🧘♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘♂
🙏 #आचार्य श्री #महाप्रज्ञ जी द्वारा प्रदत मौलिक #प्रवचन
👉 *#प्रतिक्रिया #से #कैसे #बचें: भाग - ४*
एक #प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लेकर देखें
आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*
प्रकाशक
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🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन
👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला ४४७* ~ *प्राण ऊर्जा का संवर्धन - ८*
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📍 *अतिमहत्वपूर्ण संवाद*
🔅
पूज्यप्रवर की अहिंसा यात्रा 7 अप्रेल तक एक स्थान पर विराजमान
🌻 *संघ संवाद* 🌻
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पूज्यप्रवर की अहिंसा यात्रा 7 अप्रेल तक एक स्थान पर विराजमान
🌻 *संघ संवाद* 🌻
🪔🪔🪔🪔🙏🌸🙏🪔🪔🪔🪔
जैन परंपरा में सृजित प्रभावक स्तोत्रों एवं स्तुति-काव्यों में से एक है *भगवान पार्श्वनाथ* की स्तुति में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचित *कल्याण मंदिर स्तोत्र*। जो जैन धर्म की दोनों धाराओं— दिगंबर और श्वेतांबर में श्रद्धेय है। *कल्याण मंदिर स्तोत्र* पर प्रदत्त आचार्यश्री महाप्रज्ञ के प्रवचनों से प्रतिपादित अनुभूत तथ्यों व भक्त से भगवान बनने के रहस्य सूत्रों का दिशासूचक यंत्र है... आचार्यश्री महाप्रज्ञ की कृति...
🔱 *कल्याण मंदिर - अंतस्तल का स्पर्श* 🔱
🕉️ *श्रृंखला ~ 36* 🕉️
*10. कौन है तारक?*
गतांक से आगे...
सफलता का सूत्र है— एकात्मकता। सेवक-स्वामी, मालिक-नौकर में पारस्परिक एकात्मकता नहीं है तो काम अच्छा नहीं होगा, काम में सफलता भी नहीं मिलेगी। एकात्मकता से काम शीघ्र संपन्न हो जाता है।
एक है विवशता और एक है एकात्मकता। मालिक और नौकर बहुत झगड़ा करते थे। मैंने (ग्रंथकार आचार्यश्री महाप्रज्ञ) इस बात को अनेक बार सुना। एक दिन मैंने मालिक से कहा— 'तुम दोनों इतने अधिक क्यों लड़ते हो? कारण क्या है?'
वह बोला— 'दोनों का स्वभाव ही ऐसा बन गया।'
'कभी सोचते भी हो कि इसे (नौकर को) छोड़ दूं।'
'यह तो नहीं सोचता। इसलिए कि इसके बिना मेरा काम नहीं चलता।'
'यदि वह ऐसा सोच ले तो?'
'नौकर भी ऐसा नहीं सोच सकता क्योंकि मेरे बिना उसका काम नहीं चलता।'
यह विवशता है, एकात्मकता नहीं है। विवशता में कोई सफलता नहीं मिलती। वहां लड़ाई-झगड़ा चलता रहेगा, समस्या उलझती रहेगी। जब यह एकात्मकता हो जाती है— स्वामी का नुकसान मेरा नुकसान है, तो स्थिति बदल जाती है। आजकल अनेक लोग भागीदार या साझीदार बनकर व्यापार करते हैं। मैंने कई लोगों से कहा— 'ऐसा क्यों करते हैं?' उनका उत्तर होता है— 'इससे हम निश्चिंत हो जाते हैं। नौकरी देते हैं तो खतरा रहता है। जब पार्टनर बना दिया तो वह सही बताएगा। इसलिए कि जितना बताएगा, उतना लाभ मिलेगा।'
हम भी इन महापुरुषों के पार्टनर बन जाएं, बीच में दूरी न रहे। उनका लाभ हमारा लाभ, हमारा लाभ उनका लाभ। यही बात इस श्लोक से प्रतिध्वनित हो रही है कि भगवान् के साथ हमारी एकात्मकता जुड़ जाए। यह विवशता नहीं है। इससे मुझे भी लाभ है, उन्हें भी लाभ है। उनका तो यश हो रहा है। मुझे लाभ यह है कि मेरी समस्या सुलझ रही है। यह एकात्मकता होने पर हमारा काम अच्छा हो सकता है।
प्रस्तुत श्लोक में हृदय-देश में धारण करने की निष्पत्ति का भी चित्रण है। दो धाराएं एक साथ नहीं रह सकती। या तो हमारे चित्त में अशुभ भाव रहेगा, औदयिक भाव रहेगा या शुद्ध भाव, क्षायोपशमिक भाव रहेगा। जितना-जितना क्षायोपशमिक भाव रहता है, उतना-उतना आदमी तरता है। जितना औदयिक भाव रहता है, आदमी उतना ही डूबता है। प्रभु भीतर हृदय में विराजमान है, शुभ भाव है, क्षायोपशमिक भाव है तो अशुभ भाव भीतर नहीं आयेगा।
हम इस श्लोक से यह बोधपाठ ले सकते हैं कि हृदय में, अंतःकरण में, चित्त में, मस्तिष्क में एक पवित्र आत्मा की स्थापना करें। मस्तिष्क के अग्रभाग पर एक अर्हत की प्रतिमा स्थापित करें। अर्हत् का चित्र कहां होता है? मस्तिष्क में अर्हत् की कल्पना की जाती है, मानसिक चित्र बनाया जाता है। अर्हत् स्थापित रहता है, सामने आता रहता है तो उपद्रव, विघ्न-बाधा समाप्त हो जाती है। जितने अशुभ भाव हैं, उपद्रव, अवरोध हैं, वे सब दूर हो जाते हैं।
आचार्य सिद्धसेन ने इस श्लोक में बहुत हृदयस्पर्शी तथ्य प्रस्तुत किया है— अगर तुम अपनी आत्मा का कल्याण करना चाहते हो, तीर्थकर की उपासना करना चाहते हो तो दर्शन की कला को समझो, दर्शन का प्रयत्न करो और हृदय में प्रभु को धारण करो। जैसे मशक को हवा तारती है वैसे ही वह तुम्हारे लिए तारक बन जाएगा।
*स्तुति के एक पक्ष जितेन्द्रियता...* के बारे में जानेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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जैन परंपरा में सृजित प्रभावक स्तोत्रों एवं स्तुति-काव्यों में से एक है *भगवान पार्श्वनाथ* की स्तुति में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचित *कल्याण मंदिर स्तोत्र*। जो जैन धर्म की दोनों धाराओं— दिगंबर और श्वेतांबर में श्रद्धेय है। *कल्याण मंदिर स्तोत्र* पर प्रदत्त आचार्यश्री महाप्रज्ञ के प्रवचनों से प्रतिपादित अनुभूत तथ्यों व भक्त से भगवान बनने के रहस्य सूत्रों का दिशासूचक यंत्र है... आचार्यश्री महाप्रज्ञ की कृति...
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🕉️ *श्रृंखला ~ 36* 🕉️
*10. कौन है तारक?*
गतांक से आगे...
सफलता का सूत्र है— एकात्मकता। सेवक-स्वामी, मालिक-नौकर में पारस्परिक एकात्मकता नहीं है तो काम अच्छा नहीं होगा, काम में सफलता भी नहीं मिलेगी। एकात्मकता से काम शीघ्र संपन्न हो जाता है।
एक है विवशता और एक है एकात्मकता। मालिक और नौकर बहुत झगड़ा करते थे। मैंने (ग्रंथकार आचार्यश्री महाप्रज्ञ) इस बात को अनेक बार सुना। एक दिन मैंने मालिक से कहा— 'तुम दोनों इतने अधिक क्यों लड़ते हो? कारण क्या है?'
वह बोला— 'दोनों का स्वभाव ही ऐसा बन गया।'
'कभी सोचते भी हो कि इसे (नौकर को) छोड़ दूं।'
'यह तो नहीं सोचता। इसलिए कि इसके बिना मेरा काम नहीं चलता।'
'यदि वह ऐसा सोच ले तो?'
'नौकर भी ऐसा नहीं सोच सकता क्योंकि मेरे बिना उसका काम नहीं चलता।'
यह विवशता है, एकात्मकता नहीं है। विवशता में कोई सफलता नहीं मिलती। वहां लड़ाई-झगड़ा चलता रहेगा, समस्या उलझती रहेगी। जब यह एकात्मकता हो जाती है— स्वामी का नुकसान मेरा नुकसान है, तो स्थिति बदल जाती है। आजकल अनेक लोग भागीदार या साझीदार बनकर व्यापार करते हैं। मैंने कई लोगों से कहा— 'ऐसा क्यों करते हैं?' उनका उत्तर होता है— 'इससे हम निश्चिंत हो जाते हैं। नौकरी देते हैं तो खतरा रहता है। जब पार्टनर बना दिया तो वह सही बताएगा। इसलिए कि जितना बताएगा, उतना लाभ मिलेगा।'
हम भी इन महापुरुषों के पार्टनर बन जाएं, बीच में दूरी न रहे। उनका लाभ हमारा लाभ, हमारा लाभ उनका लाभ। यही बात इस श्लोक से प्रतिध्वनित हो रही है कि भगवान् के साथ हमारी एकात्मकता जुड़ जाए। यह विवशता नहीं है। इससे मुझे भी लाभ है, उन्हें भी लाभ है। उनका तो यश हो रहा है। मुझे लाभ यह है कि मेरी समस्या सुलझ रही है। यह एकात्मकता होने पर हमारा काम अच्छा हो सकता है।
प्रस्तुत श्लोक में हृदय-देश में धारण करने की निष्पत्ति का भी चित्रण है। दो धाराएं एक साथ नहीं रह सकती। या तो हमारे चित्त में अशुभ भाव रहेगा, औदयिक भाव रहेगा या शुद्ध भाव, क्षायोपशमिक भाव रहेगा। जितना-जितना क्षायोपशमिक भाव रहता है, उतना-उतना आदमी तरता है। जितना औदयिक भाव रहता है, आदमी उतना ही डूबता है। प्रभु भीतर हृदय में विराजमान है, शुभ भाव है, क्षायोपशमिक भाव है तो अशुभ भाव भीतर नहीं आयेगा।
हम इस श्लोक से यह बोधपाठ ले सकते हैं कि हृदय में, अंतःकरण में, चित्त में, मस्तिष्क में एक पवित्र आत्मा की स्थापना करें। मस्तिष्क के अग्रभाग पर एक अर्हत की प्रतिमा स्थापित करें। अर्हत् का चित्र कहां होता है? मस्तिष्क में अर्हत् की कल्पना की जाती है, मानसिक चित्र बनाया जाता है। अर्हत् स्थापित रहता है, सामने आता रहता है तो उपद्रव, विघ्न-बाधा समाप्त हो जाती है। जितने अशुभ भाव हैं, उपद्रव, अवरोध हैं, वे सब दूर हो जाते हैं।
आचार्य सिद्धसेन ने इस श्लोक में बहुत हृदयस्पर्शी तथ्य प्रस्तुत किया है— अगर तुम अपनी आत्मा का कल्याण करना चाहते हो, तीर्थकर की उपासना करना चाहते हो तो दर्शन की कला को समझो, दर्शन का प्रयत्न करो और हृदय में प्रभु को धारण करो। जैसे मशक को हवा तारती है वैसे ही वह तुम्हारे लिए तारक बन जाएगा।
*स्तुति के एक पक्ष जितेन्द्रियता...* के बारे में जानेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 279* 📜
*श्री जयाचार्य*
*युवाचार्य-पद पर*
*चोटी तेरे हाथ में है*
जयाचार्य संघ की व्यवस्था में साधारण मुनि अवस्था से ही प्रायः रुचि रखने लगे थे। युवाचार्य बना देने के पश्चात् तो उस विषय में अधिक सजग रहने की प्रवृत्ति स्वाभाविक ही थी। ऋषिराय समय-समय पर सन्तों को अनेक प्रकार की बख्शीशें करते रहे थे। किसी को उन्होंने पृथक् विहार-क्षेत्र देने का वचन दिया था तो किसी को चतुर्थ मुनि देने का और किसी को कोई प्रति देने का। इस प्रकार विभिन्न व्यक्तियों को उन्होंने लिखित रूप में विभिन्न छूटें दी थीं। युवाचार्यश्री संघ की एकसूत्रता बनाये रखने में इस क्रम को बाधक समझते थे। विक्रम सम्वत् 1902 पौष कृष्णा 11 को बीठोड़ा के बाहर तालाब के पास वृक्षों की छाया में एक बार ऋषिराय पीछे आने वाले सन्तों की प्रतीक्षा कर रहे थे। युवाचार्यश्री उनके पास थे। एकान्त का अवसर देखकर उन्होंने ऋषिराय से उस विषय में प्रार्थना करते हुए कहा— 'पृथक्-पृथक् विहार क्षेत्र दे देने से कालान्तर में अन्य सम्प्रदायों की तरह यहां भी वैसी स्थिति पैदा होने की सम्भावना हो सकती है, जिससे एक सिंघाड़े के क्षेत्र में दूसरे सिंघाड़े का चले जाना असह्य लगने लगे। अधिक छूटें संघ में पारस्परिक भेद खड़ा कर सकती हैं। इसलिए इसमें संकोच से ही काम लेना आवश्यक लगता है।'
युवाचार्यश्री का यह कथन ऋषिराय को उपयुक्त लगा। उन्होंने संक्षिप्त-सा उत्तर देते हुए कहा— 'छूटें तो में दे चुका हूं, परन्तु किसी क्षेत्र या व्यक्ति का मैंने नाम नहीं खोला है, अतः चोटी तो तेरे हाथ में ही रहेगी। जब जैसा अवसर देखे, वैसे ही कार्य सलटा लेना।'
*नागौर-पट्टी*
ऋषिराय के द्वारा दी गई छूटों ने जयाचार्य के पदारूढ़ होते ही अपना रंग दिखाना प्रारम्भ कर दिया, परन्तु 'चोटी तेरे हाथ में है'— ऋषिराय के उक्त वाक्य को आधार बना कर जयाचार्य ने उस समस्या का हल सहज ही निकाल लिया। एक बार मुनि छोगजी जयाचार्य के पास आए और ऋषिराय द्वारा प्रदत्त वचन का लिखित पत्र दिखाते हुए अपने लिये स्वतंत्र विहार-क्षेत्र प्रदान करने की मांग करने लगे।
जयाचार्य ने फरमाया— 'तुम्हें नागौर-पट्टी दी जाती है। यहां स्वतंत्र रूप से विचरो और जनोपकार करो।'
नागौर-पट्टी में श्रद्धा के घर विशेष नहीं थे, अतः उनका मन उस क्षेत्र को पाकर सन्तुष्ट नहीं हो सका। उन्होंने कहा— 'यह तो नहीं, कोई दूसरा क्षेत्र दीजिए।'
जयाचार्य ने कहा— 'लेना हो तो यही क्षेत्र है। दूसरा क्षेत्र देने का अभी कोई विचार नहीं है।'
वे उस क्षेत्र के लिये इनकार करके उस समय तो चले गये, पर कुछ देर पश्चात् ही पुनः आए और कहने लगे— 'अच्छा, तो मैं नागौर-पट्टी में ही विहार कर लूंगा। वही दे दीजिए।
जयाचार्य ने कहा— 'नहीं, अब नहीं। वह तो उस समय की बात थी। उस समय तुमने स्वीकार नहीं किया, अब मुझे स्वीकार नहीं है।'
जयाचार्य के उस दृढ़ रुख का अन्य साधुओं पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि फिर किसी ने पृथक् पट्टी की मांग करने का साहस ही नहीं किया। संघ की आन्तरिक व्यवस्था में उन्होंने प्रारम्भ से ही अपनी प्रतिभा का जो उपयोग किया, वह उनकी योग्यता का परिचायक तो था ही, साथ ही संघ की उन्नति और संगठन की रष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण था।
*श्रीमद् जयाचार्य एक महान् आचार्य थे... उनके आचार्यकाल...* के बारे में जानेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
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*श्री जयाचार्य*
*युवाचार्य-पद पर*
*चोटी तेरे हाथ में है*
जयाचार्य संघ की व्यवस्था में साधारण मुनि अवस्था से ही प्रायः रुचि रखने लगे थे। युवाचार्य बना देने के पश्चात् तो उस विषय में अधिक सजग रहने की प्रवृत्ति स्वाभाविक ही थी। ऋषिराय समय-समय पर सन्तों को अनेक प्रकार की बख्शीशें करते रहे थे। किसी को उन्होंने पृथक् विहार-क्षेत्र देने का वचन दिया था तो किसी को चतुर्थ मुनि देने का और किसी को कोई प्रति देने का। इस प्रकार विभिन्न व्यक्तियों को उन्होंने लिखित रूप में विभिन्न छूटें दी थीं। युवाचार्यश्री संघ की एकसूत्रता बनाये रखने में इस क्रम को बाधक समझते थे। विक्रम सम्वत् 1902 पौष कृष्णा 11 को बीठोड़ा के बाहर तालाब के पास वृक्षों की छाया में एक बार ऋषिराय पीछे आने वाले सन्तों की प्रतीक्षा कर रहे थे। युवाचार्यश्री उनके पास थे। एकान्त का अवसर देखकर उन्होंने ऋषिराय से उस विषय में प्रार्थना करते हुए कहा— 'पृथक्-पृथक् विहार क्षेत्र दे देने से कालान्तर में अन्य सम्प्रदायों की तरह यहां भी वैसी स्थिति पैदा होने की सम्भावना हो सकती है, जिससे एक सिंघाड़े के क्षेत्र में दूसरे सिंघाड़े का चले जाना असह्य लगने लगे। अधिक छूटें संघ में पारस्परिक भेद खड़ा कर सकती हैं। इसलिए इसमें संकोच से ही काम लेना आवश्यक लगता है।'
युवाचार्यश्री का यह कथन ऋषिराय को उपयुक्त लगा। उन्होंने संक्षिप्त-सा उत्तर देते हुए कहा— 'छूटें तो में दे चुका हूं, परन्तु किसी क्षेत्र या व्यक्ति का मैंने नाम नहीं खोला है, अतः चोटी तो तेरे हाथ में ही रहेगी। जब जैसा अवसर देखे, वैसे ही कार्य सलटा लेना।'
*नागौर-पट्टी*
ऋषिराय के द्वारा दी गई छूटों ने जयाचार्य के पदारूढ़ होते ही अपना रंग दिखाना प्रारम्भ कर दिया, परन्तु 'चोटी तेरे हाथ में है'— ऋषिराय के उक्त वाक्य को आधार बना कर जयाचार्य ने उस समस्या का हल सहज ही निकाल लिया। एक बार मुनि छोगजी जयाचार्य के पास आए और ऋषिराय द्वारा प्रदत्त वचन का लिखित पत्र दिखाते हुए अपने लिये स्वतंत्र विहार-क्षेत्र प्रदान करने की मांग करने लगे।
जयाचार्य ने फरमाया— 'तुम्हें नागौर-पट्टी दी जाती है। यहां स्वतंत्र रूप से विचरो और जनोपकार करो।'
नागौर-पट्टी में श्रद्धा के घर विशेष नहीं थे, अतः उनका मन उस क्षेत्र को पाकर सन्तुष्ट नहीं हो सका। उन्होंने कहा— 'यह तो नहीं, कोई दूसरा क्षेत्र दीजिए।'
जयाचार्य ने कहा— 'लेना हो तो यही क्षेत्र है। दूसरा क्षेत्र देने का अभी कोई विचार नहीं है।'
वे उस क्षेत्र के लिये इनकार करके उस समय तो चले गये, पर कुछ देर पश्चात् ही पुनः आए और कहने लगे— 'अच्छा, तो मैं नागौर-पट्टी में ही विहार कर लूंगा। वही दे दीजिए।
जयाचार्य ने कहा— 'नहीं, अब नहीं। वह तो उस समय की बात थी। उस समय तुमने स्वीकार नहीं किया, अब मुझे स्वीकार नहीं है।'
जयाचार्य के उस दृढ़ रुख का अन्य साधुओं पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि फिर किसी ने पृथक् पट्टी की मांग करने का साहस ही नहीं किया। संघ की आन्तरिक व्यवस्था में उन्होंने प्रारम्भ से ही अपनी प्रतिभा का जो उपयोग किया, वह उनकी योग्यता का परिचायक तो था ही, साथ ही संघ की उन्नति और संगठन की रष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण था।
*श्रीमद् जयाचार्य एक महान् आचार्य थे... उनके आचार्यकाल...* के बारे में जानेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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卐🌼🔺🕉अर्हम् 🕉 🔺🌼卐
🌸 *परम पूज्य आचार्यश्री महाश्रमणजी की अहिंसा यात्रा* 🌸
卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐
*(संभावित कार्यक्रम)*
*21 मार्च 2020, शनिवार*
卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐
*प्रवास स्थल*
Brahmdevdada Mane Institute of Technology
Maharashtra 413255, India
卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐
*लोकेशन जानने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करे*
https://maps.app.goo.gl/3eSLdJMqo8nWBDrLA
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*(संभावित यात्रा - 11.5 k.m.)*
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*प्रस्तुति 🌻संघ संवाद*🌻
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