30.08.2022: Jain Swetambar Terapanthi Mahasabha

Published: 30.08.2022
Updated: 30.08.2022

Updated on 30.08.2022 20:02

कल हमारा बहुत ही महत्वपूर्ण पर्व है... महापर्व कह सकते हैं..

महापर्व

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ध्यान दिवस पर परम पूज्य गुरुदेव द्वारा चतुर्विध धर्मसंघ को कराया गया ध्यान का प्रयोग

ध्यान का प्रयोग

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कल पाैषध करने वाले सभी भाई बहन आज एक बार
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पाैषध और सामायिक

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Posted on 30.08.2022 15:55

🌸 सर्व साधु धर्म में ध्यान का है शीर्ष स्थान: शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमण 🌸

-ध्यान दिवस: युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण ने चतुर्विध धर्मसंघ को कराया ध्यान का प्रयोग

-27वें भव में पहुंची ‘भगवान महावीर की अध्यात्म यात्रा’, वर्धमान के रूप में जन्मे महावीर

-अच्छे ढंग से हो संवत्सरी महापर्व का उपवास: आचार्यश्री महाश्रमण

-साध्वीप्रमुखाजी ने ध्यान के महत्त्व को किया व्याख्यायित

-साध्वीवर्याजी ने ब्रह्मचर्य धर्म को किया वर्णित तो मुख्यमुनिश्री ने गीत का किया संगान

30.08.2022, मंगलवार, छापर, चूरू (राजस्थान) :

जैन शासन का महापर्व पर्युषण का सातवां दिवस मंगलवार को ध्यान दिवस के रूप में समायोजित हुआ। जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, शांतिदूत, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी की मंगल सन्निधि में छापर में आध्यात्मिक ओज के साथ मनाए जा रहे इस महापर्व में देश-विदेश के श्रद्धालु हजारों की संख्या में उपस्थित हैं और निरंतर आध्यात्मिक आराधना के क्रम से जुड़े हैं। ऐसे युगप्रधान आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में ऐसे आध्यात्मिक महत्त्व वाले महापर्व के प्रभाव से मानों पूरा छापर धर्मनगरी के रूप में आलोकित हो रहा है।

मंगलवार को प्रातः नौ बजे युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आचार्य कालू महाश्रमण समवसरण के मंच से नमस्कार महामंत्रोच्चार कर मुख्य प्रवचन कार्यक्रम का शुभारम्भ किया। मुनि केशीकुमारजी ने भगवान पार्श्वनाथ के जीवनवृत्त का वर्णन किया। साध्वीवर्या साध्वी सम्बुद्धयशाजी ने दस धर्मों में एक प्रमुख धर्म ‘ब्रह्मचर्य’ धर्म को व्याख्यायित किया। मुख्यमुनिश्री महावीरकुमारजी ने ‘ब्रह्मचर्य’ धर्म के संदर्भ में सुमधुर गीत का संगान किया। साध्वी विमलप्रभाजी ने ध्यान दिवस पर आधारित गीत का संगान किया। साध्वीप्रमुखा साध्वी विश्रुतविभाजी ने श्रद्धालुओं को ‘ध्यान दिवस’ के अवसर पर ध्यान से होने वाले अनेक लाभों का वर्णन किया।

पर्युषण महापर्व के संदर्भ में भगवान महावीर के प्रतिनिधि युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी द्वारा आरम्भ की गई ‘भगवान महावीर की अध्यात्म यात्रा’ के क्रम को आचार्यश्री ने आगे बढ़ाते हुए कहा कि भगवान महावीर के 27 जन्मों के वर्णन का क्रम चल रहा है। बाइसवां भव जो मनुष्य के रूप में था विमल राजा के रूप में जीवन जीया था। तेराइसवां भव मनुष्य के रूप में चक्रवर्ती बनकर जीया। 24वां जन्म सातवें देवलोक में होता है। 25वें भव में नन्दनराजा के रूप में हुआ और अंत में आत्मा के कल्याण के लिए आगे बढ़े और मुनि दीक्षा स्वीकार कर राजर्षि नन्दन बन गए। एक लाख वर्ष उनका संयम पर्याय रहा। इस दौरान उन्होंने 11 अंगों का अध्ययन किया। उन्होंने कठोर तपस्या करते हुए निरंतर मासखमण किया। उन्होंने ग्यारह लाख साठ हजार मासखमण कर लिया। यह उनका जीवन तीर्थंकर बनने का निर्णायक जीवन रहा। अंत में दो माह के अनशन के साथ मृत्यु को प्राप्त होकर दसवें देवलोक में उत्पन्न हुए। वहां का आयुष्य पूर्ण कर अपने 27वें भव में गण्डक नदी के तट पर स्थित वैशाली के उपनगर ब्राह्मणकुण्ड गांव में रहने वाले ऋषभदत्त ब्राह्मण की पत्नी देवानंदा की गर्भ में आत्मा ने प्रवेश किया। बाद में देवताओं द्वारा गर्भ का संहरण कर ब्राह्मणी की कुक्षी से क्षत्रीयकुण्ड के राजा सिद्धार्थ की पत्नी त्रिशला के गर्भ में स्थापित कर दिया गया। त्रिशला ने 14 महास्वप्न देखे। माता को कष्ट न पहुंचे इसके लिए गर्भस्थ शिशु का हलन-चलन बंद करना, माता का क्रन्दन, पुनः शिशु का हलन-चलन प्रारम्भ करना और गर्भ में शिशु का संकल्प की माता-पिता के रहते दीक्षा नहीं लूंगा। चैत्र शुक्ला त्रयोदशी की अर्द्धरात्री को त्रिशला के गर्भ से शिशु का जन्म हुआ। पूरे राज्य में खुशहाली बनाई गई। बारह दिन बाद नामकरण के अवसर पर वर्धमान नाम रखा गया।

आचार्यश्री ने ‘ध्यान दिवस के संदर्भ में जनमेदिनी को पावन प्रतिबोध प्रदान करते हुए कहा कि शरीर में स्थान शीर्ष अर्थात् मस्तक का होता है, वृक्ष में जो स्थान मूल का होता है उसी प्रकार सर्व साधु धर्म में ध्यान का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। इस दौरान आचार्यश्री ने प्रेक्षाध्यान के कई प्रयोग चतुर्विध धर्मसंघ को कराए। इस अवसर पर पूरा प्रवचन पण्डाल ध्यानमग्न नजर आ रहा था। आचार्यश्री ने आगे संवत्सरी महापर्व को अच्छे ढंग से मनाने की प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि यह वर्ष में आने वाला अति महत्त्वपूर्ण दिवस है। जहां तक संभव हो, संवत्सरी का उपवास होना चाहिए। साधुओं के तो चौविहार उपवास होता ही है, गृहस्थ तिविहार उपवास करने का प्रयास करें। आचार्यश्री की संवत्सरी उपवास के दौरान पौषध आदि के संदर्भ में अनेक नियमों को विस्तार बताते हुए इस महापर्व को अच्छे ढंग से मनाने की प्रेरणा प्रदान की। कई तपस्वियों ने अपनी-अपनी धारणा के अनुसार अपनी-अपनी तपस्याओं का प्रत्याख्यान किया।

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