कृतिदेव यहां प्रकाषनार्थ:
सन्दर्भ: हिन्दी दिवस 14 सितम्बर।
प्राकृत का हिन्दी को योगदान
- डाॅ. दिलीप धींग
(निदेषक: अंतरराष्ट्रीय प्राकृत अध्ययन व शोध केन्द्र)
आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में हिन्दी का प्रमुख स्थान है। यह लगभग डेढ़ हजार वर्ष पुरानी भाषा है। भारत की बहुसंख्यक आबादी द्वारा हिन्दी बोली, लिखी, पढ़ी और समझी जाती है। देष के विभिन्न भागों और भाषाओं की सम्पर्क भाषा होने के कारण हिन्दी में विभिन्न भाषाओं के शब्द भी सम्मिलित हो गये या कर लिये गये हैं। अपनी ग्रहणश्षीलता, उदारता, सरलता और विकासश्षीलता के कारण हिन्दी निरन्तर समृद्ध हुई और हो रही है।
प्राकृत का उŸारवर्ती तथा हिन्दी का पूर्ववर्ती स्वरूप अपभं्रष है। प्राकृत और हिन्दी का सम्बन्ध प्रत्यक्ष भी जुड़ता है और अपभ्रंष के माध्यम से भी जुड़ता है। हिन्दी के पूर्व रूप हमें संस्कृत, विभिन्न प्राकृत भाषाओं एवं अपभं्रष में देखने को मिलते हैं। हिन्दी के आदिकाल के प्रथम और द्वितीय चरण को क्रमषः ‘प्राकृत-युग’ और ‘अपभं्रष-युग’ कहा जा सकता है। हिन्दी में जिस प्रकार संस्कृत शब्दों की प्रचुरता है, उसी प्रकार प्राकृत और अपभ्रंष के शब्दों की भी भरमार हैं। हिन्दी के पोषण में संस्कृत की तरह प्राकृत की भूमिका भी है। हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास को जानने के लिए संस्कृत भाषा और साहित्य की तरह प्राकृत भाषा और साहित्य का अध्ययन भी आवष्यक है।
जन-जन की बोली होने की वजह से प्राकृत अपना निरन्तर विकास करती रही। यह राष्ट्र के प्रत्येक भाग व उसके विकास से जुड़ी रही। प्राकृत के विकास के साथ-साथ प्राकृत साहित्य का विकास भी होता रहा। वर्तमान में उपलब्ध प्राकृत साहित्य अपने परिमाण, विषय और विषयवस्तु, हर दृष्टि से समृद्ध है। इसमें भारतीय वांगमय के सभी विषयों का साहित्य लिखा गया। आयुर्वेद, वास्तु, ज्योतिष, राजनीति, योगषास्त्र, व्याकरण, गणित, पुराण, चरित, कथा, काव्य आदि अनेक विषयों में लिखे ग्रंथ प्राकृत में उपलब्ध होते हैं। इन सभी विषयों का हिन्दी साहित्य प्राकृत से प्रभावित रहा।
प्राकृत का आषय किसी जाति, स्थान या काल विषेष की भाषा से नहीं, अपितु विषाल भारतवर्ष के प्राणों में स्पन्दित होने वाली उन बोलियों के समूह से है, जो ईस्वी पूर्व लगभग छठी या पाँचवीं शताब्दी से लेकर ईसा की चैदहवीं शताब्दी तक यानी लगभग दो हजार वर्षों तक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित रहीं।
समय और स्थान के अनुसार प्राकृत ने अपने आपको ढाल लिया, फलतः कुछ परिवर्तित विषेषताओं के साथ प्राकृत भाषाएँ अलग-अलग नामों से पहचानी जाने लगीं। जैसे - पालि, अर्द्धमागधी, मागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, पैषाची आदि। कुछ भिन्नताओं के बावजूद प्राकृत की मौलिक विषेषताएँ और आन्तरिक समरूपताएँ कायम रहीं। इसलिए सभी प्रकार की प्राकृत भाषाओं का ‘प्राकृत’ शब्द में समावेष कर लिया जाता है। यह प्रवृŸिा हिन्दी में भी विद्यमान है। प्राकृत देष के बड़े भूभाग की जनभाषा थी। इसलिए उसकी क्षेत्रीय विविधता बहुत थी। यही स्थिति हिन्दी की है। बड़े भूभाग की भाषा होने की वजह से हिन्दी में क्षेत्रीय विविधताएँ नजर आती हैं। हिन्दी के गठन और निर्माण में विभिन्न प्राकृत भाषाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही। यही वजह है कि वर्तमान में हिन्दी की अपनी अनेक बोलियाँ, मातृभाषाएँ, भाषिक रूप तथा साहित्यिक विभाषाएँ हैं। इन सबके बावजूद हिन्दी एक है तथा हिन्दी की समरूपताएँ और विषेषताएँ पूरी तरह से कायम हैं।
प्राकृत में विभिन्न भाशाओं के साथ सन्तुलन और समन्वय प्रवृŸिायाँ रहीं। प्राकृत ने भाषाओं को जोड़ा, लोगों को जोड़ा और देष को जोड़ा। हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाओं के विकास में प्राकृत का बुनियादी योगदान है। हिन्दी साहित्य की विभिन्न विधाओं को भी प्राकृत और अपभ्रंष के साहित्य ने पुष्ट और प्रभावित किया है। इससे राष्ट्रीय एकता में प्राकृत का योगदान परिलक्षित होता है। प्राकृत की यह समन्वयप्रधान विरासत हिन्दी को भी मिली।
जिस प्रकार ढाई हजार वर्ष पूर्व प्राकृत सांस्कृतिक और आध्यात्मिक नवजागरण की भाषा बनी थी; उसी प्रकार प्राकृत और संस्कृत के संस्कार लेकर निर्मित हिन्दी भी तेरहवीं सदी से लेकर आज तक सांस्कृतिक नवजागरण की भाषा बनी हुई है। भक्तिकाल में हिन्दी ने पूरे देष को एक सूत्र में बांधकर भारत को सांस्कृतिक और भावनात्मक रूप से सुगठित और समृद्ध किया।
हिन्दी ने प्राकृत के अलावा अन्य अनेक भाषाओं से अपना शब्द भण्डार ग्रहण किया है। यह हिन्दी का सर्व समावेषी चरित्र है, जो हिन्दी को प्राकृत से विरासत में मिला है। प्राकृत और हिन्दी के शब्द भण्डार में अनेक क्षेत्रों और संस्कृतियों के शब्द विद्यमान हैं। प्राकृत और हिन्दी में बुनियादी रिष्ता है। स्वभावतः यह रिष्ता बहुत गहरा और अटूट है। प्राकृत का ज्ञान होने पर हिन्दी की समझ बढ़ती है। प्राकृत के हजारों शब्द ज्यों के त्यों अथवा थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ हिन्दी में प्रयुक्त किये जाते हैं। मध्ययुगीन अनेक कवियों ने अपने हिन्दी काव्यों में प्राकृत के शब्दों का मुक्त रूप से प्रयोग किया है। ऐसा करके उन्होंने हिन्दी की सम्प्रेषणीयता बढ़ाई। हिन्दी में प्राकृत के शब्द ही नहीं, अपितु बहुत सारी प्राकृत की क्रियाएँ भी ग्रहण की गई हैं।
शब्द और धातुओं के अतिरिक्त प्राकृत की अन्य प्रवृŸिायाँ भी हिन्दी में स्वीकार की गई है। जैसे संस्कृत में तीन वचन होते हैं, लेकिन प्राकृत में दो वचन ही होते हैं। हिन्दी में भी दो वचन ही होते हैं। दो वचन होने से अभिव्यक्ति अपेक्षाकृत अधिक सुविधाजनक और सरलतर होती है। इसके अलावा हिन्दी ने नपुंसक लिंग का त्याग करके संस्कृत से भिन्न एक नई प्रवृŸिा का वरण किया है। इस प्रवृŸिा को प्राकृतीकरण कहा जा सकता है।
प्राकृत में शब्द, षषा, संयुक्त व्यंजन आदि में अनेक प्रकार की सरलीकरण की प्रवृŸिायाँ पाई जाती हैं। प्राकृत की उदारता और सरलीकरण की प्रवृŸिायों को हिन्दी में व्यापक रूप से अपनाया गया है। प्राकृत और अपभ्रंष के अनेक उपसर्ग और प्रत्यय हिन्दी में यथावत अथवा कुछ परिवर्तन के साथ प्रयोग किये जाते हैं। सरलीकरण की प्रवृŸिायाँ अपनाने से हिन्दी सरल, सुबोध और सुगम हो गई तथा जन-जन की भाषा बन गई। भाषा की उदारता से संस्कृति की सुरक्षा भी होती है। प्राकृत भाषा इस क्षेत्र में अग्रणी रही। उसका प्रभाव आज भी हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में देखा जाता है। स्पष्ट है कि प्राकृत हिन्दी की पोषक भाषा रही है। वर्तमान में प्राकृत भाषा के षिक्षण के साथ भी हिन्दी का विकास जुड़ा हुआ है। प्राकृत लोक-जीवन की भाषा रही। प्राकृत की अनगिनत लोकोक्तियाँ और मुहावरे आज हिन्दी में प्रयुक्त होते हैं। हजारों लोक प्रचलित शब्द प्राकृत से सीधे ही या अपभ्रंष में होते हुए वर्तमान रूप में आये हैं। प्राकृत ने हिन्दी के लोक साहित्य को समृद्ध किया है। प्राकृत की तरह हिन्दी में भी लोक-भाषा, लोक-संस्कृति और ग्रामीण व्यवस्था का गहरा पुट और वर्चस्व है। प्राकृत की तरह हिन्दी भी सन्तों और जनसाधारण की भाषा रही है। लोक जीवन से जुड़ी होने के कारण प्राकृत की तरह हिन्दी के सम्बन्धपरक शब्दों में आत्मीयता व सम्मान का पुट है।
आदिकालीन हिन्दी काव्य को विषयवस्तु की दृष्टि से तीन वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है। ये वर्ग हैं - लोकाश्रित काव्य, धर्माश्रित काव्य, और राज्याश्रित काव्य। तीनों ही वर्ग प्राकृत काव्य साहित्य से प्रेरित है। लोकाश्रित काव्य में ढोला मारू का दूहा, खुसरों की पहेलियाँ, प्राकृत पैंगलम् आदि कृतियाँ प्रमुख हैं। प्राकृत पैंगलम् में पुरानी हिन्दी के आदिकालीन कवियों द्वारा प्रयुक्त वर्णिक तथा मात्रिक छन्दों का विवेचन किया गया है। पुरानी हिन्दी के मुक्तक पद्यों की दृष्टि से इस ग्रंथ का अत्यधिक महत्व है। मध्ययुगीन हिन्दी छन्द शास्त्रियों ने इस ग्रंथ की छन्द परम्परा का पूरा अनुकरण किया है। इस प्रकार लोकाश्रित प्राकृत कृतियों में लोक हृदय की कोमल भावनाएँ भक्ति, शृंगार, नीति, मनोरंजन, सामाजिक चेतना के महत्वपूर्ण वर्णन मिलते हैं।
भावानुकूल भाषा शैली, वैविध्यपूर्ण छन्द विधान, प्रभावषाली बिम्ब विधान, चमत्कारिक अलंकारिक प्रतीक योजना, अपूर्व कल्पना सौन्दर्य आदि अनेक दृष्टियों से हिन्दी काव्य के विकास में प्राकृत काव्य का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। हिन्दी काव्य का आदिकाल प्रवृŸिायों और प्रस्तुतियों में अपनी पूर्व परम्पराओं का समर्थ संवाहक और परवर्ती रचनाकारों का सफल निर्देषक है। शृंगार, भक्ति और शौर्य - भारतीय काव्य के सनातन सन्दर्भ हैं, जो प्राकृत-संस्कृत साहित्य से लेकर अब तक हिन्दी सहित समस्त भारतीय भाषाओं में प्रयुक्त हुए हैं।
काव्य की भाँति अनेक प्राकृत कथा ग्रंथों, चरित ग्रंथों और उपदेषपरक ग्रंथों की साहित्यिक प्रवृŸिायों का हिन्दी में अनुकरण किया गया है। प्राकृत भाषा का प्रयोग तीर्थंकर महावीर और महात्मा बुद्ध ने उनके उपदेषों में किया, इसलिए यह भाषा श्रद्धा की भाषा बन गई। श्रद्धा की भाषा होने से प्राकृत और पालि के ग्रंथों का हिन्दी में अनुवाद, अनुषीलन और विवेचन हुआ और होता है। अनुवाद और विवेचन के साथ ही प्राकृत भाषा की प्रवृŸिायाँ भी हिन्दी में सहज रूप से आई और आती हैं।
विगत डेढ़ हजार वर्षों में हिन्दी साहित्य का जो सुविषाल प्रासाद निर्मित हुआ है, आदिकाल उसकी सुदृढ़ नींव है, जिसमें प्राकृत भाषा के भी अनेक तŸव विद्यमान हैं। उसकी विषयवस्तु, भाव-व्यंजना, दर्षन एवं षिल्प-संरचना प्राकृत भाषा और साहित्य से प्रेरित और प्रभावित है। अपनी अनेक विषेषताओं के कारण वर्तमान में हिन्दी भारत ही नहीं, दुनिया की प्रमुख लोकप्रिय भाषाओं में षुमार है।
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