Posted on 11.10.2023 00:18
प्रेक्षा अधिवेशन : परम पूज्य गुरुदेव की पावन प्रेरणाप्रेक्षा अधिवेशन : परम पूज्य गुरुदेव की पावन प्रेरणा
🌸 अहिंसा व हिंसा दोनों हमारे भीतर में – आचार्य महाश्रमण🌸
- आचार्यश्री ने दी वृतियों को समतामय बनाने की प्रेरणा
- प्रेक्षा अधिवेशन का हुआ शुभारंभ
10.10.2023, मंगलवार, घोड़बंदर रोड, मुंबई (महाराष्ट्र)
जैन श्वेतांबर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशम अधिशास्ता युगप्रधान आचार्य श्री महाश्रमण जी के पावन सान्निध्य में नंदनवन परिसर में नित नवीन कार्यक्रमों का समायोजन हो रहा है। चातुर्मासिक काल में चतुर्विध धर्मसंघ द्वारा जप, तप, धर्माचरण द्वारा धार्मिक आराधना की जा रही है। प्रतिदिन प्रातः आचार्य प्रवर द्वारा जैन आगम भगवती आधारित व्याख्यान माला में जहां जैन दर्शन के सिद्धांतों से श्रोतागण परिचित हो रहे है वही रात्रिकालीन कार्यक्रम में मुख्यमुनि महावीर महावीर कुमार जी द्वारा जैन रामायण का रागमय सुमधुर विवेचन किया जा रहा है। मुंबई के उपनगरों सहित अनेक क्षेत्रों से बड़ी संख्या में श्रद्धालु वर्ग आचार्यश्री की उपासना हेतु घोड़बंदर रोड स्थित चातुर्मास स्थल पर पहुंच रहा है। आज प्रेक्षा फाउंडेशन, प्रेक्षा इंटरनेशनल एवं अध्यात्म साधना केंद्र, दिल्ली के तत्वावधान में दो दिवसीय प्रेक्षा अधिवेशन का आगाज हुआ।
धर्मसभा को संबोधित करते हुए मंगल प्रवचन में आचार्य श्री ने कहा – भगवती आगम में भगवान से अनेकों प्रश्नों का उल्लेख मिलता है। जिनमें सर्वाधिक प्रश्न गणधर गौतम ने किए थे। इसी कड़ी में भगवान महावीर से प्रश्न किया गया की क्या जीवों के प्रणातिपात क्रिया होती है ? उतर में कहा गया – हाँ होती है। कई बार भीतर में हिंसा होते हुए भी बाहर हिंसा नहीं होती व बाहर हिंसा होते हुए भी भीतर नहीं होती। सब बंध परिणामों से सम्बद्ध होते है। कर्म के संदर्भ में बाहर का मूल्य अल्प व भीतर का मूल्य ज्यादा होता है। हिंसा भी भीतर से ज्यादा सम्बन्धित होती है, यदि भीतर के भाव हिंसा के हो तो बाहर में हिंसा न होते हुए भी पाप कर्म का बंध हो जाता है।
आचार्य श्री ने आगे कहा कि पहले वृति और फिर प्रवृति। हमारी वृतियां अहिंसात्मक हो, समता-प्रधान हों व राग-द्वेष से मुक्त हों, यह मुख्य बात है। ध्यान साधना भी इसमें सहायक हो सकती है। राग-द्वेष से मुक्ति ध्यान का भी प्राण हैं। अहिंसा व हिंसा दोनों की जड़ें हमारे भीतर हैं। ध्यान, समता व अहिंसा एक त्रिवेणी है, इनमें एकत्व होता है तो हिंसा भी नियंत्रित हो सकती है। युद्ध पहले भीतर का होता है फिर बाहर का। वीतराग के भीतर राग–द्वेष नहीं होता तो वे हिंसा के भागी भी नहीं बनते है। पूण्य एक प्रकार से भौतिकता से जुड़ा हुआ है व संवर, निर्जरा आध्यात्म से संबंधित है।
कार्यक्रम में इस अवसर पर मुनि श्री कुमारश्रमण ने अपने विचार रखे। तत्पश्चात श्री के.सी जैसे, श्री अरविंद संचेती, श्री अशोक चिंडालिया ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी।
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धर्मसभा को संबोधित करते हुए मंगल प्रवचन में आचार्य श्री ने कहा – भगवती आगम में भगवान से अनेकों प्रश्नों का उल्लेख मिलता है। जिनमें सर्वाधिक प्रश्न गणधर गौतम ने किए थे। इसी कड़ी में भगवान महावीर से प्रश्न किया गया की क्या जीवों के प्रणातिपात क्रिया होती है ? उतर में कहा गया – हाँ होती है। कई बार भीतर में हिंसा होते हुए भी बाहर हिंसा नहीं होती व बाहर हिंसा होते हुए भी भीतर नहीं होती। सब बंध परिणामों से सम्बद्ध होते है। कर्म के संदर्भ में बाहर का मूल्य अल्प व भीतर का मूल्य ज्यादा होता है। हिंसा भी भीतर से ज्यादा सम्बन्धित होती है, यदि भीतर के भाव हिंसा के हो तो बाहर में हिंसा न होते हुए भी पाप कर्म का बंध हो जाता है।
आचार्य श्री ने आगे कहा कि पहले वृति और फिर प्रवृति। हमारी वृतियां अहिंसात्मक हो, समता-प्रधान हों व राग-द्वेष से मुक्त हों, यह मुख्य बात है। ध्यान साधना भी इसमें सहायक हो सकती है। राग-द्वेष से मुक्ति ध्यान का भी प्राण हैं। अहिंसा व हिंसा दोनों की जड़ें हमारे भीतर हैं। ध्यान, समता व अहिंसा एक त्रिवेणी है, इनमें एकत्व होता है तो हिंसा भी नियंत्रित हो सकती है। युद्ध पहले भीतर का होता है फिर बाहर का। वीतराग के भीतर राग–द्वेष नहीं होता तो वे हिंसा के भागी भी नहीं बनते है। पूण्य एक प्रकार से भौतिकता से जुड़ा हुआ है व संवर, निर्जरा आध्यात्म से संबंधित है।
कार्यक्रम में इस अवसर पर मुनि श्री कुमारश्रमण ने अपने विचार रखे। तत्पश्चात श्री के.सी जैसे, श्री अरविंद संचेती, श्री अशोक चिंडालिया ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी।
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