Updated on 01.11.2021 15:33
*आचार्य भिक्षु द्वारा रचित*जिन भाख्या पाप अठार, सेव्यां नहिं धर्म लिगार।
संका मत आणजो ए, साचो कर जाणजो ए ॥१॥
भगवान ने अठारह पाप बताए हैं, उनका आचरण करने में किंचित भी
धर्म नहीं है, इसमें शंका मत करना । इसे सत्य समझना ।
जो थोड़ो घणो करो पाप, तिण थी हुवै संताप ।
मिश्र नहीं जिण कयो ए, समदृष्टि सरधियो ए।।२।।
थोड़ा या अधिक जो भी पाप होता है, वह संताप पैदा करता है। भगवान
ने उसे मिश्र धर्म नहीं कहा । सम्यकदृष्टि व्यक्ति इस बात पर श्रद्धा करता है।
कहे अग्यानी एम, श्रावक नहिं पोखां केम ।
भाजन रतनां तणो ए, नफो अति घणो ए।।३।।
कई अज्ञानी व्यक्ति कहते हैं कि श्रावक का पोषण क्यों नहीं करें । वह तो
रत्नों का पात्र है, उसका पोषण करने में बहुत लाभ है।
इणरो नहिं जाणै न्याय, त्यानै किम आणी जे ठाय।
मित झगड़ो झालियो ए, बेदो घालियो ए।। ४ ।।
जो व्यक्ति इस बात का न्याय नहीं समझते हैं, उन्हें सही मार्ग पर कैसे
लाया जाए, उन्होंने व्यर्थ ही झगड़ा मोल ले लिया और बखेड़ा (विध्न बाधा)
उत्पन्न कर दिया।
हिवे सुणजो चतुर सुजाण, श्रावक रत्नां री खाण ।
व्रतां कर जाण जो ए, उलटी मत ताण जो ए॥५॥
हे चतुर सुज्ञ व्यक्तियों! सुनो! श्रावक को जो रत्नों की खान कहा है, वह व्रतों की अपेक्षा से है। विपरीत खींचातान मत करो।
कई रूंख बाग में होय, अंब धतूरा दोय ।
फल नहिं सरिखा ए, करजो पारिखा ए॥६॥
एक बगीचे में कई वृक्ष होते हैं। उनमें आम और धत्तूरा ये दो
वृक्ष भी हैं। दोनों के फल समान नहीं होते हैं। इसकी परीक्षा करके देख लो।
आंबां सू लिवलाय, सींचै धतूरो आय।
आसा मन अति घणी ए, अंब लेवा तर्णी ए॥७॥
आम पाने की इच्छा है और वह धत्तूरे को आकर सींचता है। मन में आम
पाने की अत्यधिक लालसा है।
पिण अंब गयो कुमलाय, धतूर रह्यो डहडाय ।
आय नै जोवे जरे ए, नेणां नीर झरे ए॥८॥
जब वह आकर देखता है कि आम मुरझा गया और धत्तूरा हरा भरा हो
गया तो उसकी आंखों में आंसू बहने लगते हैं।
इण दिष्टंते जाण, श्रावक व्रत अंब समाण ।
इविरत अलगी रही ए, धतूरा सम कही ए।।९।।
श्रावक व्रत आम के समान है, अव्रत उससे अलग है। उसको धत्तूरे के
समान कहा है इस दृष्टांत को समझो।
सेवोवे इविरत कोय, वरतां साहमो जोय।
ते भूला भर्म में ए, हिंसा धर्म में ए।। १० ॥
श्रावक व्रती है, इस बात को ध्यान में रखकर कोई व्यक्ति उनके अव्रत
सेवन में निमित्त बनते हैं, वे भ्रमित हैं, इसलिए हिंसा में धर्म समझते हैं।
इविरत सूं बंधे कर्म, तिण में नहिं निश्चे धर्म ।
तीनूं करण सारिखा ए, ते बिरला पारिखा ए॥ ११ ॥
अव्रत से कर्मो का बंधन होता है। उसमें निश्चित रूप से धर्म नहीं है,
करना, कराना, अनुमोदन करना तीनों करण एक समान है। इसको समझने
वाले व्यक्ति विरले होते हैं।
कहे खाधां बंधइ कर्म, खवायां मिश्र धर्म ।
ऐ झूठ चलावीयो ए, मूरख मन भावीयो ए।। १२ ।।
कई कहते हैं कि खाने से कर्मों का बंधन होता है और खिलाने से मिश्र
धर्म होता है। वे ऐसा झूठ चला रहे हैं, जो मूर्ख व्यक्तियों के मन को लुभा लेता
है।
ऐ मिश्र नहीं साख्यात, तो कांय सरधे ए बात ।
अकल नहिं मूढ़ में ए, ते पड़िया रूढ़ में ए।। १३ ।।
ए
मिश्र धर्म है ही नहीं यह बात स्पष्ट है, फिर ऐसी बात में श्रद्धा कैसे की
जाए? मूढ़ व्यक्ति में बुद्धि नहीं है, वे व्यर्थ ही रूढ़ि में पड़े हुए हैं।
पोते नहिं बुध प्रकाश, लागो कुगुरां रो पास। गायत्री
ते निरणो नहिं करे ए, ते भव कूवे पड़े ए।। १४ ।।
स्वयं के पास बुद्धि का प्रकाश नहीं है और उनका सम्पर्क कुगुरुओं से
हो गया, वे किसी बात का निर्णय नहीं कर पाते और संसार रूपी कूप में गिरे
हुए हैं।
साधू संगत पाय, सुणै इक चित लगाय ।
पखपात परहरै ए, खबर बेगी पडै ए।। १५ ।।
जो शुद्ध साधु की संगति करता है, एकाग्र चित्त से उनकी बात सुनता
है
और पक्षपात छोड़ देता है । उसको तत्त्व की समझ जल्दी आ जाती है।
आणंद आदि दे जाण, श्रावक दसूई बखाण ।
त्यां पड़िमा आदरी ए, ते चरचा पाधरी ए।। १६ ।।
आनंद आदि दस श्रावकों का उल्लेख मिलता है। उन्होंने श्रावक प्रतिमा
स्वीकार की। आगमों में यह स्पष्ट वार्ता है।
जे जे कीधो है त्याग, आणी मन वेराग ।
ते करणी निरमली ए, करने पूरी फली ए।। १७ ।।
मन में वैराग्य धारण कर जो त्याग किए जाते हैं, वह निर्मल करणी
(क्रिया) है। पूर्ण रूप से फलवान बनती है।
पिण बाकी रह्यो आगार, इविरत में आण्यो आहार ।
आपणी न्यात में ए, समझो इण बात में ए॥ १८ ॥
त्याग करने के बाद भी श्रावक के कुछ आगार (खुलावट) रहती है। वह
अपनी बिरादरी के लिए जो भोजन तैयार करवाता है, वह अव्रत में है, इस बात को समझना चाहिये।
इविरत में दे दातार, ते किम उतरै भवपार |
मारग नहिं मोख रो ए, छांदो लोक रो ए॥ १९ ॥
जो दाता अव्रती को दान देता है, वह संसार से पार कैसे होगा, क्योंकि यह मोक्ष का मार्ग नहीं है। यह तो लोक व्यवहार है।
दाता ने अन सुध थाय, पिण पातर इविरत में आय ।
ते किम तारसी ए, पार उतारसी ए॥२०॥
दान देने वाला और भोजन दोनों शुद्ध हैं, पर पात्र लेने वाला अव्रती है तो वह कैसे तारेगा, कैसे पार उतरेगा?
जूनो छै गूढ़ मिथ्यात, तिणरै किम वेसे ए बात।
कर्म घणां सही ए, समझ पड़े नहीं ए।।२१।।
जिस व्यक्ति के मिथ्यात्व बहुत गहरा और दीर्घकाल से चला आ रहा है,
उसके हृदय में यह बात कैसे बैठ सकती है। उसके कर्म सघन हैं अतः उसे तत्त्व समझ में नहीं आता।
उपासग उवाई उपंग, वले सूयगडा अंग ।
सूतर थी ऊधरी ए, इविरत अलगी करी ए।। २२ ।।
उपासक दशा, औपपातिक और सूत्र कृतांग-इन आगम सूत्रों से यह रहस्य निकाल कर व्रत-अव्रत का पृथक्करण किया गया है।
आगम नी दे साख, श्री वीर गया छै भाख ।
भवियण निरणो करै ए, ते भवसागर तरै ए।। २३ ।।
जो भव्य जन इस बात का निर्णय करते हैं, वे संसार सागर को तर जाते
हैं। भगवान ने जो कहा है, उसके साक्षी आगम हैं।
देइ सुपातर दान, न करै मन अभिमान ।
संसार परत करै ए, ते शिव नगरी वरै ए।।२४ ।।
सुपात्र दान देकर जो मन में अहंकार नहीं करता, वह संसार परीत (भव
भ्रमण की सीमा) कर लेता है और मोक्ष नगर का वरण कर लेता है।
दान स्यूं तिरिया अनंत, भाष्यो श्री भगवंत ।
ते दान न जाणियो ए, न्याय न छाणियो ए।।२५ ।।
दान से अनंत व्यक्ति तर गए, ऐसा भगवान ने कहा है। जो व्यक्ति अव्रती
को दान देने में मिश्र धर्म की प्ररूपणा करते हैं, उन्होंने दान के स्वरूप को नहीं समझा और धर्म-अधर्म के न्याय को नहीं पहचाना।
साध सुपातर सोय, दाता सूझतो होय ।
असणादिक सुध दीयो ए, तिण लाभ मोटो लीयो ए॥२६ ।।
साधु सुपातर हो, दाता शुद्ध हो और आहारादि शुद्ध पदार्थों का दान दिया हो, तो उसे बहुत बड़ा लाभ होता है ।
साध सुपातर जाण, दाता शुद्ध पिछाण ।
आहारादिक असुध सही ए, बेहरायां नफो नहीं ए।। २७ ।।
साधु सुपात्र होता है, देने वाला शुद्ध होता है, पर आहारादि: अशुद्ध है तो देने में लाभ नहीं है।
जो मिले मोटा अणगार, पिण सुद्ध नहीं दातार ।
असणादिक अशुद्ध सही ए, पिण दीधां नफो नहीं ए।। २८ ।।
शुद्ध साधु का योग मिला, पर देने वाला शुद्ध नहीं है और अशनादिक भी शुद्ध नहीं है, तो देने में लाभ नहीं है।
आय मिले कुपातर कोय, दाता अन सुध छै दोय ।
पड़िलाभ्यां तिरै नहीं ए, श्री जिण मुख सूं कही ए।। २९ ।।
किसी कुपात्र का योग मिल जाए । देने वाला और अन्न दोनों शुद्ध हैं, तो भी दान देने से संसार सागर पार नहीं होता है। यह बात भगवान ने अपने मुख से कही है।
धारो मन आण विवेक, तीनां में सुध नहिं एक ।
प्रतिलाभ्यां धर्म नहीं ए, सूतर में इम कही ए।। ३०॥
विवेक से समझो । तीनों में यदि एक भी शुद्ध नहीं है, तो देने में धर्म नहीं, है, यह बात सूत्र में प्रतिपादित है।
पातर दाता नैं आहार, तीनूं असुध विचार |
धर्म न भाषै जती ए, यो झूठ जाणो मती ए।। ३१ ।।
पात्र, दाता, आहार तीनों अशुद्ध हैं तो साधु उसमें धर्म नहीं बताते हैं।
इस बात को असत्य मत समझो।
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