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छठा धर्म: उत्तम संयम (११-९-१६)
:: सुगंध दशमी पर्व::
उत्तम संयम जग का यम है, उत्तम संयम को पालो ।
पंचेंद्रिय को वश में करके, वितराग मुद्रा अपना लो ।।
जन्म मरण दुःख अर्नव से यह संयम पार लगाता है ।
संयम को जो धारण करता, चिर विश्राम को पाता है ।।
(-मुनि श्री सौरभ सागर जी द्वारा रचित श्लोक)
मुनि श्री सौरभ सागर जी ने कहा
संयम का अर्थ है balance बना लेना.. ना तुम्हारे जीवन में योग की अति हो ना भोग की अति हो.
योग की अति होगी तो त्याग आ जाएगा और भोग की अति नहीं होगी तो संयम आ जाता है
संयम में भोग का निषेध नहीं होता, भोग की मर्यादा होती है. और भोग का निषेध होता है तो त्याग कहलाता है, इसलिए महावीर ने दोनो धर्म को अलग अलग रखा है।
जैसे नदी के पानी को दो तट संयम में रखते है उसी तरह मानव जीवन के दो तट महावीर ने बताए हैं:
इन्द्रिय संयम और प्राणी संयम
प्राणी संयम: संसार के जो प्राणी है उनका मेरे कारण से घात ना हो या कम से कम हो। और इसी संयम को महावीर ने प्रथम नम्बर पे रखा है।
इन्द्रिय संयम: पाँचो इंद्रियों को और मन को वश में करके होता है । जब तुम प्राणी संयम पाल लोगे तो तुम्हारी आकांक्षाएँ सीमित हो जाएगी, और फिर तुम अपने मन को और इंद्रियो को भी वश में कर लोगे। जैसे बाहरी जीवन में जब तुमने सोच लिया की प्राणीघात नहीं करना तो अपने स्पर्श इन्द्रिय के सुख के लिए पानी का उपयोग भी कम करोगे, कम से कम पानी में नहाने की कपड़े धोने की चेष्टा करोगे।
मुनि श्री ने कहा जीवन में दो चीज़ ऐसी है जिसकी एक बार माँग पूरी कर दो तो बार बार माँगेगी: इन्द्रिय और स्त्री
जैसे जिह्वा के स्वाद की पूर्ति एक बार की, तो बार बार माँगेगी।
मुनि श्री कहते हैं इसके मालिक बनो ग़ुलाम नहीं, इसकी लगाम अपने हाथ में रखो और वो लगाम होगी तुम्हारे दृढ़ संकल्प की।
।। ॐ नमः ।।
- मुनि श्री सौरभ सागर जी के आज के प्रवचन से.
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