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दिनांक - 15/03/2017
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प्रस्तुति - 🌻 तेरापंथ संघ संवाद 🌻
Source: © Facebook
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आचार्य श्री तुलसी की कृति आचार बोध, संस्कार बोध और व्यवहार बोध की बोधत्रयी
📕सम्बोध📕
📝श्रृंखला -- 4📝
*आचार-बोध*
*दर्शनाचार*
*12.*
निस्संकिय निक्कंखिय निव्वितिगिच्छा
अमूढ़दिट्ठी य।
उववूह थिरीकरणे बच्छल्ल
पभावणे अट्ठ।।
(नवीन छन्द)
*13.*
निस्संकिय रखना दृढ़ निष्ठा,
श्री वीतराग गुरूवचनों पर।
निक्कंखिय पर-मत-वांछा क्यों,
अतिरेक देख बाह्याडम्बर।।
*14.*
निव्वितिगिच्छा संदेह-त्याग,
निज साध्य-साधना के फल में।
जिसकी हो गूढ़ अमूढ़ दृष्टि,
क्यों उलझे मिथ्या हलचल में।।
*15.*
उपबृंह बढ़ावा सद्गुण का,
सम्यक्दर्शन का संपोषण।
चंचल साधक को संयम में,
स्थिर रखना सच्चा थिरीकरण।।
*16.*
वत्सलता ग्लानादिक सेवा,
उन्नति शासन की प्रभावना।
दर्शन के ये आचार आठ,
आराधो साधो एकमना।।
*दर्शनाचार के आठ प्रकार--*
*1. निःशंकित--* तीर्थंकर और गुरु के वचनों में शंका नहीं करना।
*दो. निःकांक्षित--* अन्यतीर्थिकों के मत की आकांक्षा नहीं करना।
*3.* निर्विचिकित्सित--* साध्य और साधना के फल में संदेह नहीं करना।
*4. अमूढ़दृष्टि--* अन्यतीर्थिकों के तपस्या या विद्याजनित अतिशय अथवा पूजा देखकर दृष्टि को मूढ़ नहीं करना।
*5. उपबृंहण--* सम्यक्त्व को पोषण देना, सद्गुणों को बढ़ावा देना।
*6. स्थिरीकरण--* संयम की साधना में अवसाद दिया अस्थिरता प्राप्त व्यक्ति को स्थिर करने का प्रयास करना।
*7. वात्सल्य--* रुग्ण, बाल और वृद्ध की सेवा करना, साधर्मिक के प्रति वत्सल भाव रखना।
*8. प्रभावना--* जिनशासन की उन्नति और प्रभावना के लिए प्रयत्न करना।
(संपादित दशवै. निर्युक्ति 157)
*चारित्राचार के आठ प्रकार* के बारे में जानेंगे-समझेंगे हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙
📝 *श्रंखला -- 4* 📝
*आचार्यों के काल का संक्षिप्त सिंहावलोकन*
*अध्यात्म-प्रधान भारत*
भारत अध्यात्म की उर्वर भूमि है। यहां के कण-कण में आत्म-निर्झर का मधुर संगीत है, तत्त्वदर्शन का रस है और धर्म का अंकुरण है। यहां की मिट्टी ने ऐसे नर रत्नों को जन्म दिया है जो अध्यात्म के मू्र्त्त रूप थे। उनके हृदय की हर धड़कन अध्यात्म की धड़कन थी। उनके उर्ध्वमुखी चिंतन में जीवन को समझने का विशद दृष्टिकोण दिया। भोग में त्याग की बात कही और कमल की भांति निर्लेप जीवन जीने की कला सिखाई।
वैदिक परंपरा के अनुसार चौबीस अवतारों ने इस अध्यात्म-प्रधान धरा पर जन्म लिया। बौद्ध परंपरा के अनुसार गौतम बुद्ध तथा बोधिसत्त्वों के रूप में पुनः-पुनः यहीं आगमन हुआ तथा जैन तीर्थंकरों का सुविस्तृत इतिहास भी इसी आर्यावर्त के साथ जुड़ा है।
*जैन परंपरा और तीर्थंकर*
जैन परंपरा में तीर्थंकर का स्थान सर्वोपरि होता है। नमस्कार महामंत्र में सिद्धों से पहले तीर्थंकर को नमस्कार किया जाता है। तीर्थंकर सूर्य की भांति ज्ञान-रश्मियों से प्रकाशमान और अध्यात्म-युग के अनन्य प्रतिनिधि होते हैं। चौबीस तीर्थंकरों की क्रम-व्यवस्था से अनुस्यूत होते हुए भी उनका विराट् व्यक्तित्व किसी तीर्थंकर विशेष की परंपरा के साथ आबद्ध नहीं होता। मानवता के सद्यःउपकारी तीर्थंकर होते हैं।
आचार्य अर्हत-परंपरा के वाहक होते हैं। उनके उत्तरवर्ती क्रम में शिष्यसंपदा अदि का पारस्परिक अनुदान होता है पर तीर्थंकरों के क्रम में ऐसा नहीं होता। तीर्थंकर स्वयं संबुद्ध, साक्षात् दृष्टा, ज्ञाता एवं स्वनिर्भर होते हैं। अतः वे उपदेश-विधि और व्यवस्था-क्रम में किसी परंपरा के वाहक नहीं, अनुभूत सत्य के उद्घाटक होते हैं एवं धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक होते हैं।
धर्म-तीर्थ के आद्य प्रवर्तक तीर्थंकर ऋषभ से अंतिम तीर्थंकर महावीर तक इन चौबीस तीर्थंकरों में से किसी भी तीर्थंकर ने अपने पूर्ववर्ती तीर्थंकरों की ज्ञान-निधि एवं संघ-व्यवस्था से न कुछ पाया और न कुछ उत्तरवर्ती तीर्थंकरों को दिया। सबकी अपनी स्वतंत्र परंपरा और स्वतंत्र शासन था। महावीर के समय में पार्श्वनाथ की परंपरा अविच्छिन्न थी पर तीर्थंकर महावीर के शासन में उस परंपरा का अनुदान नहीं था। पार्श्वनाथ की परंपरा के मुनियों ने महावीर के संघ में प्रवेश करते समय चतुर्याम साधना-पद्धति का परित्याग कर पंचमहाव्रत-साधना पद्धति को स्वीकार किया। यह प्रसंग तीर्थंकरों की स्वतंत्र व्यवस्था का द्योतक है।
*तीर्थंकर ऋषभ अरिष्टनेमि पार्श्वनाथ और महावीर की परंपरा* के बारे में संक्षिप्त रूप में जानेंगे... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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15 मार्च का संकल्प
तिथि:- चैत्र कृष्णा तृतीया
छोटे-छोटे संकल्पों से इंद्रियों का संयम सधे।
आत्मोत्थान की दिशा में कदम हर पल बढ़े।।
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