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जैन मुनि सौरभ सागर जी महाराज ने मानव जीवन में अहंकार के दुष्परिणामों पर प्रकाश डाला। उन्होंने अपने प्रवचन में कहा कि जीवन की मूलभुत समस्या अहंकार है और समर्पण उसका मूल समाधान है। ‘अहमस्मि’ मैं हूं ‘आई एम समथिंग’ मैं भी कुछ हूं’ यह जो भाव है यही अहंकार है।
जैन मुनि ने कहा कि अहंकार की आंखें नहीं होती वह अंधा होता है। वह चल तो सकता है,पर देख नहीं सकता। इसी तरह अहंकारियों की स्थिति अंधे जैसी ही होती है। आंखें होते हुए भी वह अंधे के समान होता है। उन्होंने अहंकारी रावण का उदाहरण देते हुए कहा कि पूरी लंका तबाह हो रही थी लेकिन रावण को लंका की तबाही और अपने खानदान की बर्बादी नहीं दिखायी दे रही थी। उन्होंने कंस का भी उदाहरण देकर अहंकार पर प्रकाश डाला।
जिस पर अहंकार सवार हो जाता है वह अंधे के समान हो जाता है। जैन मुनि ने कहा कि अहंकार से बचने का हर संभव प्रयास करो, क्योंकि अहंकार आत्मा और परमात्मा के बीच दीवार का काम करता है। आज दामपत्य, पारविारिक और सामाजिक जीवन में संघर्ष, मनमुटाव, मनोमालिन्य दिख रहा है। इसका मूल कारण अहंकार है। मनुष्य अपने जीवन में समर्पण व सहयोग की भावना अपनाए तो अहंकार पर काबू पाते हुए जीवन में व्याप्त वसिंगतियों से छुटकारा पाया जा सकता है।