गुरु के सामान्य से संकेत को भी आज्ञा जितना ही महत्व दिया करते थे...* जानेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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🌸 *परम पूज्य आचार्यश्री महाश्रमणजी की अहिंसा यात्रा* 🌸
卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐
*(संभावित कार्यक्रम)*
*17 मार्च 2020, मंगलवार*
卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐
*प्रवास स्थल*
K. Dutta Rao Bhakre School & College
Andhalgaon, Near Patkhal, Maharashtra 413305, India
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*लोकेशन जानने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करे*
https://maps.app.goo.gl/wmYats2J3myYE8Ts6
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*(संभावित यात्रा - 10.8 k.m.)*
*साध्वी प्रमुखाश्री जी (संभावित यात्रा - 13 k.m)*
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*प्रस्तुति 🌻संघ संवाद*🌻
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