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🌍आज की प्रेरणा 🌍प्रवचनकार - आचार्य श्री महाश्रमण
प्रवचनस्थल - विराटनगर, १५.१०.१५
प्रस्तुति - साक्षात श्रवण के माध्यम से..
आर्हत वाड्मय में कहा गया है - जैन शासन में चतुर्विध संघ होते हैं | जिन्हें हम चार तीर्थ भी कहते हैं| तीर्थंकर चार तीर्थ की स्थापना करने वाले होते | ये चार तीर्थ चार स्तम्भ के समान होते हैं जिन पर यह संघ टिका हुआ होता है | सुक्ति मुक्तावली में कहा गया है - जैसे रत्नों का स्थान रोहिणी पर्वत, आकाश तारों का, स्वर्ग कल्पवृक्ष का, कमल सरोवर का, समुद्र जल का स्थान होता है वैसे ही जिनशासन गुणों का स्थान होता है | उसमें जो गुण बिराजमान हैं, हम उन गुणों की पूजा करें | श्रावक श्रामणोपासक होते हैं | प्रभु की उपासना का मुख्य श्रोत हमारे यहाँ मन को माना गया है, धूप दीप आदि को नहीं | हमारे यहाँ पंचांग प्रणति अर्थात अपने पांचों अंगों को झुकाकर उपासना की बात को उल्लेखित किया गया है| पांच अंग हैं - दो हाथ, दो पैर और मस्तक | श्रमण उपासना का पहला लाभ है - श्रवण | श्रवण से ज्ञान, ज्ञान से विज्ञान, फिर प्रत्याख्यान और फिर तप निर्जरा, फिर अयोग और तब फिर सिद्धि| धर्म का मुख्य लक्ष्य होना चाहिए - जन्म-मरण से मुक्त होना | भगवान महावीर ने स्वप्न में दो मालाएँ देखी, एक बड़ी दूसरी छोटी | बड़ी माला अनगार धर्म व छोटी माला आगार धर्म अर्थात साधु व श्रावक के रूप में प्रारूपित की गई | श्रावक के जीवन में श्रद्धा रहे | श्रद्धा - यथार्थ के प्रति, अर्हत के प्रति, गुरु वाणी के प्रति व तत्व के प्रति | श्रद्धा के साथ विवेक और त्याग प्रत्याख्यान की क्रिया भी होनी चाहिए | नमस्कार मंत्र हमारा प्राण मंत्र है इसका भी स्मरण हो व सामायिक का भी अभ्यास हो| सामायिक चाहे रोज हो या महीने में चार तीन या दो भी हो | बच्चों में अच्छे व धार्मिक संस्कारों का बीजारोपण जरूरी है|
दिनांक - १५ अक्टुबर, २०१५
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करुणासागर आचार्य श्री महाश्रमण जी के पावन सान्निध्य से प्रवचनकालीन झलकियाँ।
दि.16.10.2015
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