Posted on 20.09.2022 20:13
कान के दुरुपयोग से बचने की अनमोल प्रेरणाकान के दुरुपयोग से बचने की अनमोल प्रेरणा
बीकानेर.. गंगशाहर..भीनासर..नाल..उदासर..
कालूयशोविलास का राजस्थनी भाषा में
आख्यान परम पूज्य गुरुदेव के मुखारविंद से जरूर जरूर सुनें
कालूयशोविलास का राजस्थनी भाषा में
आख्यान परम पूज्य गुरुदेव के मुखारविंद से जरूर जरूर सुनें
बीकानेर.. गंगशाहर..भीनासर..नाल..उदासर..
🌸 संयत, यथार्थ और मधुर हो शब्दों का प्रयोग : युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण 🌸
-आचार्यश्री ने सुनने व बोलने में शब्दों के संयत प्रयोग की दी प्रेरणा
-कालूयशोविलास के आख्यान क्रम को भी आचार्यश्री ने सरसशैली में बढ़ाया आगे
20.09.2022, मंगलवार, छापर, चूरू (राजस्थान) :
जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें देदीप्यमान महासूर्य की ज्ञानकिरणों से वर्तमान में छापर की धरा ज्योतित हो रही है। इस ज्योति से अपने जीवन को प्रकाशित करने के लिए प्रतिदिन हजारों की संख्या में श्रद्धालुओं के पहुंचने का क्रम जारी है। सभी श्रद्धालु आचार्यश्री के दर्शन, आशीर्वाद के उपरान्त उनके मंगल प्रवचन से प्रेरणा प्राप्त कर अपने जीवन पथ को आलोकित करने का प्रयास करते हैं। कई-कई क्षेत्रों के सैंकड़ों-सैंकड़ों लोग पहुंचकर अपने क्षेत्र में विहार व प्रवास की मांग भी करते हैं। आचार्यश्री सबके विचारों और भावनाओं को सुनने के बाद यथावसर अनेक क्षेत्रों के लोगों को अपने आशीष रूपी कृपा से अभिसिंचित भी करते हैं। जन-जन ऐसे महामानव के सन्निधि में आकर मानों अपने जीवन को धन्य बना रहे हैं।
मंगलवार को आचार्य कालू महाश्रमण समवसरण में उपस्थित विराट जनमेदिनी को आचार्यश्री ने भगवती सूत्र आगम के माध्यम से मंगल संबोध प्रदान करते हुए कहा कि एक प्रश्न किया गया कि वाद्य यंत्रों यथा-शंख, बांसुरी, ढोल, सींग, वीणा, भेरी आदि के शब्द या ध्वनियां उनको छदमस्त मनुष्य सुनता है क्या? उत्तर दिया गया कि हां, सुनता है। प्रतिप्रश्न किया गया कि सुनने की प्रक्रिया क्या होती है? उत्तर देते हुए बताया गया कि सुनना आदमी के लिए कितना आसान होता है, किन्तु इसकी गहराई में जाने पर पता चलता है कि सुनने के पीछे कितना नियम हैं। पांच इन्द्रियां बताई गई हैं। जैन शास्त्र में इन्द्रियों को दो भागों में बांटा गया है-प्राप्यकारी और अप्राप्यकारी। चक्षु (आंख) को अप्राप्यकारी और शेष चारों इन्द्रियों को प्राप्यकारी में रखा गया है। क्योंकि कान को जब तक शब्द प्राप्त नहीं होते, वह सुन नहीं सकता। इसी प्रकार इन्द्रियों के अन्य वर्गीकरण में आंख और कान को कामी इन्द्रिय और नाक, जिह्वा और त्वचा को भोगी इन्द्रिय की श्रेणी में रखा गया है।
स्रोत्रेन्द्रिय मनुष्य के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इसके द्वारा आदमी साधु-संतों के प्रवचनों का श्रवण करता है और अपने जीवन को अच्छा बनाने का प्रयास करता है। सुनने की सक्षमता होती है, आदमी कितनी धर्म की बातों को सुन सकता है और ग्रहण कर सकता है। श्रवण का अच्छा लाभ उठाने का प्रयास करना चाहिए। कान से किसी की बुराई, निंदा आदि सुनने में रस नहीं लेना चाहिए। कान से जितना संतों के प्रवचन, आगम की वाणी को सुनने और जानने का प्रयास हो।
आदमी को शब्दों के प्रयोग में भी विवेक रखने का प्रयास करना चाहिए। कौन-से शब्द का कहां और कब प्रयोग हो, इसका विवेक होता है तो बोलना भी सुहावना हो सकता है और किसी का कल्याण करने वाला भी बन सकता है। किसी के साथ व्यवहार में, अपने स्वजनों के साथ, अतिथियों के साथ, बच्चों के साथ, मित्रो के साथ आदि शब्द के प्रयोग का विशेष ध्यान देने का प्रयास करना चाहिए। जो सम्माननीय हो, उनके लिए उचित शब्दों का प्रयोग होना चाहिए। उपयुक्त शब्द के प्रयोग से भाषण और व्यवहार भी उपयुक्त बन सकता है। शब्द संयत, यथार्थ और मधुर हो तो शब्द का शृंगार हो सकता है।
मंगल प्रवचन के उपरान्त आचार्यश्री ने कालूयशोविलास का संगान करते हुए स्थानीय भाषा में व्याख्यायित भी किया। कार्यक्रम में श्री पारसमल दूगड़ ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। श्री संजय भटेरा ने अपनी गीत को प्रस्तुति दी।
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मंगलवार को आचार्य कालू महाश्रमण समवसरण में उपस्थित विराट जनमेदिनी को आचार्यश्री ने भगवती सूत्र आगम के माध्यम से मंगल संबोध प्रदान करते हुए कहा कि एक प्रश्न किया गया कि वाद्य यंत्रों यथा-शंख, बांसुरी, ढोल, सींग, वीणा, भेरी आदि के शब्द या ध्वनियां उनको छदमस्त मनुष्य सुनता है क्या? उत्तर दिया गया कि हां, सुनता है। प्रतिप्रश्न किया गया कि सुनने की प्रक्रिया क्या होती है? उत्तर देते हुए बताया गया कि सुनना आदमी के लिए कितना आसान होता है, किन्तु इसकी गहराई में जाने पर पता चलता है कि सुनने के पीछे कितना नियम हैं। पांच इन्द्रियां बताई गई हैं। जैन शास्त्र में इन्द्रियों को दो भागों में बांटा गया है-प्राप्यकारी और अप्राप्यकारी। चक्षु (आंख) को अप्राप्यकारी और शेष चारों इन्द्रियों को प्राप्यकारी में रखा गया है। क्योंकि कान को जब तक शब्द प्राप्त नहीं होते, वह सुन नहीं सकता। इसी प्रकार इन्द्रियों के अन्य वर्गीकरण में आंख और कान को कामी इन्द्रिय और नाक, जिह्वा और त्वचा को भोगी इन्द्रिय की श्रेणी में रखा गया है।
स्रोत्रेन्द्रिय मनुष्य के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इसके द्वारा आदमी साधु-संतों के प्रवचनों का श्रवण करता है और अपने जीवन को अच्छा बनाने का प्रयास करता है। सुनने की सक्षमता होती है, आदमी कितनी धर्म की बातों को सुन सकता है और ग्रहण कर सकता है। श्रवण का अच्छा लाभ उठाने का प्रयास करना चाहिए। कान से किसी की बुराई, निंदा आदि सुनने में रस नहीं लेना चाहिए। कान से जितना संतों के प्रवचन, आगम की वाणी को सुनने और जानने का प्रयास हो।
आदमी को शब्दों के प्रयोग में भी विवेक रखने का प्रयास करना चाहिए। कौन-से शब्द का कहां और कब प्रयोग हो, इसका विवेक होता है तो बोलना भी सुहावना हो सकता है और किसी का कल्याण करने वाला भी बन सकता है। किसी के साथ व्यवहार में, अपने स्वजनों के साथ, अतिथियों के साथ, बच्चों के साथ, मित्रो के साथ आदि शब्द के प्रयोग का विशेष ध्यान देने का प्रयास करना चाहिए। जो सम्माननीय हो, उनके लिए उचित शब्दों का प्रयोग होना चाहिए। उपयुक्त शब्द के प्रयोग से भाषण और व्यवहार भी उपयुक्त बन सकता है। शब्द संयत, यथार्थ और मधुर हो तो शब्द का शृंगार हो सकता है।
मंगल प्रवचन के उपरान्त आचार्यश्री ने कालूयशोविलास का संगान करते हुए स्थानीय भाषा में व्याख्यायित भी किया। कार्यक्रम में श्री पारसमल दूगड़ ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। श्री संजय भटेरा ने अपनी गीत को प्रस्तुति दी।
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