Updated on 24.09.2020 13:28
🧘♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘♂🙏 #आचार्य श्री #महाप्रज्ञ जी द्वारा प्रदत मौलिक #प्रवचन
👉 *#एकाग्रता से #शक्ति का #विकास* : *#श्रृंखला ३*
एक #प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लें।
देखें, #जीवन बदल जायेगा, जीने का #दृष्टिकोण बदल जायेगा।
प्रकाशक
#Preksha #Foundation
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Updated on 24.09.2020 10:34
🦚🦚🦋🦚🦚🦋🦚🦚🦋🦚🦚🌳 _*महाश्रमण वाटिका, शमशाबाद, हैदराबाद*_
🏮 *_मुख्य प्रवचन कार्यक्रम_* _की विशेष_
*_झलकियां_ ----------*
🟢 *_परम पूज्य गुरुदेव_ _अमृत देशना देते हुए_*
⏰ _दिनांक_ : *_24 सितंबर 2020_*
🧶 _प्रस्तुति_ : *_संघ संवाद_*
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 381* 📜
*श्रीमद् जयाचार्य*
*महान् साहित्य-स्रष्टा*
*साहित्य-परिशीलन*
*भ्रम-विध्वंसन*
प्रश्नोत्तर-तत्त्वबोध में तेरापंथ एवं मूर्तिपूजक समाज के सैद्धांतिक मतभेदों का विश्लेषण है, उसी प्रकार तेरापंथ एवं स्थानकवासी समाज के सैद्धांतिक मतभेदों का विश्लेषण करने वाला ग्रन्थ है— भ्रम-विध्वंसन। वह शास्त्रार्थों का युग था। उपर्युक्त दोनों ग्रन्थ शास्त्रार्थ की सामग्री से ही भरे हुए हैं। इसलिए साधु-साध्वीगण तथा श्रावक-श्राविकागण भी इन्हें कण्ठस्थ कर लेते थे। इन्हें कण्ठस्थ कर लेने का अर्थ होता— शास्त्रार्थ में अजेय बन जाना।
जयाचार्य जयपुर में विराज रहे थे। वहां कच्छ प्रदेश से वेला के श्रावक दर्शन करने के लिए आये। उनमें मूलचन्दजी कोलंबी मुख्य श्रावक थे। उन्होंने संतों के पास भ्रम-विध्वंसन देखा। उसे पढ़ा तो वे मन्त्रमुग्ध हो गये। उनकी इच्छा हुई कि इसको यथाशीघ्र जनता के हाथों में पहुंचाना चाहिए। सहज रूप से प्रति मिलने की संभावना नहीं थी, अतः उन्होंने उसे चुरा लिया और मुम्बई जाकर मुद्रित करवा डाला। 'उतावला सो बावला' कहावत चरितार्थ हो गई। वे जो प्रति ले गये थे वह प्रारम्भिक प्रति थी, अतः काट-छांट से भरी थी। प्राकृत और राजस्थानी भाषा नहीं जानने के कारण मुम्बई के प्रेस में प्रूफ-संशोधन भी सम्यक् नहीं हो पाया। फलतः प्रकाशित होकर भी वह पुस्तक विशेष उपयोगी नहीं हो पाई। कालान्तर में उसे अन्य प्रति से मिलाकर संशोधित किया गया और फिर विक्रम सम्वत् 1980 में पुनः प्रकाशित किया गया। इसका ग्रन्थमान लगभग 10 सहस्र पद्य-प्रमाण है। यह गद्य-ग्रन्थ है।
सन्देह-विषौषधि, जिनाज्ञा-मुखमंडन, कुमति-विहंडन, प्रश्नोत्तर-सार्धशतक और चर्चा-रत्नमाला आदि सभी गद्य-ग्रन्थ उत्कृष्ट कोटि की तत्त्व-चर्चा से भरे हुए हैं।
झोणीचर्चा, झीणोज्ञान, बृहत् प्रश्नोत्तर-तत्त्वबोध, भिक्षु-कृत हुंडी की जोड़ आदि तत्त्व-चर्चात्मक पद्य-ग्रंथ हैं। इन सबका हार्द समझने के लिए स्वयं पाठक की गहरी तत्त्वज्ञता अपेक्षित है।
*श्रीमद् जयाचार्य ने अपने आचार्यों, साधर्मिकों तथा शिष्यों तक के जीवन-वृत्त लिखे...* उनके बारे में जानेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 381* 📜
*श्रीमद् जयाचार्य*
*महान् साहित्य-स्रष्टा*
*साहित्य-परिशीलन*
*भ्रम-विध्वंसन*
प्रश्नोत्तर-तत्त्वबोध में तेरापंथ एवं मूर्तिपूजक समाज के सैद्धांतिक मतभेदों का विश्लेषण है, उसी प्रकार तेरापंथ एवं स्थानकवासी समाज के सैद्धांतिक मतभेदों का विश्लेषण करने वाला ग्रन्थ है— भ्रम-विध्वंसन। वह शास्त्रार्थों का युग था। उपर्युक्त दोनों ग्रन्थ शास्त्रार्थ की सामग्री से ही भरे हुए हैं। इसलिए साधु-साध्वीगण तथा श्रावक-श्राविकागण भी इन्हें कण्ठस्थ कर लेते थे। इन्हें कण्ठस्थ कर लेने का अर्थ होता— शास्त्रार्थ में अजेय बन जाना।
जयाचार्य जयपुर में विराज रहे थे। वहां कच्छ प्रदेश से वेला के श्रावक दर्शन करने के लिए आये। उनमें मूलचन्दजी कोलंबी मुख्य श्रावक थे। उन्होंने संतों के पास भ्रम-विध्वंसन देखा। उसे पढ़ा तो वे मन्त्रमुग्ध हो गये। उनकी इच्छा हुई कि इसको यथाशीघ्र जनता के हाथों में पहुंचाना चाहिए। सहज रूप से प्रति मिलने की संभावना नहीं थी, अतः उन्होंने उसे चुरा लिया और मुम्बई जाकर मुद्रित करवा डाला। 'उतावला सो बावला' कहावत चरितार्थ हो गई। वे जो प्रति ले गये थे वह प्रारम्भिक प्रति थी, अतः काट-छांट से भरी थी। प्राकृत और राजस्थानी भाषा नहीं जानने के कारण मुम्बई के प्रेस में प्रूफ-संशोधन भी सम्यक् नहीं हो पाया। फलतः प्रकाशित होकर भी वह पुस्तक विशेष उपयोगी नहीं हो पाई। कालान्तर में उसे अन्य प्रति से मिलाकर संशोधित किया गया और फिर विक्रम सम्वत् 1980 में पुनः प्रकाशित किया गया। इसका ग्रन्थमान लगभग 10 सहस्र पद्य-प्रमाण है। यह गद्य-ग्रन्थ है।
सन्देह-विषौषधि, जिनाज्ञा-मुखमंडन, कुमति-विहंडन, प्रश्नोत्तर-सार्धशतक और चर्चा-रत्नमाला आदि सभी गद्य-ग्रन्थ उत्कृष्ट कोटि की तत्त्व-चर्चा से भरे हुए हैं।
झोणीचर्चा, झीणोज्ञान, बृहत् प्रश्नोत्तर-तत्त्वबोध, भिक्षु-कृत हुंडी की जोड़ आदि तत्त्व-चर्चात्मक पद्य-ग्रंथ हैं। इन सबका हार्द समझने के लिए स्वयं पाठक की गहरी तत्त्वज्ञता अपेक्षित है।
*श्रीमद् जयाचार्य ने अपने आचार्यों, साधर्मिकों तथा शिष्यों तक के जीवन-वृत्त लिखे...* उनके बारे में जानेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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